नीतीश का संयोजक बनना लगभग तय, क्या वीपी सिंह की तरह बन पाएंगे पीएम?
8 महीने से जारी मेहनत नीतीश कुमार के लिए अब रंग ला रही है. सब कुछ ठीक रहा तो शिमला में नीतीश कुमार विपक्षी मोर्चे के संयोजक बन सकते हैं. ऐसे में जानते हैं, यह पद उनके लिए कितना पावरफुल हो सकता है?
विपक्षी मोर्चे की उलझी पहेलियों के बीच नीतीश कुमार के संयोजक बनने की तस्वीर लगभग साफ हो गई है. अब कयास लगाए जा रहे हैं कि नीतीश कुमार विपक्ष की ओर से पीएम पद के सबसे बड़े दावेदार भी हो सकते हैं. इतिहास में एक बार ऐसा हो भी चुका है. राष्ट्रीय मोर्चा नाम से बने गठबंधन में विश्वनाथ प्रताप सिंह संयोजक थे और इसी मोर्चे ने उनको प्रधानमंत्री भी बना दिया था.
दरअसल पटना में हुई बैठक में सभी 15 दल नीतीश कुमार को संयोजक बनाने पर एकमत नजर आए. शिमला मीटिंग में इसकी औपचारिक घोषणा हो सकती है. 10-15 जुलाई के बीच शिमला में विपक्षी एकता की 2 दिवसीय बैठक प्रस्तावित है.
गठबंधन की राजनीति में संयोजक का पद काफी महत्वपूर्ण माना जाता रहा है. 1996 में कम सीट होने के बावजूद हरिकिशन सुरजीत ने संयुक्त मोर्चा की सरकार बनाने में बड़ी भूमिका निभाई.
1989 में राष्ट्रीय मोर्चा के कन्विनर रहे वीपी सिंह चुनाव के बाद प्रधानमंत्री बन गए. गठबंधन राजनीति के खेल में बीजेपी भी उतरी और समाजवादी जॉर्ज को एनडीए का संयोजक बनाया गया.
अटल सरकार में मंत्रियों के पोर्टफोलियो तय करने में जॉर्ज की राय अहम मानी जाती थी. हालांकि, गठबंधन पॉलिटिक्स में कई ऐसे संयोजक भी रहे, जो सिर्फ मीडिया की सुर्खियां बनकर रह गए.
इस स्टोरी में गठबंधन पॉलिटिक्स में संयोजक रहे नेताओं और उनके किस्से को विस्तार से जानते हैं...
देवीलाल चुन लिए गए थे नेता, लेकिन वीपी सिंह ही बने प्रधानमंत्री
1988 में कांग्रेस छोड़ जनता पार्टी में शामिल होने के वाले वीपी सिंह को 1989 के चुनाव में राष्ट्रीय मोर्चा का संयोजक बनाया गया. एनटी रामाराव इस मोर्चे के अध्यक्ष बने. 1989 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी सरकार बनाने से चूक गई.
इसके बाद राष्ट्रीय मोर्चा ने राष्ट्रपति के पास सरकार बनाने का दावा ठोक दिया. संसद के सेंट्रल हॉल में नेता चुनने के लिए मधु दंडवते की अध्यक्षता में जनता पार्टी की बैठक आयोजित की गई.
बैठक में सभी सांसदों ने चौधरी देवीलाल को अपना नेता चुना, लेकिन नाटकीय घटनाक्रम में देवीलाल ने वीपी सिंह को समर्थन दे दिया. वीपी सिंह इसके बाद प्रधानमंत्री बने.
देवीलाल का कहना था कि राजीव गांधी सरकार के खिलाफ बतौर संयोजक वीपी सिंह ने माहौल बनाने का काम किया, इसलिए उनका हक पीएम कुर्सी पर बनता है. देवीलाल ने कहा कि मैं प्रधानमंत्री नहीं, ताऊ ही बना रहना चाहता हूं.
फोन पर सुरजीत ने प्रधानमंत्री का नाम कर दिया फाइनल
देवगौड़ा की सरकार गिरने के बाद दिल्ली में नाम को लेकर कई दौर की बैठक शुरू हो गई. पीएम चेहरे के लिए अंदरुनी तौर पर वोट कराए गए, जिसमें मुलायम सिंह यादव मूपनार से आगे निकल गए, लेकिन शरद और लालू यादव ने पेंच फंसा दिया.
पेंच न सुलझता देख हरिकिशन सुरजीत अपने तय कार्यक्रम के मुताबिक मास्को के लिए निकल पड़े. इसी बीच तेलगू देशम पार्टी के नेताओं ने इंद्र कुमार गुजराल का नाम आगे बढ़ाया, जिस पर लालू और शरद भी सहमत हो गए.
(Photo- Getty)
इसके बाद सुरजीत को फोन कर इसकी जानकारी दी गई. सुरजीत ने गुजराल के नाम को फाइनल कर मुलायम को मनाने में जुट गए. मुलायम के मानते ही आधी रात गुजराल को इसकी सूचना दी गई.
एक इंटरव्यू में मुलायम सिंह ने कहा था कि वोटिंग में जीके मूपनार को 20 और मुझे 120 वोट मिले थे, लेकिन लालू-शरद ने पेंच फंसा दिया. बाद में सुरजीत ने मुझे फोन कर गुलजार के बारे में जानकारी दी.
हरिकिशन सुरजीत: 2 बार बीजेपी को सत्ता से बाहर करने वाला संयोजक
1992 में सीपीएम के महासचिव बनने के बाद हरिकिशन सुरजीत मोर्चा बनाने में जुट गए. 1996 में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद बीजेपी ने सरकार बनाने का दावा ठोक दिया. अटल बिहारी वाजपेई ने पीएम पद की शपथ भी ले ली, लेकिन बहुमत साबित नहीं कर पाए.
अटल की सरकार बनने को जनता पार्टी ने जाति विशेष से जोड़ दिया. संयुक्त मोर्चा का कहना था कि बहुमत नहीं होने के बावजूद अटल बिहारी को शंकर दयाल शर्मा ने ब्राह्मण होने की वजह से शपथ दिला दी.
बीजेपी के बहुमत साबित करने के तिकड़म के बीच सुरजीत ने सभी पक्ष को जोड़कर रखा और आखिर में अटल बिहारी को 13 दिन बाद इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद देश में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी.
1998 में सोनिया गांधी के आने के बाद संयुक्त मोर्चा बिखर गई. कांग्रेस ने पचमढ़ी में एकला चलो की नीति अपनाई, जिसके बाद 1999 में एनडीए सरकार बनाने में कामयाब हो गई. कांग्रेस ने इसके बाद अपनी रणनीति बदली.
हालांकि, कांग्रेस को सीटों में ज्यादा फायदा नहीं हुआ. कांग्रेस 145 और बीजेपी 138 सीटों पर जीत दर्ज की थी. चुनाव बाद सुरजीत ने यूपीए गठबंधन में कई दलों को जोड़कर गठबंधन की संख्या 280 के पार पहुंचा दी.
कांग्रेस से गठबंधन द्वार खुलने के बाद सुरजीत फिर सक्रिय हुए. चुनाव बाद सुरजीत ने कांग्रेस को समर्थन देकर यूपीए में शामिल होने का ऐलान कर दिया. समझौते के तहत सीपीएम को लोकसभा स्पीकर की कुर्सी भी मिली.
जॉर्ज फर्नांडिस: गठबंधन पॉलिटिक्स की नई लकीरें खिंचने वाला संयोजक
1996 में संयुक्त मोर्चा से मात खाने के बाद बीजेपी ने गठबंधन पॉलिटिक्स की ओर रुख किया. समता पार्टी के जॉर्ज फर्नांडिस तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का संयोजक बनाया गया.
वरिष्ठ पत्रकार मनमोहन शर्मा के मुताबिक जॉर्ज कांग्रेस के मुखर विरोधी थे और उससे गठबंधन के खिलाफ थे. जॉर्ज को जब कमान मिली तो उन्होंने उन सारे नेताओं को जोड़ा, जो कभी कांग्रेस विरोध की पॉलिटिक्स करते थे.
जॉर्ज ने तमिलनाडु में जयललिता, आंध्र में चंद्रबाबू नायडू, पश्चिम बंगाल में ममता, ओडिशा में नवीन पटनायक और हरियाणा में हरियाणा जनहित पार्टी (हजपा) को एनडीए गठबंधन में शामिल कराया.
जॉर्ज के कहने पर ही बीजेपी ने मेनिफेस्टो और कॉमन मिनिमम प्रोग्राम से राम मंदिर, अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दे को दूर रखा. अटल सरकार में कैबिनेट विस्तार और पोर्टफोलियो बंटवारे में जॉर्ज अहम भूमिका निभाते थे.
जॉर्ज के कहने पर ही अटल कैबिनेट में रक्षा, रेलवे, स्वास्थ्य, परिवहन जैसे महत्वपूर्ण विभाग बीजेपी ने सहयोगियों को दिया था. 1999 में बीजेपी ने 24 पार्टियों के सहयोग के से सरकार चलाना शुरू किया.
गठबंधन की यह सरकार पूरे 5 साल तक चली. पहली बार भारत में गठबंधन की किसी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया था.
संयोजक बने पर सफल नहीं हो पाए, 2 नेताओं की कहानी
शरद यादव- 2008 में जॉर्ज फर्नांडिस की जगह पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने शरद यादव को अपना संयोजक बनाया. पद संभालने के बाद शरद यादव ने कई चर्चित बयान दिए. शरद ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री घोषित करने की मांग भी की.
2009 के चुनाव में बीजेपी के साथ सिर्फ 8 दल ही आए. 2004 में यह आंकड़ा 12 था. 2009 के चुनाव में एनडीए की करारी हार हुई. 2004 में एनडीए को 189 सीटों पर जीत मिली थी, 2009 में यह 151 पर सिमट कर रह गई.
शरद यादव 2013 तक एनडीए के संयोजक पद पर रहे. जेडीयू और बीजेपी के अलग होने के बाद उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया था.
चंद्रबाबू नायडू- 2007 में जयललिता के साथ मिलकर चंद्रबाबू नायडू ने यूनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव एलायंस का गठन किया. 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में इस गठबंधन ने खुद के उम्मीदवार देने की बात कही.
उसी समय चंद्रबाबू नायडू को इसका संयोजक भी बनाया गया. नायडू ने सभी से सहमति लेकर एपीजे अब्दुल कलाम को फिर से राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने की पहल की, लेकिन उन्होंने उम्मीदवार बनने से मना कर दिया.
2009 के चुनाव से पहले ही यह गठबंधन बिखर गया. नायडू भी गठबंधन को जोड़कर नहीं रख पाए. यूएनडीपीए में शामिल कुछ दल यूपीए तो कुछ लेफ्ट फ्रंट में शामिल हो गए.
नीतीश संयोजक बने तो कितनी शक्ति मिलेगी?
1. एक रिपोर्ट के मुताबिक विपक्षी मोर्चे के भीतर टिकट बंटवारे के लिए एक कमेटी बनाई जाएगी. इस कमेटी में संयोजक का पद महत्वपूर्ण रहेगा.
2. 14 में सिर्फ 3 पार्टियां ऐसी है, जिसके साथ कांग्रेस पहले से गठबंधन में है. बाकी के 12 पार्टियों को साथ लाने का काम नीतीश कुमार ने किया है.
3. 2024 में विपक्षी मोर्चे की सरकार बनती है, तो नीतीश कुमार ही प्रधानमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार हो सकते हैं. विपक्षी मोर्चे में शामिल दलों के अलावा भी कई पार्टियां नीतीश के संपर्क में है.
4. चुनाव से पहले बनने वाले मेनिफेस्टो में भी नीतीश कुमार के मुद्दे की छाप दिख सकती है यानी जातीय जनगणना जैसे मुद्दे विपक्षी मोर्चे का अहम मुद्दा रह सकता है.