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चीन की तुलना में भारत के पास कितनी हैं सबमरीन, 'युद्धकाल' में इनका कैसे होता है इस्तेमाल

सबसे ज्यादा 68 परमाणु पनडुब्बियां अमेरिका के पास हैं. वहीं चीन के पास 10 न्यूक्लियर पावर से लैस पनडुब्बियों के अलावा 50 ताकतवर पनडुब्बियां हैं. संख्या मामले में भारत की स्थिति कमजोर है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ्रांस पहुंचने से पहले भारत के रक्षा मंत्रालय ने नौसेना के लिए 26 राफेल लड़ाकू विमान और तीन स्कॉर्पीन श्रेणी की पनडुब्बियों की खरीद के लिए प्रारंभिक मंजूरी दे दी है. पीएम मोदी का ये दौरा सबसे पुराने रणनीतिक साझेदार के साथ संबंधों को गहरा करने का एक कदम माना जा रहा है. इस दौरे से कई हाई-प्रोफाइल रक्षा सौदों में स्थिरता के लिए एक नई संयुक्त योजना की उम्मीद की जा रही है.

रॉयटर्स में छपी खबर के मुताबिक इस यात्रा के दौरान 26 डसॉल्ट एविएशन राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद और फ्रांस के नौसेना समूह के साथ मिलकर भारत के मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स में तीन स्कॉर्पीन श्रेणी की पनडुब्बियां बनाने पर सौदा होगा. 

भारत अब तक बड़े पैमाने पर रूस से लड़ाकू विमानों का सौदा करता रहा है. लेकिन रखरखाव को लेकर रूस की अक्षमता और भारत की स्वदेशी विनिर्माण योजनाओं में देरी की वजह से दो नए रक्षा सौदों की (पहले अमेरिका के साथ और अब फ्रांस) की जरूरत महसूस हुई. 

फ्रांस के साथ ये सौदा प्रोजेक्ट 75 का हिस्सा है. प्रोजेक्ट-75 जिसे पी -75 (आई) कार्यक्रम के रूप में भी जाना जाता है. भारत के रक्षा मंत्रालय (एमओडी) की सैन्य अधिग्रहण पहल है. इसका उद्देश्य भारतीय नौसेना के लिए डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियों की खरीद करना है. 

इस डील में 22 राफेल MS और 4 ट्विन सीटर ट्रेनी वर्जन प्लेन शामिल होंगे. इसके अलावा भारतीय नौसेना के लिए तीन अतिरिक्त स्कोपीन श्रेणी की पनडुब्बियों की खरीद होगी. इस डील पर सरकार लंबे वक्त से विचार कर रही थी. पीएम के दौरे के मद्देनजर DAC ने इसे मंजूरी दे दी.

राफेल विमानों की ये खरीद भारतीय नौसेना के लिए की जा रही है. इस सौदे की एक और खासियत ये है कि राफेल उड़ाने वाले पायलट्स को ट्रेनिंग के लिए फ्रांस नहीं जाना पड़ेगा. इसके लिए 4 ट्विन सीटर ट्रेनी वर्जन राफेल की खरीद भी भारतीय नौसेना के लिए हो रही. विमान वाहक पोत भी आईएनएस विक्रांत पर तैनात किया जाएगा. 

वहीं नौसेना के लिए डीजल से चलने वाली तीन नई पनडुब्बियां के आने से समुद्री सीमा के पास पनडुब्बियों की कमी का मुद्दा हल होगा. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक ये सौदा 90 हजार करोड़ रुपये का होगा.

नौसेना के विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे समय में जब चीन समुद्री डकैती रोधी अभियानों के बहाने हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी पारंपरिक और परमाणु पनडुब्बियों को बार-बार तैनात कर रहा है.

भारतीय नौसेना की पानी के नीचे की क्षमताओं को तत्काल बढ़ाने की जरूरत है. जबकि चीन के पास 65 से ज्यादा बहुत ही ताकतवर (10 परमाणु पनडुब्बियों को मिलाकर) पनडुब्बियों है, और वो भारत का सबसे बड़ा दुशमन बन गया है.

यहां तक कि पाकिस्तान की छोटी नौसेना भी तेजी से परमाणु पनडुब्बियों को अपने बेड़े में शामिल कर रही है. 

चीन का खतरा

फ्रांस के साथ इस डील की चर्चा के बाद चीन का जिक्र जरूरी हो जाता है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में भारत का चीन के साथ सीमा विवाद अब भी जारी है. सीमा विवाद में भारत के 20 सुरक्षाबलों की जान गई थी. तब से लेकर अब तक दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हो पाए हैं.

चीन अपने सभी पनडुब्बियों का इस्तेमाल समय-समय पर हिंद महासागर क्षेत्र में करता है. भारतीय नौसेना की हमलावर पनडुब्बियों का बेड़ा 1980 के दशक में 21 से घटकर वर्तमान में केवल 16 रह गया है. इसमें से केवल आठ किसी भी समय हुए युद्ध के लिए तैयार हैं.  बेड़े में बाकी पनडुब्बी 30 साल पुरानी है. 

भारत के पास सिर्फ एक परमाणु पनडुब्बी

भारत ने 1960 के दशक की शुरुआत में परमाणु संचालित पनडुब्बियों की क्षमता पर चर्चा की. लेकिन 1983 तक अपने उन्नत प्रौद्योगिकी पोत (एटीवी) पनडुब्बी कार्यक्रम का विकास शुरू नहीं किया.

भारत ने ऐतिहासिक रूप से जर्मनी, फ्रांस और रूस से पनडुब्बियों का आयात किया है. इटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रैटेजिक स्टडीज के मुताबिक सबसे ज्यादा 68 परमाणु पनडुब्बियां अमेरिका के पास हैं. भारत के पास एक परमाणु पनडुब्बी है. इस भारतीय पनडुब्बी का नाम INS अरिहंत है. 


चीन की तुलना में भारत के पास कितनी हैं सबमरीन, 'युद्धकाल' में इनका कैसे होता है इस्तेमाल

साउथ चाइना मॉर्निग पोस्ट के मुताबिक सेवानिवृत्त वाइस एडमिरल और भारतीय नौसेना के पूर्व कमांडर शेखर सिन्हा ने बताया था कि परमाणु संचालित पनडुब्बियों का हिंद-प्रशांत में शक्ति संतुलन पर 'महत्वपूर्ण प्रभाव' पड़ेगा. 

2008 में भारत और अमेरिका ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था. इसके तहत अमेरिका ने भारत के साथ परमाणु सहयोग की दिशा में काम करने पर सहमति जताई थी.  लेकिन ये डील पूरी नहीं हुई. अमेरिका ने भारत के साथ सैन्य परमाणु प्रौद्योगिकी साझा नहीं किया. 

चीन के साथ 1962 के सीमा युद्ध के बाद भारत ने अपने पनडुब्बी बेड़े के निर्माण में सहायता के लिए अमेरिका से संपर्क किया था, लेकिन अमेरिका मदद करने के लिए तैयार नहीं था.

नतीजतन, भारत ने सोवियत संघ की ओर रुख किया.1963-64 में रक्षा मंत्री के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल बेड़े की पनडुब्बियों की तलाश में अमेरिका गया था, लेकिन अमेरिकियों ने ठुकरा दिया.  फिर भारत का प्रतिनिधिमंडल रूसियों के पास गया और टाइप 641 [नाटो फॉक्सट्रॉट वर्ग] खरीदे गए. 

उन दौर में अमेरिका और भारत हर मौकों परअंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर एक साथ नहीं थे. भारत का झुकाव भी रूस की तरफ था. भारत ने 1988 में सोवियत संघ से तीन साल के लिए ऋण पर अपनी पहली परमाणु संचालित पनडुब्बी हासिल की थी. 

2012 में इसने फिर से एक रूसी परमाणु संचालित पनडुब्बी को पट्टे पर लिया. लेकिन तकनीकी खराबी  की वजह से जून 2021 में इसे रूस को वापस कर दिया. 

भारत अब रूस से अपनी तीसरी परमाणु संचालित पनडुब्बी का इंतजार कर रहा है, जिसे 2026 में आने की उम्मीद है. वर्तमान में, भारतीय नौसेना के पास 17 पनडुब्बियां हैं - आईएनएस अरिहंत (स्वदेशी निर्मित परमाणु संचालित बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बी) और 16 डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियां हैं.

आईएनएस अरिहंत की खासियत 

यह जल, थल और नभ में मार करने में सक्षम है. इसे न्यूक्लियर ट्रायड भी कहा जाता है, इसका मतलब तीनों स्तर की सुरक्षा होता है. यह पहले ही मिराज-2000 और अग्नि बैलेस्टिक मिसाइल से लैस था. यह पानी के अंदर वार करने में भी पूरी तरह सक्षम है.

चीन, अमेरिका और रूस की पनडुब्बियां 5000 किलोमीटर तक मारक क्षमता वाली हैं. वहीं आईएनएस अरिहंत की क्षमता 750 से 3500 किलोमीटर तक की है. आईएनएस अरिहंत को पहली बार साल 2009 में विशाखापत्नम में शिप बिल्डिंग सेंटर में लॉन्च किया गया था.  2016 में, अरिहंत को प्रेरण के लिए रखा गया वहीं इसी साल अगस्त में इसे सेवा के लिए सौंप दिया गया.

यह एक एसएसबीएन (जहाज पनडुब्बी बैलिस्टिक, परमाणु पनडुब्बी), या एक ऐसी पनडुब्बी है जो परमाणु हथियारों के साथ बैलिस्टिक मिसाइल ले जा सकती है. इसका डिजाइन रूसी अकुला -1 श्रेणी की पनडुब्बियों पर आधारित है और इसके 83 मेगावाट के दबाव वाले जल रिएक्टर को महत्वपूर्ण रूसी सहायता से बनाया गया है. 

यह भारतीय नौसेना की सिक्रेटिव एडवांस टेकनोलॉजी वैसल (एटीवी) परियोजना का हिस्सा है, जो प्रधानमंत्री कार्यालय की देखरेख में है. इसमें डीआरडीओ, परमाणु ऊर्जा विभाग, नौसेना डिजाइन निदेशालय के पनडुब्बी डिजाइन समूह जैसी एजेंसियों के अलावा एल एंड टी जैसी कंपनियां शामिल हैं.  मिसाइल का नाम पूर्व राष्ट्रपति और वैज्ञानिक ए.पी.जे अब्दुल कलाम के नाम पर रखा गया है. 

फ्रांस ने पहले भी भारत का दिया है साथ

फ्रांस दशकों से यूरोप में भारत के सबसे करीबी साझेदारों में से एक रहा है. भारत द्वारा 1998 में परमाणु परीक्षण किए जाने के बाद पेरिस एकमात्र पश्चिमी राजधानी थी जिसने भारत पर प्रतिबंध नहीं लगाए थे.

दस साल बाद जब भारत को अपनी नागरिक परमाणु योजनाओं के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की छूट मिली, तो फ्रांस एक समझौते पर हस्ताक्षर करने वाला पहला देश था.  भारत चार दशकों से फ्रांस के लड़ाकू विमानों पर निर्भर रहा है. 2015 में डसॉल्ट एविएशन के राफेल खरीदने से बहुत पहले भारत ने 1980 के दशक में मिराज जेट खरीदे थे, जिसमें अभी भी वायु सेना के दो स्क्वाड्रन शामिल हैं. 

2005 में भारत ने फ्रांस से 188 बिलियन (यूएस $ 2.28 बिलियन) में छह स्कॉर्पीन श्रेणी की डीजल पनडुब्बियां खरीदीं. इन्हें फ्रांसीसी नौसेना समूह के साथ साझेदारी में मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स (एमडीएल) द्वारा भारत में बनाया जाना था, जिनमें से छठवां अगले साल कमीशन किया जाएगा. 

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