''बीमार ना रहेगा अब लाचार
बीमारी का होगा मुफ्त उपचार''


''स्वास्थ्य आपका साथ हमारा''


ये टैग लाइन है भारत सरकार के 'प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना' (आयुष्मान भारत) की. इस योजना के तहत देश के 10 करोड़ से अधिक चयनित परिवारों यानि करीब 50 करोड़ लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी. इस योजना में प्रतिवर्ष प्रति परिवार को 5 लाख रुपये तक का स्वास्थ्य लाभ देने की भी घोषणा है.


सरकार की इस योजना का उद्देश्य एक स्वस्थ देश बनाने की है. भले ही सरकार ने एक नेक इरादे से इस योजना की घोषणा की है, लेकिन इसे पूरा करना अभी दूर की कौड़ी लगती है. कम-से-कम आंकड़ें तो यहीं बताते हैं. देश इस समय डॉक्टरों की भयंकर कमी से जूझ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 1:1000 यानि प्रति 1000 लोगों पर एक डॉक्टर का मानक तैयार किया हुआ है. जबकि, भारत में ये आंकड़ा 1:1674 का है. मतलब कि 1674 लोगों पर एक डॉक्टर. इनमें से भी ज्यादातर डॉक्टर शहरों में काम कर रहे हैं जबकि आज भी देश की करीब 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है. ऐसे में एक स्वस्थ देश बनाने का सपना शायद ही पूरा हो पाए.


डब्ल्यूएचओ के आंकड़ें छूना मुश्किल
साल 2015 में आई संसदीय स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगर देश में हर साल 100 मेडिकल कॉलेज खोले जाए, तो भी डब्ल्यूएचओ के मानक (यानि एक हज़ार लोगों पर एक डॉक्टर) को पूरा करने में साल 2029 तक का वक्त लग जाएगा. और ये भी तभी संभव है जब इस दौरान बनने वाले डॉक्टर बेहतर मौकों के लिए विदेशों में नौकरी न करें. डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों को छूने के लिए देश में अभी करीब 5,00,000 डॉक्टरों की कमी है. '1674 लोगों पर एक डॉक्टर' का भारत का ये आंकड़ा वियतनाम, अल्जीरिया और पाकिस्तान से भी खराब है. ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ्रीका) देशों में भी भारत ऐसा है जो स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सबसे कम पैसे खर्च करता है.


भारत में मेडिकल कॉलेज 
आजादी के वक्त देश में कुल 23 मेडिकल कॉलेज थे, जिनकी संख्या साल 2014 में 398 हो गई. रिपोर्ट के मुताबिक, डॉक्टरों की कमी पूरा करने के लिए साल 2014 तक देश में 398 नहीं बल्कि 1000 मेडिकल कॉलेज होने चाहिए थे.


गांवों की हालत शहरों से भी खराब
देश में फिलहाल जितने भी डॉक्टर हैं उनमें से ज्यादातर शहरों में काम करते हैं. ऑर्गनाइजेशन ऑफ फॉर्मासिटीकल प्रोड्यूसर्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट की मानें तो देश की लगभग 75 फीसदी डिस्पेंसरी, 60 फीसदी हॉस्पिटल और 80 फीसदी डॉक्टर शहरों में हैं. जबकि, देश की 70 फीसदी के करीब जनसंख्या गांवों में रहती है. इससे ये समझना मुश्किल नहीं है कि गांव के लोगों को कैसी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती होंगी. झोलाछाप डॉक्टरों की संख्या शहरों के मुकाबले गांवों में ज्यादा है. डब्ल्यूएचओ की 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, गांवों में प्रैक्टिस करने वाले पांच डॉक्टरों में से केवल एक के ही पास डिग्री होती है. गावों में अपने आप को डॉक्टर बताने वालों में से करीब 31 फीसदी केवल 12वीं पास होते हैं, जबकि 57 फीसदी डॉक्टरों के पास कोई मेडिकल डिग्री नहीं होती है.


देश छोड़ने की वजह से भी है डॉक्टरों की कमी
देश में डॉक्टरों की कमी की एक प्रमुख वजह उनका विदेश जाना भी है. देश के ज्यादातर डॉक्टर अपनी प्रैक्टिस गांवों में या छोटे शहरों में नहीं करना चाहते हैं. इसीलिए वे डिग्री पूरी करके या तो विदेश में प्रैक्टिस करने चले जाते हैं या फिर वहां जाकर हायर एजुकेशन पूरी करते हैं. देश के डॉक्टरों की इस प्रवृत्ति के पीछे कहीं-न-कहीं मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) भी बढ़ावा देता है. एमसीआई उन डाक्टरों को सम्मान देता है जो विदेश जाकर अपनी सेवा देना चाहते हैं. वो ये सम्मान 'गुड स्टैंडिंग सर्टिफिकेट' देकर करता है. साल 2015 से लेकर साल 2017 तक एमसीआई कुल 7283 गुड स्टैंडिंग सर्टिफिकेट दे चुका है.



देश से बाहर मोटी कमाई
ज्यादातर डॉक्टर ज्यादा पैसे बनाने के लिए देश में प्रैक्टिस नहीं करना चाहते हैं. विदेशों में उनकी अच्छी इनकम होती है इसलिए वो वहां प्रैक्टिस करना ज्यादा पसंद करते हैं. देश में हर साल करीब प्राइवेट कॉलेजों से 55,000 डॉक्टरों को डिग्री मिलती है. ज्यादातर कॉलेज डोनेशन के नाम पर ज्यादा फीस की मांग करते हैं. कुछ कॉलेजों में तो डॉक्टर की डिग्री पाने के लिए 2-3 करोड़ रुपये फीस देनी पड़ती है. इसी फीस की भरपाई करने के लिए डॉक्टर विदेशों का रूख करते हैं.


कुछ राज्यों के आंकड़ें डरावने
देश में डॉक्टरों की इस कमी में कहीं-कहीं असमानता देखने को मिलती है. तमिलनाडु, दिल्ली, कर्नाटक, केरल, गोवा और पंजाब में डॉक्टर और लोगों का अनुपात उम्मीद से ज्यादा अच्छा है. इन राज्यों में प्रति 1000 लोगों पर डॉक्टरों का अनुपात अधिकतम 1:789 और न्यूनतम 1:253 है. जबकि, झारखंड, हरियाणा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, बिहार और हिमाचल प्रदेश में ये आंकड़ा काफी डराने वाला है. यहां न्यूनतम अनुपात ही 1:3124 का है जबकि अधिकतम अनुपात 1:8180 का है. इस तरह से देश में डॉक्टर और लोगों का औसत अनुपात 1:1674 का है.


क्वांटिटी ही नहीं क्वालिटी की भी भारी कमी
स्वास्थ्य सुविधाओं को पूरा करने के लिए देश में डॉक्टरों की क्वांटिटी की ही नहीं बल्कि क्वालिटी की भी भारी कमी है. भारत में उतने लोग इलाज कराने से नहीं मरते, जितने की खराब इलाज से मर जाते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2016 में इलाज न कराने की वजह से आठ लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो गई, जबकि खराब इलाज कराने की वजह से करीब 16 लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. खराब इलाज की वजह से देश में हर साल 1,00,000 लोगों में से 122 लोगों की जान चली जाती है, जो कि पड़ोसी देशों पाकिस्तान (119), नेपाल (93), बांग्लादेश (57) और श्रीलंका (51) के मुकाबले काफी ज्यादा है.


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी हाल में ही 25 सितंबर को आयुष्मान भारत योजना का शुभारंभ किया है. इसकी पायलट टेस्टिंग भी शुरू की जा चुकी है. अब देखना होगा कि डॉक्टरों की कमी के साथ सरकार अपने लक्ष्य को कैसे पूरा कर पाती है और कैसे देश के लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करा पाती है.