नई दिल्ली: नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ आए अविश्वास प्रस्ताव ने लोकसभा में छोटी पार्टियों के टोले और गैर-यूपीए विपक्षी दलों के खेमे में खासी खलबली मचा दी है. सूबाई समीकरणों के सहारे अपना राजनीतिक रास्ता तय करने वाले अनेक क्षेत्रीय दलों के सामने इस बात का संकट पैदा हो गया है कि उन्हें न चाहते हुए भी अपने कई पत्ते खोलने होंगे. यानी अब तक सियासी सुविधा से दोनों पालों में अपने हित साधते रहे दलों को पक्ष-विपक्ष या निष्पक्ष का खेमा चुनना ही पड़ेगा.


इस कड़ी में रोचक राजनीतिक उलझन लोकसभा में 20 सांसदों वाले पांचवें सबसे बड़े दल बीजेडी की है. मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव चूंकि तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) का स्वीकार हुआ है लिहाजा बीजेडी को काफी संभलकर अपना खेमा तय करना होगा.


उड़ीसा में बीजेपी की बढ़ती आक्रामक पैठ के बीच बीजेडी के लिए अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन सहज समीकरण नज़र आता है. मगर उलझन अविश्वास प्रस्ताव में तेलगु देशम पार्टी के साथ खड़े नजर आने की है. क्योंकि आंध्रा में सत्तारूढ़ तेलगु देशम पार्टी के साथ पोलावरम बांध को लेकर बीजेडी की सत्ता वाले उड़ीसा की खींचतान चल रही है. ऐसे में अगर केंद्र से विशेष पैकेज न मिलने की शिकायत के साथ एनडीए से बाहर हुई टीडीपी ने सदन में बहस की शुरुआत करते हुए पोलावरम परियोजना का मुद्दा उठाया तो विपक्षी खेमे में होने के बावजूद बीजेडी के लिए प्रस्ताव के समर्थन में खड़ा होना मुश्किल होगा. उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार किसानों का हवाला देते हुए पोलावरम परियोजना पर काम रोकने की मांग करती रही है जबकि आंध्र की चंद्रबाबू नायडू सरकार इसे खारिज कर काम आगे बढ़ाने के हक में है.


लोकसभा में शुक्रवार 20 जुलाई को अविश्वास प्रस्ताव की प्रस्तावक तेलगु देशम पार्टी को ही बहस की शुरुआत का मौका मिलेगा. ऐसा में यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुए आंध्र प्रदेश के बंटवारे और राज्य को वादे के मुताबिक न मिल पाए विशेष पैकज पर शिकायती सवालों की आंच प्रस्ताव के साथ खड़ी कांग्रेस को भी झेलनी होगी. इतना ही नहीं गैर-यूपीए व गैर-एनडीए दलों की खेमे में 11 सांसदों वाली टीआरएस के लिए भी सीधे तेलगु देशम पार्टी के साथ खड़ा होना आसान नहीं होगा.


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इसे संयोग कहिए या रणनीति, लोकसभा में जिस वक्त सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को मंजूरी मिली उस वक्त सदन की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद तृणमूल कांग्रेस न तो अधिक मुखर नजर आई और न ही उसके सांसदों का संख्याबल दिखा. सोमवार शाम पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन की बात तो कही लेकिन साथ ही यह भी जोड़ दिया कि असली अविश्वास प्रस्ताव 2019 के चुनावों में ही आएगा. जाहिर है सदन में अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस देने वालों में शामिल अपनी धुर विरोधी पार्टी सीपीएम के साथ खड़े होने का फैसला टीएमसी ने केवल विपक्ष धर्म की मर्यादाओं का लिहाज करते हुए लिया.


संसद के बजट सत्र के दौरान सदन की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी एआईएडीएमके का हंगामा और विरोध ही अविश्वास प्रस्ताव की कोशिशों के खिलाफ सरकार के लिए ढाल साबित हुआ था. वहीं मानसून सत्र के पहले दिन जब सरकार की सहमति से सदन में अविश्वास प्रस्ताव मजूर हुआ तो पिछले सत्र व्यवहार के विपरीत अन्नाद्रमुक (एआईएडीएमके) सांसद शांत थे. ऐसे में पार्टी सुप्रीमो जयललिता की मौत के बाद से लड़खड़ाई एआईएडीएमके उस अविश्वास प्रस्ताव पर समर्थन का दांव नहीं लगाना चाहेगी जिसका गिरना फिलहाल तय माना जा रहा है.



इतना ही नहीं दक्षिण भारत के सबसे बड़े सूबे तमिलनाड़ु की घरेलू सियासत के समीकरण और आंध्र व कर्नाटक के साथ चल रहे विवादों की इबारत भी सत्तारूढ पार्टी के फैसले का रुख तय करेगी. लोकसभा में डीएमके के सांसद भले न हों लेकिन कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए से उसके गठजोड़ घोषित है. ऐसे में एआईएडीएमके के लिए सीधे-सीधे यूपीए के साथ खड़ा होना कठिन होगा.


इतना ही नहीं जिस कर्नाटक के साथ जिस कावेरी जल बंटवारे पर अदालती फैसला का विरोध करते हुए अन्नाद्रमुक सांसद पिछले सत्र में हंगामा कर रहे थे, अब उस राज्य में सरकार वाली कांग्रेस और जेडीएस के साथ नजर आने की भी अपनी राजनीतिक मुश्किलें है.


इन समीकरणों में यह तथ्य भी मायने रखता है कि एनडीए के स्पष्ट बहुमत वाली 16वीं लोकसभा में अब भी सदन के उपाध्यक्ष का पद एआईएडीएमके नेता एम थंबिदुरई के पास ही है. लोकसभा में आआईएडीएमके के 37 सांसद हैं.


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बहरहाल अपनी सियासी सुविधा और इच्छा-काल के मुताबिक अविश्वास प्रस्ताव के लिए दरवाज़ा खोल कई छोटे दलों और खासतौर पर विपक्षी गठबंधन के गढ़ में रिसाव की दरारें ज़रूर डाल दी हैं. ऐसे में जबकि सरकार के पास आसानी से बहुमत साबित करने का आंकड़ा हो, अपने लिए किसी एक खेमे में खड़ा होने की मजबूरी कई क्षेत्रीय दलों के लिए फिलहाल मुनाफे का सौदा नहीं होगा. मगर, लोकतंत्र के राजधर्म का तकाज़ा है कि इन दलों को चुनाव तो करना ही होगा.


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