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फणीश्वरनाथ रेणु जयंती: देहात की आत्मा को समझना हो तो प्रेमचंद के साथ रेणु को पढ़ना भी जरूरी है

हिन्दी साहित्य में आंचलिक खुशबू सबसे ज्यादा जिन दो साहित्यकारों की लेखनी में देखने को मिलती है, वह प्रेमचंद और रेणु हैं. प्रेमचंद ने जो लिखा रेणु उसी को नए रूप में आगे ले गईं.

नई दिल्ली: आंचलिक जीवन की गंध, लय, ताल, सुर, सुंदरता और कुरूपता को प्रेमचंद के बाद किसी ने सबसे अच्छे तरीके से अपनी कहानियों और उपन्यासों में बांधने का काम किया है तो वह नाम है फणीश्वरनाथ रेणु. वही रेणु जिनकी रचना में खेत, खलिहान, चौपाल, पनघट के रास्ते, बैल, जोहड़, लकड़ी की तख्ती, पीपल का पेड़, उन पेड़ों के सूखे पत्तों की खड़खड़ाहट, खेतों में उगती भूख, उस भूख के लिए जलता हुआ चुल्हा और उस चुल्हे पर सिकती हुई रोटी सबकुछ देखने को मिलता है.

जब भी हम फणीश्वरनाथ रेणु की कोई भी रचना पढ़ते हैं तो लगता है जैसे वह खुद ग्रामीण जीवन पर कोई लोकगीत सुना रहे हों. रेणु के कहानियों के पात्रों में एक अजीब किस्म की इच्छाशक्ति देखने को मिलती है. उनके पात्र गरीबी, अभाव, भुखमरी और प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए मर तो सकते हैं, लेकिन परिस्थितियों से हार नहीं मानते.

किशोरावस्था में ही आजादी के संघर्ष से जुड़ गए

बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च, 1921 को शिलानाथ मंडल के पुत्र के रूप में जन्मे रेणु का बचपन आजादी की लड़ाई को देखते-समझते बीता. बचपन में ही परिवार में देशभक्ति देखकर वह इसकी तरफ आकर्शित हुए. रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए थे. 1930-31 में जब रेणु ‘अररिया हाईस्कूल’ के चौथे दर्जे में पढ़ते थे तभी महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई. स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे. रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका. रेणु को इसकी सज़ा मिली लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के बहादुर लड़के के रूप में प्रसिद्ध हो गए.

लेखन कार्य

फणीश्वरनाथ रेणु ने 1936 में कहानी लिखना शुरू किया. प्रारंभ में उनकी कुछ कहानियां अपरिपक्व करार दी गई, लेकिन जब 1942 के आंदोलन में वह गिरफ्तार हुए और 1944 में जेल से छुटे तो उन्होंने एक से बढ़कर एक कहानी लिखी. उनकी इन्हीं कहानियों में ‘बटबाबा’नामक कहानी थी. यह कहानी ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ के 27  अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई. ‘बटबाबा’से जो सफर शुरू हुआ वो 1972 में रेणु के अंतिम कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’पर जा कर रुका. रेणु की कई कहानी संग्रह छपी जिसमें ‘ठुमरी’, ‘अगिनखोर’, ‘आदिम रात्रि की महक’, ‘एक श्रावणी दोपहरी की धूप’, ‘अच्छे आदमी’, आदि प्रमुख है.

रेणु की कहानियों और उपन्यासों पर बनी कई फिल्में

उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’ पर ‘तीसरी क़सम’ फिल्म बनी जिसे शैलेंद्र ने बनाया था. इस फिल्म ने इस कहानी को और अधिक लोकप्रिय कर दिया. इस फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिका में अभिनय किया था.फ़िल्म हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है.

इसके अलावा 'पंचलैट' नामक फिल्म भी उनकी ही कहानी पर बनी है. इसके अलावा ‘मैला आंचल’ नामक उनके सबसे प्रसिद्ध उपन्यास पर भी एक टीवी धारावाहिक बना और इससे पहले इसी उपन्यास पर ‘डागदर बाबू’ नाम से फिल्म बननी शुरू हुई थी जो पूरी न हो सकी.

प्रेमचंद और रेणु आंचलिक खुशबू को अलग-अलग तरीके से लिखा

हिन्दी साहित्य में आंचलिक खुशबू सबसे ज्यादा जिन दो साहित्यकारों की लेखनी में देखने को मिलती है, वह प्रेमचंद और रेणु हैं. प्रेमचंद ने जो लिखा रेणु उसी को नए रूप में आगे ले गईं. हालांकि रेणु का युग प्रेमचंद के युग से थोड़ा अलग था इसलिए उनकी लेखनी में भी प्रेमचंद से कुछ भिन्न पढ़ने को मिलता है. प्रेमचंद ने ग्रामीण जीवन को साहित्य में प्रस्तुत तो किया है, परन्तु उनकी अन्दरूनी गांठों को नहीं खोल पाए जिन्हें रेणु ने खोला.

प्रेमचंद ने जहां अपनी लेखनी में अपने स्त्री पात्रों में त्याग, सेवा और पवित्रता को दिखाकर नारी का आदर्श रूप प्रस्तूत किया. उनकी स्त्री पात्र बिना फल की आशा के त्याग करती हुई दिखाई दी, जबकि रेणु ने औरत को औरत होना सिखाया. हम कह सकते हैं कि प्रेमचंद ने लोकजीवन का जो आधार साहित्य को दिया रेणु ने उसकी तहों तक पहुंचने का प्रयास किया है.

हिन्दी के जाने माने साहित्यकार भारत यायावर ने दोनों के बीच अन्तर को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है- "प्रेमचंद और रेणु दोनों के पात्र निम्नवर्गीय हरिजन, किसान, लोहार, बढ़ई, चर्मकार, कर्मकार आदि हैं. दोनों कथाकारों ने साधारण पात्रों की जीवन कथा की रचना की है, पर दोनों के कथा-विन्यास, रचना-दृष्टि और ट्रीटमेंट में बहुत फर्क है. प्रेमचंद की अधिकांश कहानियों में इन उपेक्षित और उत्पीडि़त पात्रों का आर्थिक शोषण या उनकी सामन्ती और महाजनी व्यवस्था के फंदे में पड़ी हुई दारुण स्थिति का चित्रण है, जबकि रेणु ने इन सताए हुए शोषित पात्रों की सांस्कृतिक सम्पन्नता, मन की कोमलता और रागात्मकता तथा कलाकारोचित प्रतिभा का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है.''

वहीं डा नामवर सिंह के बाद के आलोचकों में डा. शिवकुमार मिश्र का नाम महत्त्वपूर्ण है.वे अपने प्रसिद्ध निबंध प्रेमचंद की परंपरा और फणीश्वरनाथ रेणु में लिखा है-‘‘रेणु हिंदी के उन कथाकारों में हैं, जिन्होंने आधुनिकतावादी फैशन की परवाह न करते हुए, कथा-साहित्य को एक लंबे अर्से के बाद प्रेमचंद की उस परंपरा से फिर जोड़ा जो बीच में मध्यवर्गीय नागरिक जीवन की केंद्रीयता के कारण भारत की आत्मा से कट गयी थी.”

निश्चित ही प्रेमचंद के लेखनी को ही उन्होंने अपने लेखनी में आगे बढ़ाया. यही कारण भी रहा कि उनको आजादी के बाद का प्रेमचंद कहा गया. उनकी प्रमुख रचनाओं में उपन्यास की बात करें तो मैला आंचल, परती परिकथा, जुलूस, दीर्घतपा, कितने चौराहे, पलटू बाबू रोड है. वहीं कहानी संग्रह में 'एक आदिम रात्रि की महक', ठुमरी, अग्निखोर, अच्छे आदमी आदि है. रेणु कई संस्मरण भी लिखे हैं, प्रमुख संस्मरणों में ऋणजल-धनजल, श्रुत अश्रुत पूर्वे, आत्म परिचय, वनतुलसी की गंध, समय की शिला पर आदि  प्रमुख है.

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