नई दिल्ली : चुनाव में धर्म या जाति के नाम पर वोट मांगने को सुप्रीम कोर्ट ने पूरी तरह से गैरकानूनी करार दिया है. अब कोई उम्मीदवार अपने धर्म, जाति या भाषा के आधार पर वोट नहीं मांग सकेगा. किसी वर्ग विशेष के मतदाताओं से भी एक उम्मीदवार या पार्टी को वोट देने की साझा अपील नहीं की जा सकेगी.


क्या है फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) की नए सिरे से व्याख्या करते हुए उसमें वोटरों को भी जोड़ दिया है. अब तक इस धारा के दायरे में सिर्फ उम्मीदवार आते थे. उम्मीद जताई जा रही है कि वोटरों को भी शामिल करने के बाद इस फैसले के बाद धार्मिक नेताओं की तरफ से जारी होने वाली वोट अपीलों पर लगाम लगेगी. यानी अगर कोई धार्मिक नेता किसी उम्मीदवार या पार्टी के लिए अपने समुदाय से वोट की अपील करे तो उम्मीदवार इस बात की आड़ नहीं ले सकेगा कि वो खुद उस समुदाय से नहीं है.

कोर्ट ने क्या कहा

ये फैसला सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की बेंच ने 4-3 के बहुमत से दिया है. फैसले में कहा गया है "धर्म को किसी भी ऐसे काम का हिस्सा नहीं बनना चाहिए जिसकी प्रकृति धर्मनिरपेक्ष है. चुनाव भी एक ऐसा ही काम है."

मामला कोर्ट में कैसे पहुंचा

दरअसल ये मामला लगभग 25 साल पुरानी 2 चुनाव याचिकाओं का है. दोनों मुकदमे नब्बे के दशक की शुरुआत के हैं. एक याचिका 1990 में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव जीतने वाले बीजेपी उम्मीदवार अभिराम सिंह का है. दूसरा मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के निर्वाचन से जुड़ा है. दोनों मामलों में ही आरोप धार्मिक आधार पर वोट मांगने का था. इन्हें विस्तृत सुनवाई के लिए 7 जजों की बेंच के पास भेजा गया था. पिछले साल 27 अक्टूबर को कोर्ट ने लगातार 6 दिन तक सभी पक्षों को सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रखा था.

ये मामला 'हिंदुत्व' से जुड़ा नहीं

1995 में सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेंच ने 'हिंदुत्व' को जीवनशैली बताया था. कोर्ट ने कहा था कि 'हिंदुत्व' के नाम पर वोट मांगने को हिन्दू धर्म के नाम पर वोट मांगना नहीं माना जा सकता. इस परिभाषा के चलते महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी समेत कई शिवसेना-बीजेपी विधायकों की सदस्यता रद्द होने से बच गई थी.

सुनवाई की शुरुआत में माना जा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट 'हिंदुत्व' की परिभाषा पर दोबारा विचार करेगा. लेकिन, सुनवाई के दौरान कोर्ट ने इस बात को साफ कर दिया कि वो 'हिंदुत्व' की परिभाषा पर विचार नहीं कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसके सामने लंबित मामलों का इससे कोई रिश्ता नहीं है.

बाकी 3 जजों का फ़ैसला

सुप्रीम कोर्ट के जिन 7 जजों ने पूरे मामले को सुना था वो हैं - चीफ जस्टिस टी एस ठाकुर, जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस शरत बोबड़े, जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस यु यु ललित और जस्टिस आदर्श गोयल. इनमें शुरू के चार जज मतदाताओं को भी कानून की परिभाषा में जोड़ने के पक्ष में रहे. जबकि, जस्टिस चंद्रचूड़, जस्टिस ललित और जस्टिस गोयल ने माना है कि चुनाव सदियों से दबे कुचले वर्गों को उनका हक दिलाने की प्रक्रिया का हिस्सा है. ऐसे में वंचित/शोषित समुदाय को उसके हित के बारे में जागरूक करना गलत नहीं माना जा सकता.

हालांकि, ये फैसला अल्पमत का होने की वजह से प्रभावी नहीं हो सकेगा. आने वाले समय में धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगने वाली पार्टियों और उम्मीदवारों को अब ऐसा करने से बचना होगा. अगर किसी उम्मीदवार को इसका दोषी पाया गया तो उसका निर्वाचन रद्द कर दिया जाएगा. साथ ही, चुनाव आयोग पार्टियों पर भी कार्रवाई के लिए आज़ाद होगा.


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