अफगान में तालिबान के आने से LOC और कश्मीर के हालात पर नहीं पड़ेगा खास असर- टॉप मिलिट्री कमांडर
भारत के टॉप कमांडर के मुताबिक, अफगान सेना ने बिना लड़े तालिबान के सामने इसलिए सरेंडर कर दिया, क्योंकि सैनिकों को पता ही नहीं था कि वे किसके लिए लड़ रहे हैं.
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नई दिल्ली: अफगानिस्तान में तालिबान के सत्तारूढ़ होने से एलओसी और कश्मीर के हालात पर खास असर नहीं पड़ने वाला है. ना ही भारत को ऐसा लगता है कि बड़ी तादाद में तालिबानी लड़ाके पाकिस्तान की सीमा से घुसपैठ कर जम्मू-कश्मीर में दाखिल हो पाएंगे. ये मानना है भारत के एक टॉप मिलिट्री कमांडर का.
एक अनौपचारिक मुलाकात में चुनिंदा मीडियाकर्मियों से बातचीत करते हुए देश के टॉप मिलिट्री कमांडर में से एक ने कहा कि "थोड़े बहुत अफगानी आतंकी पाकिस्तान की तरफ से एलओसी पर घुसपैठ कर कश्मीर आ सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि हजारों की तादाद में आ पाएंगे." कमांडर के मुताबिक, 90 के दशक में और इस सदी के शुरुआत तक में इक्का-दुक्का आतंकी अफगानिस्तान से कश्मीर में आते रहते थे. लेकिन ज्यादा चिंता की जरूरत नहीं है, उनसे निपटने में भारतीय सेना पूरी तरह सक्षम है.
इसके अलावा भारत के सुरक्षा-तंत्र ने अफगानी सेना के तालिबानी लड़ाकों के सामने तुरंत सरेंडर करने का जो विश्लेषण किया है उसमें पाया है कि सरेंडर करने का एक बड़ा कारण अफगानिस्तान के राष्ट्रपति सहित शीर्ष नेतृत्व के देश छोड़कर भागना है. भारत के टॉप कमांडर के मुताबिक, अफगान सेना ने बिना लड़े तालिबान के सामने इसलिए सरेंडर कर दिया, क्योंकि सैनिकों को पता ही नहीं था कि वे किसके लिए लड़ रहे हैं. अफगानिस्तान के शीर्ष राजनैतिक नेतृत्व के देश छोड़कर भागने से अफगान सैनिकों में हताशा फैल गई थी.
काबुल में बिना लड़े ही हथियार डाल दिए
गौरतलब है कि अफगान सेना ने सीमावर्ती प्रांतों में तो तालिबान से लड़ाई की, लेकिन काबुल में बिना लड़े ही हथियार डाल दिए थे. अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान में तैनात होने के दौरान भी सीमावर्ती इलाकों के करीब 30 प्रतिशत हिस्से पर तालिबान का ही कब्जा था. ऐसे में तालिबान ने अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान छोड़ते ही पूरे देश को अपने काबू में कर लिया. अफगान सेना का वर्ग-विभाजन भी सरेंडर का एक बड़ा कारण माना जा रहा है. अफगान सेना में पश्तूनों वर्ग के लिए 40-45 फीसदी तक आरक्षण है, जबकि बाकी 40 फीसदी में उजबेक, ताजिक और हजारा के लिए था. बाकी दस फीसदी अन्य अल्पसंख्यकों के लिए था. जबकि, तालिबान में शत-प्रतिशत पश्तून लड़ाके हैं.
भारत तालिबान के खिलाफ अपने सैनिकों को अफगानिस्तान भेजने से हिचकिचाती रहा है. जबकि अमेरिका और अफगान सरकार चाहती थी कि तालिबान के खिलाफ भारत सरकार अफगान सेना की मदद करे. लेकिन भारत ने 'फुट ऑन ग्राउंड' से साफ इंकार कर दिया था.
सामरिक जानकार मानते आए हैं कि अगर भारत के सैनिक अफगानिस्तान की धरती पर जाते तो उन्हें 'लॉजिस्टिक' मुश्किलें आ सकती थीं. इसका एक बड़ा कारण ये था कि भारत का बॉर्डर अफगानिस्तान से सटा नहीं है. पाकिस्तान के रास्ते सप्लाई लगभग नामुमकिन थी. अफगानिस्तान क्योंकि 'लैंड-लॉक' देश है तो वहां समंदर के रास्ते भी सैनिकों के लिए रसद, राशन, हथियार और दूसरे सैन्य साजो सामान सप्लाई नहीं की जी सकती थी. जबकि किसी भी युद्ध और ऑपरेशन के लिए 'लॉजिस्टिक सप्लाई चेन' बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.
मुकाबला वैसे ही किया जाएगा जैसे आतंकवाद का किया जाता है
आपको बता दें कि हाल ही में देश के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ यानि सीडीएस जनरल बिपिन रावत ने भी कहा था कि अफगानिस्तान की परिस्थितियों को लेकर भारत तैयार है और अगर वहां की परिस्थितियों का भारत पर असर पड़ता है तो उसके लिए भी भारत तैयार है और उसका मुकाबला वैसे ही किया जाएगा जैसे आतंकवाद का किया जाता रहा है. सीडीएस जनरल बिपिन रावत ने साफ तौर से कहा था कि भारत को पहले से इस बात का अंदेशा था कि अफगानिस्तान में तालिबान का राज आने वाला था, लेकिन इतनी जल्दी आ जाएगा, इसका अंदेशा नहीं था. बावजूद इसके भारत ने 'कंटिनजेंसी-प्लान' पहले से ही तैयार कर रखा था.
सीडीएस ने कहा था कि अगर अमेरिका तालिबान के भारत के खिलाफ किसी साजिश की खुफिया जानकारी साझा करता है तो उसे ग्लोबल-टेरेरिज्म मानकर कारवाई की जाएगी. सीडीएस ने उस दौरान अपने संबोधन में तालिबन के 'समर्थक' (देशों) को भी चेतावनी दी.
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