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आरसीईपी से बाहर रहेगा भारत, घरेलू बाजार बचाने की खातिर पीएम ने लिया बड़ा फैसला

सूत्रों के मुताबिक बैठक में पीएम मोदी ने साफ किया कि “भारत अधिक क्षेत्रीय एकीकरण के साथ-साथ मुक्त व्यापार और नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के पालन के लिए प्रतिबद्ध है.

नई दिल्ली: भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत संभालने की खातिर बड़ा फैसला लेते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने एशिया के सबसे बड़े मुक्त व्यापार समझौते यानी आरसीईपी से भारत को दूर रखने का फैसला लिया है. आसियान शिखर सम्मेलन में जहां बीते सात सालों से मशक्कत कर रहे 16 में से 15 मुल्कों ने अगले साल नए आरसीईपी समझौते पर दस्तखत करने का फैसला किया. वहीं भारतीय चिंताओं की अनदेखी और मुद्दों पर समाधान न मिलने का हवाला देते हुए पीएम मोदी ने पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के दौरान भारत के इस समझौते में शरीक ना होने का एलान किया है.

विदेश मंत्रालय में सचिव पूर्व विजय ठाकुर सिंह ने कहा कि ऐसे कई मुद्दे थे जो भारत की मूल आर्थिक चिंताओं से जुड़े थे. इनको लेकर भारत ने सक्रियता के साथ बैठकों और चर्चाओं में उठाया. लेकिन इनका कोई समाधान नहीं निकला. ऐसे में भारत ने इस समझौते में न शामिल होने का फैसला लिया है.

सूत्रों के मुताबिक बैठक में पीएम मोदी ने साफ किया कि “भारत अधिक क्षेत्रीय एकीकरण के साथ-साथ मुक्त व्यापार और नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के पालन के लिए प्रतिबद्ध है. भारत प्रारंभ से ही आरसीईपी वार्ता में सक्रिय, रचनात्मक और सार्थक रूप से लगा हुआ है.

मगर जब आरसीईपी वार्ता के सात वर्षों के दौरान देखते हैं, तो वैश्विक आर्थिक और व्यापार परिदृश्य सहित कई चीजें बदल गई हैं. इन परिवर्तनों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. आरसीईपी समझौते का वर्तमान स्वरूप इसके मूल सिद्धांत और सबके लिए स्वीकार्य मार्गदर्शक मूल्यों को पूरी तरह से प्रतिबिंबित नहीं करता है. यह संतोषजनक रूप से भारत के प्रमुख मुद्दों और चिंताओं का भी समाधान नहीं करता है. ऐसी स्थिति में, भारत के लिए RCEP समझौते में शामिल होना संभव नहीं है.

सूत्रों के मुताबिक पीएम ने अपने भाषण में इस बात का भी ज़िक्र किया कि भारत के ऐसे फैसलों में किसान, व्यापारी, पेशेवर और उद्योग भी हिस्सेदार हैं. उसी तरह भारत को एक विशाल बाजार बनाने वाले कर्मचारी व उपभोक्ता भी महत्वपूर्ण हैं, जिनकी क्रय शक्ति भारत को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाती हैं. लिहाज़ा जब मैं सभी भारतीयों के हितों की कसौटी पर आरसीईपी समझौते को मापता हूं, तो मुझे सकारात्मक जवाब नहीं मिलता है. ऐसे में न तो गांधीजी की विचार तुला और न ही मेरी अंतरात्मा मुझे आरसीईपी में शामिल होने की अनुमति देती है.

पीएम का बड़ा फैसला पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन की खातिर पीएम नरेंद्र मोदी के थाइलैंड दौरे से पहले तक मंत्री और अधिकारियों के स्तर पर कोशिशों का दौर जारी था. बातचीत की मेज़ पर अपनी आर्थिक चिंताएं और समाधान की अपेक्षाएं रखने के साथ-साथ फैसला 4 नवम्बर को तय आरसीईपी शिखर वार्ता पर छोड़ दिया गया, जिसमें भारत का पक्ष रखने के लिए खुद पीएम नरेंद्र मोदी को मौजूद रहना था.

हालांकि अधिकारिक सूत्रों के मुताबिक आरसीईपी पर भारत का रुख क्या हो, इसको लेकर कोई संशय नहीं था. अपने मुद्दों और चिंताओं का समाधान मिलने और भारत के लिए किसी भी सूरत में इसके साथ जाना सम्भव नहीं था. लिहाज़ा बन्द कमरों में चल रही व्यापार वार्ताओं में जब यह साफ हो गया कि 15 देश आरसीईपी समझौते पर दस्तखत को लेकर राजी हैं, तो भारत के लिए इनकार का फैसला लेना काफी सहज था क्योंकि इस समझौते के मौजूदा स्वरूप को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता था.

आरसीईपी से इनकार कर भारत ने बचाया घरेलू उद्योग भारत को आरसीईपी के दायरे से बाहर रहने के अहम फैसले के पीछे व्यापक आर्थिक हितों को लेकर चिंताएं बड़ी वजह थीं. वार्ता की मेज़ पर भारत को ना तो सेवाओं और उत्पादों को लेकर कारोबारी बराबरी का दर्जा हासिल हो सका और न ही डंपिंग से अपने बाजार व घरेलू उद्योगों को बचाने का कोई मुफीद फार्मूला हाथ लग सका. ऐसे में 50 फीसद से ज़्यादा सेवा क्षेत्र की जीडीपी हिस्सेदारी वाली अर्थव्यवस्था को इस नए आर्थिक कुनबे से बाहर रखना फ़िलहाल ज़रूरत और समझदारी का तकाजा था.

इसके अलावा भारत के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की मुश्किलों के मद्देनजर भी यह एक ऐसा फैसला है, जिसमें आरसीईपी के लिए हां कहने पर भारतीय लघु-मझौले उद्योग क्षेत्र के लिए कमर टूट सकती थी. इतना ही नहीं भारत में बड़ी फिक्र डेयरी उद्योग को लेकर भी थी, जो आरसीईपी में शामिल होने पर लड़खड़ा सकता था. ऐसा होने पर पहले से परेशान कृषि क्षेत्र के लिए न केवल मुश्किलें बढ़ जातीं, बल्कि 2022 तक किसानों की आय दुगना करने के अपने वादे को भी सरकार को ताख पर रखना पड़ता. ध्यान रहे कि आरसीईपी का हिस्सा बन जाने पर दूध और डेयरी कारोबार में घरेलू उत्पादकों की बढ़त को बड़ा झटका लगता और उन्हें ऑस्ट्रेलिया-न्यूज़ीलैंड के डेयरी उत्पादकों के साथ प्रतियोगिता करनी पड़ती.

आरसीईपी से बाहर रहने पर भी चुनौतियां कम नहीं है भारत ने फिलहार आरसीईपी से बाहर रहने का फैसला ज़रूर किया है लेकिन अपने पड़ोस में बन रहे इस विशालकाय आर्थिक सहयोग सम्झौते की पैदाइश का असर दरवाजे बंद करने के बावजूद भी भारतीय अर्थव्यवस्था को झेलना होंगे. मुक्त व्यापार समझौते के मुकाबले भारत को जहां चीन, कोरिया, जापान, न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया के साथ द्विपक्षीय स्तर पर आयात-निर्यात के मसले सुलझाने होंगे. वहीं दस देशों के आसियान कुनबे के साथ उसे पुराने एफटीए में सुधार की कोशिशों में भी खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.

ज़ाहिर तौर पर आरसीईपी को लेकर भारत के ताज़ा फैसले का असर अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ चल रही मुक्त व्यापार वार्ताओं पर भी पड़ेगा.

भारत को इस नई आर्थिक चुनौती से मुकाबले के लिए अपने उद्योग क्षेत्र को ताकत का नया टॉनिक देना होगा ताकि वो प्रतिस्पर्धा के बाजार में टिक सकें. आरसीईपी से बाहर रहने पर भारत के सामने अलग-थलग पड़ने का खतरा भी उभरता है. हालांकि पीएम ने इस बात कस संकेत से दिए कि भारत आरसीईपी से भले ही बाहर हो लेकिन इस क्षेत्र के साथ सदियों पुराने अपने आर्थिक संबंधों को सींचने और बढ़ने का सिलसिला जारी रखेगा.

चीनी दबाव ने दी आरसीईपी वार्ताओं को रफ्तार अमेरिका के साथ कारोबारी युद्ध के चलते खासी मुश्किल उठा रहे चीन ने बीते कुछ वक्त के दौरान आरसीईपी के लिए चल रही वार्ताओं की रफ्तार बढ़ाने में काफी कोशिशें झोंकी. बीते दिनों पीएम नरेंद्र मोदी के साथ अनौपचारिक शिखर वार्ता के लिए महाबलीपुरम आए चीनी राष्ट्रपति की बातचीत में भी आरसीईपी एक अहम मुद्दा था.

मगर कहीं न कहीं इस समझौते को लेकर जारी तनाव का ही असर था कि पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के हाशिए पर पीएम मोदी की अपने चीनी समकक्ष से द्विपक्षीय मुलाकात नहीं हुई. वहीं चीनी मीडिया ने प्रधानमंत्री ली कछ्यांग के हवाले से छपी खबर में नाम लिए बिना भारत पर उंगली भी उठाई. चीन के ग्लोबल टाइम्स अखबार के अनुसार ली कछ्यांग ने कहा कि 15 देश आरसीईपी पर सहमत हैं जबकि एक देश की तरफ से ने प्रस्ताव दिए जा रहे हैं. हालांकि भारतीय आधिकारिक सूत्रों ने इसका खंडन करते हुए कहा कि भारत आरसीईपी के लिए हुई वार्ताओं में समाधान की मन्शा से भाग लेता रहा और लगातार अपनी चिंताएं भी जताता रहा है.

बहरहाल, चीन ने इस समझौते को जल्द पूरा करने के लिए सक्रियता ज़रूर दिखाई हो लेकिन यह भी सच है कि भारत के अलावा अन्य देश इसमें अपने लिए मुनाफा देख रहे थे. यही वजह थी कि 7 सालों तक चली 16 देशों की वार्ताओं के बाद बाहर रहने का फैसला करने वाला भारत अकेला मुल्क है. अब इस फैसले पर अगले साल दस्तखत हो जाने हैं.

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