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परमवीर: करगिल जंग में पाकिस्तान को धूल चटाने वाले वो 5 जवान, जिन्हें कभी नहीं भूल पाएगा हिन्दुस्तान

करगिल युद्ध की एक बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ी थी. लेकिन जिस वीरता का भीरतीय जवानों ने रणभूमि में परिचय दिया उसके आगे पाकिस्तानी फौज दुम दुबाकर भागते दिखे.

करगिल में लड़ी लगी पाकिस्तानी घुसपैठिए के खिलाफ लड़ाई में भारत की जीत के 22 साल हो गए हैं. करगिल की ये लड़ाई 2 महीने तक लड़ी गई थी और भारतीय सेना ने इस लड़ाई को ऑपरेशन विजय का नाम दिया था. 26 जुलाई को करगिल में भारत को जीत मिली थी. इसलिए हर साल इस ‘विजय दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है. हालांकि, इस युद्ध की एक बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ी थी. लेकिन जिस वीरता का भीरतीय जवानों ने रणभूमि में परिचय दिया उसके आगे पाकिस्तानी फौज दुम दुबाकर भागते दिखे. आइये आज जानते हैं उन पांच भारतीय जवानों के बारे में, जिनकी करगिल लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका रही.

1-राजेश अधिकारी:

14 मई 1999 को मेजर राजेश अधिकारी तीन 10 सदस्यीय टीमों का केन्द्रीय नेतृत्व कर रहे थे, जो 16 हजार फीट की ऊंचाई पर तोलोलिंग में बने बंकर को कब्जा करने की कोशिश कर रहे थे. इस दौरान दुश्मनों की तरफ से उन पर मशीनगनों ने सीधा हमला किया गया और मेजर अधिकारी ने तुरंत अपनी रॉकट लांचर टुकड़ी को दुश्मनों को उलझाए रखने का निर्देश दिया और दुश्मन के दो जवानों को मार गिराया.

मेजर राजेश अधिकारी ने इसके बाद बेहद धैर्य से काम लेते हुए मीडियम मशीनगन टुकड़ी को एक चट्टान के पीछे मार्चा लेने और दुश्मनों को उलझाए रखने का निर्देश दिया. इसके साथ ही, वह इंच दर इंच बढ़ते रहे.

इस दौरान दुश्मनों की भीषण गोलीबारी में वह गंभीर रूप से घायल हो गए. इसके बावजूद वह अपने जवानों को निर्देश देते रहे और मोर्चे से हटने से मना कर दिया. राजेश अधिकारी ने दुश्मन के दूसरे बंकर पर हमला कर वहां पर काबिज सैनिकों को ढेर कर दिया. मेजर अधिकारी ने तोलोलिंग ऑपरेशन में दो बंकरों पर कब्जा किया था, जो बाद में प्वाइंट जीतने में बेहद मददगार रहा. लेकिन दुश्मनों की गोलियों से बुरी तरह घायल मेजर अधिकारी ने 15 मई को दम तोड़ दिया. करगिल युद्ध में शहीद होने वाले वह दूसरे आर्मी ऑफिसर थे.

 

2-18 ग्रेनेडियर्स के बलवान सिंह:

दुर्गम स्थानों पर पाकिस्तानी सैनिकों और घुसपैठियों से कब्जा छुड़ाने में भारतीय सैनिकों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. लेकिन, भारतीय जवानों की वीरता के आगे पाकिस्तान ने घुटने टेक दिए और जान बचाते हुए भाग गए. इन्हीं वीर भारतीयों योद्धाओं से एक हैं- 18 ग्रेनेडियर्स के लेफ्टिनेंट बलवान सिंह.

करगिल की निर्णायक लड़ाई में लेफ्टिनेंट बलवान सिंह जो अब कर्नल हो चुके हैं, वे टाइगर हिल के 'टाइगर' थे. बलवान सिंह को टाइगर हिल पर दोबारा अपना नियंत्रण करने की जिम्मेदारी दी गई थी. 25 साल की उम्र में बलवान सिंह ने पहाड़ी की चोटी तक पहुंचने के लिए 12 घंटे की यात्रा पर दुर्गम रास्तों के जरिए यात्रा की और घातक पलटून सैनिकों का नेतृत्व किया. 36 घंटे चले इस आपरेशन के लिए 18 ग्रेनेडियर के जवानों ने अपने खाना खाने के सामानों को कम करके उसकी जगह भी उनमें असलहा और बारूद ही भर लिया था.

हमले ने दुश्मनों को आश्चर्यचकित कर दिया क्योंकि भारत से इस तरह के कठिन रास्ते पर चलने की उम्मीद उसने नहीं की थी. 17 हजार फीट ऊंची टाइगर हिल पर कब्जा करने के लिए 18 ग्रेनेडियर ने 36 घंट तक ऑपरेशन चलाया था और करीब 44 जवानों ने अपने प्राणों की आहूति दी थी. इतने करीबी मुकाबले में लेफ्टिनेंट बलवान सिंह ने गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद चार दुश्मन के जवानों को मार गिराया. इसके बाद बाकी पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय जवानों के इस गुस्सों का मुकाबला करने की बजाय वहां से भागना ही बेहतर समझा. बलवान सिंह ने टाइगर हिल पर भारत का तिरंगा लहराया और बाद में उन्हें उनकी इस अदम्य साहस और बहादुरी के लिए महावीर चक्र से नवाजा गया. टाइगर हिल के लिए रवाना होने से पहले, लेफ्टिनेंट सिंह ने अपने सैनिकों के साथ एक प्रतिज्ञा ली: "टाइगर हिल पे तिरंगा फहराके आयेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए."

मीडिया से बात करते हुए बलवान सिंह ने उस दिन को याद किया और कहा कि 3 जुलाई की रात थी और दुश्मन की गोलियां ऊपर से चल रही थी. काफी बर्फ भी पड़ रही थी. उन्होंने कहा कि इस दौरान छह भारतीय जवान शहीद हुए. योगेन्द्र यादव गंभीर रूप से घायल हुए. बलवान सिंह ने कहा कि मुझे भी गोली लगी, लेकिन हमने हार नहीं मानी और पाकिस्तानी फौज को टाइगर हिल से भगाया और वहां पर झंडा फहराया.

 

3- कैप्टन विक्रम बत्रा:

करगिल की लड़ाई में कैप्टन विक्रम बत्रा ने वीरता की ऐसी मिसाल पेश की, जिसका लोहा पाकिस्तान ने भी माना और उन्हें ‘शेरशाह’ के नाम से नवाजा था. हिमाचलप्रदेश के छोटे से कस्बे पालमपुर के 13 जम्मू एंड कश्मीर रायफल के कैप्टन विक्रम बत्रा ने एक सॉफ्ट ड्रिंक विज्ञापन ‘ये दिल मांगे मोर’ विज्ञापन की टैगलाइन को बदलकर खुद को अमर कर लिया. राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल पर दिखाया गया कि किस तरह करगिल युद्ध में अपने पहले ही वीरतापूर्ण कारनामों में उन्होंने दुश्मन की मशीनगन को छीनकर जंग के मैदान में वीरता का परिचय दिया था.

वह 1999 की करगिल लड़ाई में 24 साल की उम्रम में पाकिस्तान फौज से लड़ते हुए शहरीद हो गए. उन्हें उनके अदम्य साहस और बलिदान के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. इनके इस शौर्य की वजह से कैप्टन विक्रम को कई नाम दिए गए. उन्हें ‘टाइगर ऑफ द्रास;, ‘लायन ऑफ करगिल’ कहा गया. जबकि पाकिस्तान ने कैप्टन बत्रा को शेरशाह कहा.

मोर्चे पर डटे इस वीर जवान ने अकेले ही कई दुश्मनों को ढेर कर दिया था. सामने से होती भीषण गोलीबारी में घायल होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपनी डेल्टा टुकड़ी के साथ चोटी नंबर 4875 पर हमला किया, लेकिन अपने एक घायल साथी अधिकारी को जंग के मैदान से निकालने के प्रयास में माँ भारती का यह सपूत विक्रम बत्रा 7 जुलाई की सुबह शहीद हो गया.

4-कैप्टन सौरभ कालिया:

ये वाकया उस वक्त शुरू होता है जब ताशी नामग्याल नाम के एक चरवाहा ने करगिल को चोटियों पर कुछ पाकिस्तानी घुसपैठिए को देखा और 3 मई 1999 को इस बात की खबर भारतीय सेना को दी. इसके बाद 14 मई को कैप्टन सौरभ कालिया 5 जवानों को अपने साथ लेकर पेट्रोलिंग पर निकले. कालिया अपने साथियों के साथ जब बजरंग की चोटी पर पहुंचे तो वहां पर देखा कि भारी संख्या में हथियारों के साथ पाकिस्तान की फौज खड़ी थी.

उस समय कैप्टन सौरभ कालिया के पास न ज्यादा गोला बारूद था और ना ही हथियार. पाकिस्तानी सैनिकों की काफी संख्या होने की वजह से दुश्मनों ने कैप्टन सौरभ कालिया और उनके बाकी साथियों को घेर लिया. हालांकि, इस दौरान कैप्टन सौरभ कालिया और उनके साथियों ने जंग के मैदान में दुश्मनों से मुकाबला लेने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. लेकिन गोला-बारूद खत्म होने के बाद पाकिस्तानी घुसपैठिए ने उन्हें और उनके पाचों साथियों को बंदी बना लिया.

दुश्मनों की तरफ से काफी कोशिशों के बावजूद वे कैप्टन कालिया से एक भी शब्द नहीं निकलवा पाए. उसके बाद बर्बरता के साथ सलूक करने के 22 दिन बाद कैप्टन सौरभ कालिया के शव को सौंप दिया था. सौरभ कालिया के साथ दुश्मनों ने जो बर्ताव किया था उसकी वजह से उनके शव को उनके परिवारवाले तक नहीं पहचान पाए थे. हालांकि, पाकिस्तान हमेशा इससे इनकार करता रहा है.

5-नायक दिगेन्द्र कुमार:

दो महीने तक लड़ी गई करगिल की लड़ाई के दौरान पहली जीत नाइक दिगेन्द्र कुमार ने दिलवाई थी. करगिल की लड़ाई के दौरान अपनी जमीन वापस पाने के लिए भारतीय सेना ने जो ऑपरेशन शुरू किया उसका नाम दिया गया था 'ऑपरेशन विजय'. 2 राजपूताना रायफल्स को करगिल जाकर पाकिस्तानी घुसपैठिए से तोलोलिंग की पहाड़ी पर अपना कब्जा जमाने का आदेश दिया गया. उस वक्त तत्कालीन आर्मी चीफ जनरल वीपी मलिक ने यह जिम्मेदारी 2 राजपूताना रायफल्स को सौंपी.

2 राजपूताना रायफल्स का एक दल तोलोलिंग की तरफ से बढ़ रहा था और उसकी अगुवाई कर रहे थे मेजर विवेक गुप्ता. इस दल का थे नायर दिगेन्द्र कुमार. करीब 14 घंटे तक चट्टानों पर खड़ी चढ़ाई के बाद यह दल तोलोलिंग के पास पहुंचा. लेकिन वहां पर पाकिस्तानी घुसपैठिए ने पहले से 11 बंकर बना रखे थे.

जैसे ही दल आगे बढ़ा तो पाकिस्तानी सैनिकों की तरफ से भीषण गोलीबारी शुरू हो गई. खराब मौसम की वजह से आगे कुछ भी देखने में काफी मुश्किलें आ रही थी. नायक दिगेन्द्र आगे बढ़ने के लिए अपना हाथ पत्थर के बीच डाला और दुश्मन की फायर करती मशीन गन की बैरल उनके हाथ आई. इसके बाद उन्होनें एक ग्रेनेड निकालकर बंकर के अंदर फेंका, जिससे पहला बंकर पूरी तरह बर्बाद हो गया.

इसके बाद सामने घात लगाए बैठा दुश्मन सतर्क हो गया और नायक दिगेन्द्र और उनके दल पर जोरदार फायरिंग शुरू कर दी. इस दौरान मेजर विवेक गुप्ता समेत जवान शहीद हो गए. नायक दिगेन्द्र को भी पांच गोलियां लगी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और हिम्मत जुटाकर फिर अगे बढ़ते हुए ग्रेनेड बंकरों पर फेंके.

उसी वक्त नाइक दिगेन्द्र के सामने अचानक पाकिस्तानी सेना के मेजर अनवर खान आए गए. ऐसे ही मेजर खान से आमना-सामना हुआ नायक दिगेन्द्र कुमार ने फौरन छलांग लगाकर उसे पकड़ लिया और अपने डीगल से अनवर खान की गर्दन काट दी. 13 जून 1999 को नायक दिगेन्द्र ने तोलोलिंग की पहाड़ी पर सुबह 4 बजे भारतीय झंडा लहरया, जो ऑपरेशन विजय की भारत के लिए यह पहली जीत थी. उनके इस असीम साहस और वीरता के लिए महावीर चक्र से नवाजा गया था.

ये भी पढ़ें: परमवीर: ना देश भूला ना हम भूलने देंगे, चाहे बीत जायें जितने बरस, करगिल जंग के वीर सपूतों की हम याद दिलाते रहेंगे

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