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रायबरेली: सोनिया गांधी के गढ़ का भी गणित गड़बड़ाया, विपक्षी एकता में सबसे बड़ा रोड़ा क्या कांग्रेस है?

सपा ने सोनिया गांधी के खिलाफ 2004 में उम्मीदवार को उतारा था. उस वक्त सपा के उम्मीदवार को 1 लाख 28 हजार से ज्यादा वोट मिले थे. 2022 में सपा ने रायबरेली के 5 में से 4 सीटों पर जीत दर्ज की थी.

मिशन 2024 के सियासी जंग से पहले बीजेपी के खिलाफ बन रहे विपक्षी एकता को बड़ा झटका लगता दिख रहा है. ममता बनर्जी और अखिलेश यादव के नया मोर्चा बनाने की घोषणा के बाद अरविंद केजरीवाल ने 7 मुख्यमंत्रियों से संपर्क साधा है. इनमें बिहार, केरल, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के मुख्यमंत्री का नाम शामिल हैं.

इधर, कोलकाता में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने यूपी की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. अब तक सपा यूपी की 2 सीटें अमेठी और रायबरेली पर उम्मीदवार नहीं उतारती थी, लेकिन पार्टी इस बार यहां से भी लड़ने की तैयारी कर रही है. 

रायबरेली और अमेठी कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है. रायबरेली से सोनिया गांधी अभी सांसद हैं. सपा अगर यहां उम्मीदवार उतारती है, तो कांग्रेस के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है. हालांकि बहुत कुछ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव कौन लड़ेगा, इस पर भी निर्भर करेगा.

विपक्षी एकता की हवा कैसे निकली?
1. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव 2021 से ही विपक्षी मोर्चा बनाने की मुहिम छेड़ रखी है, लेकिन कांग्रेस ने केसीआर को झटका दे दिया. राहुल गांधी के भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कांग्रेस ने ऐलान किया कि तेलंगाना में अकेले चुनाव लड़ेंगे. यात्रा के समापन पर कांग्रेस ने टीआरएस को आमंत्रण भी नहीं भेजा.

2. बंगाल चुनाव 2021 के बाद ममता बनर्जी विपक्षी एकता बनाने की कोशिश में जुटी थी. ममता ने शरद पवार और सोनिया गांधी से मुलाकात भी की. ममता यूपीए सरकार में मंत्री भी रह चुकी थी. ऐसे में माना जा रहा था कि ममता का प्रयास सफल होगा और देश में विपक्षी दल एकजुट हो जाएंगे. हालांकि, हाल में आए सागरदिघी उपचुनाव के बाद ममता ने भी अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया है. 

3. बीजेपी से अलग होने के बाद नीतीश विपक्षी दलों को एक ट्रैक पर लाने की कोशिश में जुटे हैं. नीतीश कुमार एनसीपी, आप, टीएमसी, जेडीएस, सीपीएम समेत कई दलों से मिल चुके हैं. गठबंधन को लेकर नीतीश कुमार कांग्रेस से भी पहले करने की अपील कर चुके हैं. अब तक विपक्षी एकता को लेकर कांग्रेस ने कोई फैसला नहीं किया है.

लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल कितने मजबूत?

1. ग्रामीण और अर्द्ध शहरी एरिया की सीटों पर दबदबा- देश में ग्रामीण इलाकों में लोकसभा की कुल 353 सीटें हैं. 2019 में बीजेपी को ग्रामीण एरिया की 207 सीटों पर जीत मिली थी. 2014 में यह आंकड़ा 190 और 2009 में 77 था. 

ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस पिछले 2 चुनावों में कमजोर पड़ी है. 2009 में ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस को 353 में से 123 सीटों पर जीत मिली थी. 2014 में 28 और 2019 में यह आंकड़ा 26 के आसपास था.

बीजेपी के मजबूती के बावजूद ग्रामीण इलाकों में क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा कायम है. 2019 में 353 में से 120 सीटों पर क्षेत्रीय पार्टियों ने जीत दर्ज की थी. यह आंकड़ा 2014 में 135 और 2009 में 153 था. 

अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में भी क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व है. अर्द्ध शहरी इलाकों में लोकसभा की 107 सीटें हैं. 2019 में बीजेपी को इन इलाकों में 58 और क्षेत्रीय पार्टियों को 39 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस सिर्फ 10 सीटों पर सिमट कर रह गई थी.

2. 12 राज्यों की 200 सीटों पर बीजेपी से सीधा मुकाबला- लोकसभा चुनाव के दौरान 12 राज्यों की करीब 200 सीटों पर क्षेत्रीय दलों का बीजेपी से सीधा मुकाबला होता है. इनमें तमिलनाडु की 30, महाराष्ट्र की 35, केरल की 10, तेलंगाना की 10, ओडिशा की 21, बिहार की 35, झारखंड की 10 और पश्चिम बंगाल की 40 सीटें भी शामिल है.

2014 और 2019 का चुनाव छोड़ दे तो पिछले 7 सरकारों को बनाने और गिराने में क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका काफी ज्यादा रही है. देश में वीपी सिंह, एचडी देवगौड़ा, आईके गुजराल और चंद्रशेखर राष्ट्रीय पार्टी के सपोर्ट से देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं.

तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र और ओडिशा जैसे राज्यों में कांग्रेस के मुकाबले क्षेत्रीय पार्टियां ज्यादा प्रभावी हैं. यहां कांग्रेस काफी पीछे है.

विपक्षी एकता में कांग्रेस ही रोड़ा, क्यों?
लोकसभा और राज्यसभा में बीजेपी के बाद कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है. ऊपरी सदन में कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का भी दर्जा मिला है. 2004 और 2009 में यूपीए बनाने में कांग्रेस ने ही बड़ी भूमिका निभाई थी. दोनों बार बीजेपी गठबंधन को हराकर यूपीए की सरकार बनी थी. 

ऐसे में इस बार भी यही उम्मीद की जा रही थी, लेकिन कांग्रेस अब तक विफल रही है. आइए इन वजहों की पड़ताल करते हैं. 

1. जीत का ओवर कॉन्फिडेंस- भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस ने कई दलों से गठबंधन को लेकर सीधे तौर पर बात करना बंद कर दिया. इनमें टीआरएस और जेडीएस का नाम प्रमुख है. कांग्रेस को कर्नाटक और तेलंगाना में खुद की बदौलत जीत का कॉन्फिडेंस है.

राहुल के भारत जोड़ो यात्रा खत्म होने से कांग्रेस ने 2024 के लिए उन्हें चेहरा घोषित कर दिया था. इतना ही नहीं, पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने एक जनसभा में कहा था कि 100 मोदी और 100 शाह भी आ जाएं तो बीजेपी की सरकार 2024 में नहीं बन पाएगी.

इसी ओवर कॉन्फिडेंस की वजह से कांग्रेस इस बार विपक्षी एकता को बनाने के लिए कोई पहल नहीं कर रही है. 

2. विपक्षी नेताओं पर राहुल की टिप्पणी- भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने सपा पर निशाना साधते हुए कहा था कि उनकी विचारधारा राष्ट्रीय स्तर की नहीं है. राहुल ने कहा था कि यूपी में भले सपा मजबूत है, लेकिन उनकी विचारधारा केरल और कर्नाटक में नहीं चल पाएगी.

इतना ही नहीं, मेघालय की एक रैली में राहुल गांधी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को बीजेपी की बी टीम बता दिया. सपा और टीएमसी राहुल के बयान से बिदक गई. टीएमसी ने संसद में कांग्रेस से दूरी बना ली तो अखिलेश ने सीधे तौर पर कह दिया कि कांग्रेस से गठबंधन नहीं होगा.

हालांकि, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने ममता के अलग होने के सवाल पर कहा है कि दीदी जांच एजेंसी ईडी से डर गई है. यही वजह है कि बीजेपी के बदले कांग्रेस पर निशाना साध रही है.

अखिलेश यादव और ममता बनर्जी के गठबंधन से अलग होने के बाद विपक्षी एकता की बात अब सिर्फ कागज पर रह गई है. जमीन पर शायद ही इसका ज्यादा असर देखने को मिले.

3. ज्यादा सीटों पर लड़ने की दबी इच्छा- पश्चिम बंगाल, यूपी, बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस के पास न तो सक्रिय संगठन है और ना ही सीटों के लिए जिताऊ उम्मीदवार. इसके बावजूद इन राज्यों में कांग्रेस की मांग ज्यादा सीटों पर लड़ने की रही है.

बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव समेत विपक्ष के कई नेता बड़े राज्यों में ड्राइविंग सीट क्षेत्रीय पार्टियों को देने की मांग कांग्रेस से कर चुके हैं, लेकिन कांग्रेस हाईकमान इन मसलों को अब तक अनसुना ही करता आया है. 

यूपी के पूर्व सीएम अखिलेश यादव भी कह चुके हैं कि कांग्रेस का जनाधार कम लेकिन डिमांड ज्यादा है, इसलिए कांग्रेस के साथ गठबंधन का काम मुश्किल भरा है.

कांग्रेस की कोशिश पूरे देश में 350 सीटों पर लड़ने की है. पार्टी इसी रणनीति पर आगे भी बढ़ रही है. यही वजह है कि कई दल विपक्षी एकता से एक-एक कर बाहर जा रहे हैं.

विपक्षी एकता में टूट से रायबरेली का भी गणित गड़बड़ाया?
हिंदी पट्टी में कांग्रेस के पास 3 सीटें ऐसी है, जहां पार्टी लगातार चुनाव जीत रही है. 1. यूपी का रायबरेली 2. एमपी का छिंदवाड़ा और 3. बिहार का किशनगंज. छिंदवाड़ा और किशनगंज का अपना राजनीतिक समीकरण है. 

रायबरेली सीट पर कांग्रेस नेता सोनिया गांधी जीतती रही हैं, लेकिन पिछले चुनाव में उनका जीत का मार्जिन कम हो गया था. 2019 में सोनिया गांधी को 1 लाख 67 हजार वोटों के अंतर से जीत मिली थी. 2004, 2006, 2009 और 2014 में 2 लाख से अधिक वोटों के अंतर से ही जीतती रही है.

2022 के विधानसभा चुनाव में रायबरेली के 5 में से 4 सीटों पर सपा ने जीत दर्ज कर ली, जबकि एक सीट बीजेपी के खाते में गई. जातिगत समीकरण की बात करे तो रायबरेली में 10 फीसदी ब्राह्मण, 9 फीसदी ठाकुर, 7 फीसदी यादव और 14 फीसदी मुस्लिम वोटर्स है. इसके अलावा 34 फीसदी दलित यहां जीत और हार तय करने में भूमिका निभाते हैं. 

सपा ने सोनिया गांधी के खिलाफ 2004 में उम्मीदवार को उतारा था. उस वक्त सपा के उम्मीदवार को 1 लाख 28 हजार से ज्यादा वोट मिले थे. अगर सपा इस बार भी उम्मीदवार उतारती है, तो यहां कांग्रेस को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.

2019 में सपा और बसपा से समर्थन मिलने के बावजूद कांग्रेस अमेठी सीट नहीं बचा पाई थी. अमेठी में कांग्रेस नेता राहुल गांधी को करारी हार का सामना करना पड़ा था. 

सपा ने इस बार यहां भी उम्मीदवार देने का संकेत दिया है. 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा और बीजेपी के बीच अमेठी में कड़ा मुकाबला देखने को मिला था. 

सपा गौरीगंज और अमेठी सीट पर जीत दर्ज की थी, जबकि बीजेपी को तिलोई और जगदीशपुर में सफलता मिली. बीजेपी ने तिलोई के विधायक मयंकेश्वर शरण सिंह को योगी सरकार में मंत्री भी बनाया है.

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