History of Third Battle of Panipat: इतिहास के पन्नों में कई अध्याय दर्ज हैं. ये पन्ने कई दुर्दांत शासकों द्वारा खून से रंगे गए हैं. कई योद्धाओं के शौर्य की गाथा भी इन पन्नों में दर्ज है. ऐसा ही एक ऐतिहासिक पन्ना है पानीपत की तीसरी लड़ाई का पन्ना. अब आशुतोष गोवारिकर के निर्देशन में इस ऐतिहासिक युद्ध पर फिल्म बनी है. इस फिल्म का नाम 'पानीपत' है. फिल्म का ट्रेलर रिलीज हो गया है. इस फिल्म में जहां अर्जुन कपूर एक ओर मराठों की आन-बान-शान 'सदाशिव राव भाऊ' की भूमिका में हैं तो वहीं मशहूर अभिनेता संजय दत्त इस फिल्म में अहमद शाह अब्दाली का किरदार निभा रहे हैं. यह फिल्म 6 दिसंबर को सिनेमाघरों में आएगी, लेकिन उससे पहले आपके मन में सवाल उठ रहे होंगे कि आखिर यह 'पानीपत की तीसरी लड़ाई' की कहानी क्या है, जिसपर यह फिल्म आधारित है. आज हम आपको इस ऐतिहासिक युद्ध की घटना के बारे में बताने जा रहे हैं.



इससे पहले कि हम 'पानीपत की तीसरी लड़ाई' के बारे में जानें कि यह जान लेते हैं कि इस लड़ाई के दो मुख्य किरदार अहमद शाह अब्दाली और 'सदाशिव राव भाऊ' कौन थे ?


कौन था अहमद शाह अब्दाली


अहमद शाह अब्दाली इतिहास के पन्नों में दर्ज वह नाम है जिसे बेहद क्रूर माना जाता है. वह अफगान की अब्दाली जनजाति से था. अफगानिस्तान में नादिर शाह की मौत के बाद 1748 में उसे बादशाह चुना गया. इसके बाद उसने अफगान के अलावा हिन्दुस्तान पर भी कब्जा करना चाहा. 1748 से 1767 के मध्य 8 बार उसने भारत पर आक्रमण किया था.


कौन थे 'सदाशिव राव भाऊ'


सदाशिव राव भाऊ पेशवा बालाजी बाजीराव (1) के भाई के बेटे थे. वह मराठा साम्राज्य के एक वीर योद्धा थे. उनकी कुशलता के कारण ही पेशवा ने समस्त शासन भार उनको दे रखा था. उनके पास इब्राहीम ख़ां गार्दी नामक मुसलमान सेनानायक के अधीन विशाल तोपख़ाना था. इसी की मदद से सदाशिव राव भाऊ ने हैदराबाद के निज़ाम सलावतजंग को उदगिरि के युद्ध में हराकर बड़ी सफलता प्राप्त की थी. इसके बाद सदाशिव राव भाऊ की प्रतिष्ठा काफी बढ़ गई थी.



क्यों हुआ पानीपत का युद्ध ?


पानीपत का तीसरा युद्ध 14 जनवरी, 1761 ई. में लड़ा गया. यह युद्ध अफगान के बादशाह अहमद शाह अब्दाली और मराठाओं के बीच लड़ा गया था. इस लड़ाई में मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ अफ़ग़ान सेनापति अब्दाली से लड़ाई के दांव-पेचों में मात खा गए थे.


पानीपत की लड़ाई होने के दो मुख्य कारण थे. पहला यह कि अफगान का शासक बनने के बाद से ही अहमद शाह की नज़र हिन्दुस्तान और दिल्ली सल्तनत पर थी. वह कई बार आक्रमण भी कर चुका था. दूसरा कारण मराठाओं का बढ़ता वर्चस्व था. इस समय तक मुगल काफी कमजोर हो गए थे और दिल्ली तक सीमित हो गए थे. मराठा साम्राज्य 'हिन्दू पदशाही' की भावना से ओत-प्रोत होकर दिल्ली पर राज करना चाहता था.


दरअसल, औरंगजेब की मृत्यु के बाद सीना ताने खड़ा मुगल साम्राज्य अपने घुटनों पर आ गया था. जहां एक तरफ मुगलों का पतन हो रहा था तो वहीं दूसरी तरफ मराठा परचम बुलंद हो रहा था. पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में मराठा लगातार उत्तर भारत में फैल रहे थे. 1758 में पेशवा बाजीराव के पुत्र बालाजी बाजीराव ने पंजाब जीत लिया. पंजाब जीतने के बाद उनका सामना सीधे तौर पर अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली से था. मराठा पंजाब के बाद लाहौर पर भी कब्जा कर लिया. 1758 में मराठाओं ने लाहौर पर कब्ज़ा कर लिया और वहां से तैमुर शाह दुर्रानी को खदेड़ दिया. तैमुर शाह दुर्रानी अहमद शाह अब्दाली का बेटा था. अब मराठा साम्राज्य की हदें उत्तर में सिंधु और हिमालय तक और दक्षिण में प्रायद्वीप के निकट तक बढ़ गयी थीं. अहमद शाह अब्दाली को मराठाओं द्वारा अपने बेटे तैमूर शाह दुर्रानी के साथ किया गया व्यवहार नगवार गुजरा और उसने उन्हें हराने की ठान ली.


अब्दाली ने पश्तून या बलोच जनजातियों के लोगों की एक सेना तैयार की थी. वह दिल्ली पर जीत हासिल करने और मराठों को हराने के लिए अपनी सेना के साथ निकला. पंजाब की कई छोटी-छोटी टुकड़ियों को हराया. इसके बाद अहमद शाह ने पूरे पंजाब, कश्मीर और मुल्तान पर कब्ज़ा ज़माया. फिर दिल्ली की राजनीति में अपनी दिलचस्पी दिखाई. वह 14 जनवरी 1761 को पानीपत पहुंचा. पानीपत तक पहुंचने में अब्दाली की काफी मदद मुगलों ने भी की थी. दरसअल, इस वक्त तक मुगल दो भागों में बंट गए थे. कुछ मराठाओं के साथ थे तो वहीं कुछ विरोध में थे. जो विरोध में थे उनको बाहरी शासकों से मदद की उम्मीद थी, इसलिए उन्होंने अब्दाली का साथ दिया. इसके अलावा मराठाओं ने इस युद्ध के पूर्व में राजपूत, जाट और सिक्खों को हर प्रकार से लूटा था. इसीलिए इन लोगों ने भी मराठाओं का साथ नहीं दिया.



14 जनवरी 1761 में हुआ सबसे भयावह युद्ध


अहमद शाह अब्दाली के खिलाफ मराठों ने भी लड़ने का फैसला कर लिया और जंग का ऐलान किया. इस वक्त मराठों के सामने दो चुनौतियां थी. पहली अब्दाली से युद्ध जीतना और दूसरी बंगाल में ब्रिटिश ताकतों को रोकना.  भाऊ सदाशिव राव के नेतृत्व में सेना पुणे से दिल्ली आई. उनके सैन्यबल 50000 थी. आगे के सफ़र में जैसे-जैसे मराठों को अपने सहायकों की मदद मिली, वैसे-वैसे उनकी संख्या बढ़ती गयी. महेंदले, शमशेरबहुर, विंचुरकर, पवार बड़ौदा के गायकवाड़ और मानकेश्वर जैसी अनुभवी सेनाओं ने मराठों की ताक़त को दोगूनी कर दिया.


दोनों ही गुटों को कई बाहरी लोगों का समर्थन मिला और फिर मकर संक्रांति के दिन पानीपत के मैदान में मृत्यु का तांडव हुआ. दोनों सेनाए इस दिन आमने-सामने थी. शाम होते-होते युद्ध की स्थिति साफ थी. अब्दाली की सेना जीत रही थी. दोनों पक्षों से कई सैनिक काल के ग्रास में समा गए थे. कई मराठा शासक भी मारे गए थे. मराठाओं की सेना जरूर कम थी लेकिन उन्होंने शौर्य का परिचय दिया और अब्दाली की सेना से डटकर लड़े, लेकिन मराठों की हार हुई और फिर अब्दाली ने कई लोगों को क्रूर तरीके से मरवा दिया.


पानीपत के इस युद्ध ने यह निर्णय नहीं दिया, कि भारत पर कौन राज्य करेगा, अपितु यह तय कर दिया, कि भारत पर कौन शासन नहीं करेगा. मराठों की पराजय के बाद ब्रिटिश सत्ता के उदय का रास्ता क़रीब-क़रीब साफ़ हो गया. अप्रत्यक्ष रूप से सिक्खों को भी मराठों की पराजय से फ़ायदा हुआ. इस युद्ध ने मुग़ल सम्राट को लगभग निर्जीव सा कर दिया, जैसा कि बाद के कुछ वर्ष सिद्ध करते हैं. पानीपत के युद्ध के सदमें को न सह पाने के कारण बालाजी बाजीराव की कुछ दिन बाद मृत्यु हो गई.