नई दिल्ली: राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का निजामुद्दीन सदियों से मुसलमानों के बीच खासा अहमियत रखता है. महान उर्दू शायर मिर्जा गालिब का मजार हो या हिमायूं का मकबिरा, मुगल दौर की कई निशानियां आज भी यहां आबाद है, लेकिन इसकी असल पहचान है: हजरत निजामुद्दीन की दरगाह जो 13वीं सदी से गुलजार है.


दरगाह के आबाद होने के सात सौ साल बाद 20वीं सदी में यहां तब्लीगी जमात का मरकज (सेंटर) बना. दिलचस्प बात ये है कि देश का हर तबका निजामुद्दीन दरगाह के बारे में जानता है, लेकिन तब्लीगी जमात से अंजान है. हालांकि, दुनिया में इस वक्त निजामुद्दीन दरगाह से ज्यादा शोहरत तब्लीगी जमात की है. खास बात ये है कि दोनों संगठनों की विचारधारा नदी की दो छोर जैसी है, जिसका मिलान कहीं भी मुमकिन नहीं है. जहां दरगाह में कव्वाली और संगीत की महफिलें सजती हैं वहीं तब्लीगी जमात के यहां इसे हराम समझा जाता है.


क्या है दोनों की विचारधारा?


दरगाह- सूफी इस्लाम का प्रचारक है. इसके दायरे में न सिर्फ मुसलमान हैं, बल्कि गैर मुसलमान भी हैं. यहां हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई का फर्क करना मुश्किल है. दरगाह के दरवाजे सभी के लिए खुले होते हैं. यहां सभी धर्म के लोग रुहानी तस्कीम (आध्यात्मिक सुकून) पाते हैं.


तब्लीगी जमात- दिलचस्प है कि इसके संस्थापक खुद को अपना सिलसिला सूफियों से जोड़ते हैं, लेकिन वे जिस इस्लाम का प्रचार प्रसार करते हैं, वो देवबंदी इस्लाम है. ये वहाबी इस्लाम के घोर विरोधी है, लेकिन तब्लीगी जमात की तालीम में वहाबी इस्लाम का वो हिस्सा हावी है जिसे इस्लामी जबान में बिद्अत (नयापन) कहा जाता है. यानि तब्लीगी इस्लाम में किसी नई सोच के बिल्कुल विरुद्ध है.


समानता- फिक्ह के मामले दरगाह और तब्लीगी दोनों हनफी हैं. (सुन्नी इस्लाम में चार बड़े संप्रदाय हैं. भारतीय महाद्वीप में 90 फीसदी सुन्नी मुसलमान हनफी इस्लाम के मानने वाले हैं.)


दरगाह और मरकज का संचालन 


दरगाह- संचालन चिश्ती परिवार के पास है. यहां कई तरह के संगठन बने हुए हैं और वे सब मिलकर दरगाह की देखभाल करते हैं. दरगाह में हर रोज हजारों लोग जियारत, फातेहा पढ़ने और अपनी मन्नतें, मुरादें लेकर मुसलमान सहित हर धर्म के लोग आते हैं. कुछ समय दरगाह में गुजारते हैं और फिर चले जाते हैं. चढ़ावा भी चढ़ाते हैं. यहां रात में रहने का कोई  मामला नहीं होता. दरगाह आने वाले ज्यादतर लोग भारत और पड़ोसी देशों के होते हैं.


तब्लीगी जमातइसका संचालन भी पारिवारिक है. अब तक जो भी अमीर बने हैं, वे सभी संस्थापक मौलाना इलियास के परिवार के हैं. यहां सिर्फ मुसलमान आते हैं और वो यहां आकर ये बताते हैं कि उन्होंने इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए क्या किया है. या यहां से प्रचार-प्रसार के लिए निकलते हैं. जो भी आते हैं- यहां एक दो दिन रुक जाते हैं. यहां रात में ठहरने का पूरा इंतजाम है. चंदे का चलन नहीं है. सब अपना खर्च करते हैं. आने वालों में विदेशियों की संख्या भी अच्छी खासी होती है. ये अपने प्रचार प्रसार के लिए पूरी दुनिया में काम करते हैं.


समानता- दोनों पारिवारिक संगठन जैसा है, जबकि इस्लाम किसी संगठन पर नस्ल दर नस्ल परिवार के काबिज होने का विरोधी है.


सालाना उर्स और इज्तिमा


दरगाह- हर साल उर्स करता है और ये हजरत निजामुद्दीन औलिया के जन्मदिन पर होता है. इस मौके पर बड़ी संख्या में लोग आते हैं.


तब्लीगी- यहां भी हर साल इज्तिमा (जलसा) होता है. देश-दुनिया सहित भारत के अलग अलग राज्यों में हमेशा इज्तिमा होता रहता है. दुनिया का सबसे बड़ा इज्तिमा बांग्लादेश में होता है, जबकि भारत का सबसे बड़ा इज्तिमा भोपाल में होता है. इस इज्तिमा का संबंध इसके संस्थापक से नहीं होता है.


समानता- दोनों संगठन लोगों के इकट्ठा करने में यकीन रखते हैं.


कव्वाली और संगीत


दरगाह- दरगाह में शाम को कव्वाली होती है, संगीत की महफिलें सजती हैं. इसमें हर धर्म के लोग शरीक होते हैं. इसे एक रुहानी महफिल करार दिया जाता है.


तब्लीगी- तब्लीगी संगीत और कव्वाली जैसी महफिल को हराम (नाजायज़) समझते हैं. यहां ऐसा कोई आयोजन नहीं होता.


समानता- यहां दोनों संगठन 180 डिग्री पर हैं.


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