False Physical Harassment Case: सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि किसी पुरुष पर दुष्कर्म का झूठा आरोप उतना ही भयावह और पीड़ा देने वाला होता है, जितना किसी महिला के साथ दुष्कर्म. बेकसूर को झूठे मामलों में फंसाने से बचाया जाना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में अदालत का कर्तव्य बनता है कि वह सावधानी और बारीकी से हर पहलू को देखे.
जस्टिस बी. आर. गवई और जस्टिस जे. बी. पारदीवाला की बेंच ने मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि जब कोई आरोपी इस आधार पर प्राथमिकी रद्द करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाता है तो ऐसी कार्यवाही स्पष्ट रूप से परेशान करने वाली है और ऐसी परिस्थितियों में अदालत का कर्तव्य बनता है कि वह प्राथमिकी को सावधानी से और थोड़ा और बारीकी से देखे.
क्या बोला कोर्ट?
पीठ ने कहा, 'इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि दुष्कर्म से पीड़िता को सबसे ज्यादा परेशानी और अपमान सहना पड़ता होता है, लेकिन साथ ही दुष्कर्म का झूठा आरोप आरोपी को भी उतना ही कष्ट, अपमान और नुकसान पहुंचा सकता है. किसी व्यक्ति को रेप के झूठे मामले में फंसाने से बचाए जाने की जरूरत है.'
पूरे मामले को बारीकी से देखना कोर्ट की जिम्मेदारी: SC
कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता को यह सुनिश्चित करना होगा कि शिकायत में दिए गए बयान ऐसे हों कि कथित अपराध का ठोस मामला बन सके. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत का यह कर्तव्य है कि वह मामले के रिकॉर्ड से सामने आने वाली जानकारी के अलावा अन्य परिस्थितियों पर गौर करे और उचित तरीके से पूरे मामले को देखे और सावधानी से तथ्यों को समझने की कोशिश करे.
कोर्ट ने कहा, 'सीआरपीसी की धारा 482 या संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करते समय कोर्ट को सिर्फ मामले के चरण तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे मामले की शुरुआत/पंजीकरण के लिए समग्र परिस्थितियों के साथ-साथ जांच के दौरान एकत्र की गई सामग्री को ध्यान में रखना चाहिए.'
इलाहाबाद HC ने खारिज कर दी थी याचिका
कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के मिर्जापुर पुलिस थाने में एक आरोपी के खिलाफ दर्ज दुष्कर्म और आपराधिक धमकी की प्राथमिकी को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की. इससे पहले आरोपी ने अपने खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने के अनुरोध संबंधी याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर की थी जिसे खारिज कर दिया गया था.