Parsi Funeral: गिद्धों की संख्या घटने से पारसी समुदाय परेशान, अंतिम संस्कार का तरीका बदलने को हो रहे मजबूर
Parsi Community Funeral Method: देश में गिद्धों की आबादी 1980 के दशक में 4 करोड़ थी, जो 2017 तक घटकर मात्र 19,000 रह गई. इसके चलते पारसी समुदाय के बीच अंतिम संस्कार का तरीका बदला है.

Cyrus Mistry Funeral: गिद्धों की घटती आबादी के चलते पारसी समुदाय को शवों के अंतिम संस्कार के तरीकों में भी बदलाव करना पड़ा है. दरअसल, टाटा संस के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री (Cyrus Mistry) की सड़क दुर्घटना में मौत के बाद उनके अंतिम संस्कार के साथ ही यह मुद्दा फिर से चर्चा में आ गया. पारसी समुदाय के लोगों के शवों को ‘टावर ऑफ साइलेंस’ पर छोड़ने की परंपरा रही है, जहां गिद्ध इन शवों को खा जाते हैं, लेकिन अब गिद्धों की संख्या घटने से इसमें अंतिम संस्कार के तरीकों में बदलाव हो रहे हैं.
दरअसल, साल 2015 से पारसी समुदाय के बीच अंतिम संस्कार के तरीके में बदलाव आया है और मुंबई में इलेक्ट्रिक शवदाह गृह के जरिए अंतिम संस्कार के कई मामले सामने आए हैं. पारसी धर्म की तय रस्मों को पूरा करने के बाद पार्थिव शरीर को इलेक्ट्रिक मशीन के हवाले कर दिया जाता है. साइरस मिस्त्री के अंतिम संस्कार के दौरान भी यही देखा गया.
इलेक्ट्रिक मशीन के हवाले किए जा रहे शव
बता दें कि, मिस्त्री के पार्थिव शरीर को एक दशक पहले पारसी समुदाय द्वारा बनाए गए होटल के सामने स्थित शवदाह गृह ले जाया गया. यहां परिवार के एक पुजारी ने सभी रस्मों के बाद शव को इलेक्ट्रिक मशीन के हवाले कर दिया. इस समुदाय के कुछ लोगों ने शवों को खाने वाले गिद्धों की आबादी में गिरावट के कारण बीते एक दशक में शवदाह गृह बनाने का फैसला किया. अब तक मिस्त्री जैसे कई परिवारों ने अपने सदस्यों के अंतिम संस्कार के लिए नए तरीके को अपनाया है.
राष्ट्रीय गिद्ध संरक्षण कार्य योजना
रिपोर्ट के अनुसार, देश में गिद्धों की आबादी 1980 के दशक में 4 करोड़ थी, जो 2017 तक घटकर मात्र 19,000 रह गई. इसके चलते पारसी समुदाय के बीच अंतिम संस्कार का तरीका बदला है. सरकार ने गिद्धों की आबादी में गिरावट को रोकने के लिए राष्ट्रीय गिद्ध संरक्षण कार्य योजना 2020-25 के माध्यम से एक पहल शुरू की है, जिसमें कुछ सफलताएं मिली हैं.
कैसे प्रभावित हुई गिद्धों की आबादी
गिद्धों की आबादी में गिरावट के लिए मवेशियों के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली सूजन-रोधी दवा ‘डाइक्लोफेनाक’ के इस्तेमाल को जिम्मेदार ठहराया गया है. दरअसल जिन मवेशियों को यह दवा दी गई, उन मवेशियों को मरने के बाद गिद्धों ने खा लिया, जिससे गिद्धों की आबादी प्रभावित हुई.
साल 2006 में इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन तब तक यह गिद्धों की आबादी में गिरावट का कारण बन चुका था. गिद्धों की घटती आबादी के कारण पारसियों के सामने अंतिम संस्कार को लेकर एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई थी. दरअसल, गिद्ध कुछ ही घंटों में शरीर पर से मांस को साफ कर देते हैं, वहीं कौवे और चील बहुत कम मांस खा पाते हैं. ऐसे में कई शवों को खत्म होने में महीनों लग जाते हैं और उनसे बदबू फैलती हैं.
क्या है 'जियो पारसी' पहल ?
इतना ही नहीं, पारसी (Parsi) समुदाय के लोगों की संख्या में भी तेजी से गिरावट आ रही है. साल 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में केवल 57,264 पारसी थे. सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने समुदाय की आबादी में गिरावट को रोकने के लिए कई उपाय किए हैं, जिसमें “जियो पारसी” पहल शुरू करना शामिल है.
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