पटना हाईकोर्ट का फैसला भले जातिगत सर्वे पर आया हो, लेकिन राजनीतिक पार्टियां इससे सियासी समीकरणों का गुणा-गणित तैयार कर रही है. जाति आधारित जनगणना पर से रोक हटने के तुरंत बाद विपक्षी महागठबंधन एक्शन में आ गई. नीतीश सरकार ने सर्वे काम पूरा करने का आदेश दे दिया.


वहीं सहयोगी आरजेडी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इसे गरीबों की जीत बताई है. आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव ने कहा कि देश में जातीय जनगणना का रास्ता बिहार ने दिखाया है. हाईकोर्ट ने भी इस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है. अब जल्द ही पूरे देश में जातीय जनगणना की मुहिम शुरू की जाएगी. 


जाति आधारित जनगणना का मुद्दा पिछले एक पखवाड़े से विपक्षी पार्टियां उठा रही है. विपक्षी पार्टियों का कहना है कि केंद्र जनगणना के साथ जाति जनगणना भी कराए. हालांकि, केंद्र सरकार लगातार इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिशों में जुटी है. 


पटना हाईकोर्ट के फैसले के बाद इसे मुद्दे को फिर से सुलगने की बात कही जा रही है. अगर, ऐसा होता है तो करीब 10 राज्यों का सियासी गणित पूरी तरह बदल जाएगा. जानकारों का कहना है कि जाति जनगणना का मुद्दा अगर हावी हुआ, तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़ सकती है. 




(Source- Live Law)


इस स्टोरी में जाति जनगणना और उसके असर के बारे में विस्तार से जानते हैं...


जातिगत सर्वे पर पटना हाईकोर्ट का फैसला क्या है?
3 जुलाई से लगातार 5 दिन तक सुनवाई करने के बाद पटना हाईकोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. 1 अगस्त को फैसला सुनाते हुए हाईकोर्ट ने सभी रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया. हाईकोर्ट में 5 जनहित याचिकाएं दाखिल की गई थी. 


याचिकाकर्ताओं का दलील था कि सर्वे से निजता का उल्लंघन, डेटा लीक जैसी घटनाएं हो सकती है. याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि बिहार सरकार को सर्वे करने का अधिकार ही नहीं है. बिहार सरकार ने इसका कड़ा विरोध किया. 


हाईकोर्ट ने 101 पन्नों के आदेश में एक लाइन का जजमेंट लिखते हुए याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद सर्वे का रास्ता खुल गया. इससे पहले 4 मई को हाईकोर्ट ने एक अंतरिम आदेश में सर्वे पर रोक लगाने का फैसला सुनाया था. 


जातीय जनगणना का मुद्दा कैसे हो रहा हावी?


1. कोरोना वायरस की वजह से जनगणना का काम रुक गया, जिसके बाद 2021 में कुछ दलों ने जातीय जनगणना भी साथ कराने की बात कही. सरकार ने संसद में बयान देते हुए कहा कि जातीय जनगणना कराने पर हम विचार नहीं कर रहे हैं. जातीय जनगणना नहीं कराया जा सकता है.


2. नीतीश कुमार के नेतृत्व में 23 अगस्त 2021 को बिहार के एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की. इस प्रतिनिधिमंडल में सभी दलों के नेता शामिल थे, जिसमें केंद्र से जातीय जनगणना कराने की मांग रखी गई. प्रधानमंत्री ने विचार करने का भरोसा दिया. 


3. केंद्र ने जनगणना करने की तारीख ही बढ़ा दी. 31 दिसंबर 2021 को कहा कि जनगणना पर आगे विचार किया जाएगा. जानकारों के मुताबिक जातीय जनगणना की मांग को देखते हुए केंद्र ने जनगणना की तारीख को आगे बढ़ाया. अब 2024 से पहले जनगणना होने की उम्मीद कम है.


4. केंद्र से पॉजिटिव फीडबैक नहीं मिलने के बाद बिहार सरकार ने जून 2022 को कैबिनेट से जातिगत सर्वे का प्रस्ताव पास करा लिया. इसके बाद नीतीश कुमार ने बीजेपी से भी नाता तोड़ लिया. नीतीश आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर बिहार में महागठबंधन में शामिल हो गए.


5. बिहार सरकार ने जनवरी 2023 में जाति आधारित सर्वे कराने का आदेश दे दिया. 2 फेज में सर्वे का काम शुरू भी हुआ. खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सर्वे की मॉनिटरिंग में जुट गए.


6. अप्रैल 2023 में राहुल गांधी ने जातीय जनगणना का समर्थन किया और जितनी आबादी, उतना हक का नारा दिया. विपक्षी मोर्चे ने जातीय जनगणना को मुख्य मुद्दा बनाने की बात कही है. 


जातीय जनगणना का असर हो सकता है?
CSDS के निदेशक संजय कुमार के मुताबिक सीधे तौर पर जातीय जनगणना का कोई फायदा नहीं होगा. आम लोगों को जनगणना से शायद ही कोई सरोकार हो. हां, अगर राजनीतिक दल जनगणना को आरक्षण से जोड़ती है, तो कुछ असर हो सकता है.


पटना हाईकोर्ट के फैसले से केंद्र पर जातीय जनगणना कराने का दबाव बढ़ेगा? इस सवाल पर संजय कुमार कहते हैं- चुनावी साल में शायद ही सरकार जनगणना कराने को राजी हो. हां, सरकार को यह सफाई देनी पड़ सकती है कि उसने जातीय जनगणना क्यों नहीं कराए?


बीपीएस महिला विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति सुषमा यादव कहती हैं- विकास के लिए डेटा महत्वपूर्ण है और इसके लिए जनगणना जरूरी है. 


ओबीसी राजनीति जहां हावी, वहां लोकसभा की कितनी सीटें?
बड़ा सवाल यही है कि अगर जातीय जनगणना का मुद्दा तुल पकड़ता है, तो इसका असर किन राज्यों में सबसे अधिक होगा? इसे विस्तार से जानते हैं...


बात पहले उन राज्यों की, जहां अभी चुनाव है- लोकसभा से पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव होने हैं. इसे लोकसभा का सेमीफाइनल भी कहा जाता है. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वर्तमान में कांग्रेस की सरकार है तो मध्य प्रदेश में बीजेपी की.


रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश में 48 फीसदी, राजस्थान में 55 फीसदी और 48 फीसदी ओबीसी वोटर्स हैं. 2019 में कमलनाथ ने ओबीसी आरक्षण बढ़ाकर बड़ा दांव खेला था, लेकिन कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में ज्यादा फायदा नहीं हुआ. 


राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने ओबीसी मुख्यमंत्री बनाए हैं. पार्टी फिर से इस मुद्दे को तूल देकर ओबीसी वोट झटकने की तैयारी में है. बीजेपी की नजर भी ओबीसी वोटरों पर है.  इन तीनों राज्यों में लोकसभा की 65 सीटें हैं.


उत्तर प्रदेश और बिहार में खेल हो सकता है- थॉमसन-रॉयटर्स ने उत्तर प्रदेश में जातियों को लेकर एक सर्वे किया था. इसके मुताबिक उत्तर प्रदेश में करीब 40 प्रतिशत आबादी पिछड़े समुदायों की है. 2014 और 2019 में गैर-यादव ओबीसी का वोट बीजेपी को जमकर मिला.


गैर-यादव ओबीसी उत्तर प्रदेश में करीब 31 प्रतिशत है. सीएसडीएस-लोकनीति के एक सर्वे के मुताबिक 2019 के चुनाव अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल यादव में से 60 फीसदी से सपा-बसपा गठबंधन, 23 फीसदी ने बीजेपी गठबंधन, 5 फीसदी ने कांग्रेस और 12 फीसद यादवों ने अन्य दलों को वोट किया था. 


ओबीसी की दूसरी बड़ी जाति कोइरी-कुर्मी जाति का 80 फीसदी वोट बीजेपी, 14 फीसदी वोट सपा-बसपा, कांग्रेस को 5 और अन्य दलों को 1 फीसदी वोट मिला था. 


यादव-कोइरी-कुर्मी के अलावा ओबीसी की अन्य जातियों में से 72 फीसदी ने बीजेपी, 18 फीसदी ने सपा-बसपा, 5 फीसदी ने कांग्रेस और 5 फीसदी ने अन्य दलों को वोट किया था. 


इसी तरह बिहार में ओबीसी जातियों का वोट भी एनडीए गठबंधन को जमकर मिला था, जिसकी बदौलत बिहार की 40 में से 39 सीटें जीतने में एनडीए कामयाब रही थी. बिहार में ओबीसी समुदाय की आबादी करीब 40 प्रतिशत है.


दक्षिण भी बंद बोतल ले निकालेगा जातीय जनगणना का जिन्न- उत्तर भारत के अलावा दक्षिण के तमिलनाडु और कर्नाटक में भी ओबीसी पॉलिटिक्स हावी है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन लगातार जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं. 


2013 में तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि राज्य में 68 प्रतिशत लोग ओबीसी हैं, लेकिन उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है. कर्नाटक में भी ओबीसी का दबदबा है. यहां के मुख्यमंत्री भी जातीय जनगणना की मांग कई बार कर चुके हैं.


कर्नाटक में 28 तो तमिलनाडु में लोकसभा की 39 सीटे है. इन दोनों राज्यों की 67 सीटों में से बीजेपी के पास 25 सीटें हैं. 


महाराष्ट्र-हरियाणा में बदल सकता है समीकरण- महाराष्ट्र और हरियाणा की पॉलिटिक्स में भी ओबीसी जातियों का दबदबा है. महाराष्ट्र में करीब 38 प्रतिशत आबादी अन्य पिछड़े वर्ग की है. हरियाणा में भी ओबीसी जातियों की आबादी 44 प्रतिशत के आसपास है.


2019 में हरियाणा की सभी 10 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी. महाराष्ट्र में भी एनडीए को 48 में से 41 सीटों पर जीत दर्ज की थी. यहां अगर मामला तुल पकड़ता है, तो स्थिति बदल सकती है.


अब कहानी 2009 से 2019 तक की...


सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक 2009 में कांग्रेस को ओबीसी का 25 फीसदी वोट मिला था. उस वक्त लोकसभा चुनाव में पार्टी को 206 सीटें मिली थी. हालांकि, 2014 और 2019 में ओबीसी के वोट में काफी गिरावट देखी गई. हिंदी हार्टलैंड में तो पार्टी साफ ही हो गई.


2014 और 2019 के चुनाव में कांग्रेस को ओबीसी समुदाय का 15-15 फीसदी वोट मिला था. यानी 2009 के मुकाबले 10 फीसदी का गिरावट. वोट फीसदी गिरने की वजह से कांग्रेस को सीटों का काफी नुकसान हुआ. 2014 में कांग्रेस को 44 और 2019 में सिर्फ 52 सीटें मिली.