बाहुबली अतीक अहमद के बेटे असद के पुलिसिया एनकाउंटर के बाद यूपी की सियासत में भूचाल आ गया है. 40 साल में यह पहली बार है, जब बाहुलबली अतीक के परिवार के किसी व्यक्ति को पुलिस ने मार गिराया है.
असद के एनकाउंटर को सरकार के मंत्री अपराध खत्म करने का संकल्प बता रहे हैं, तो सपा ने वोटों के लिए किया गया फर्जी मुठभेड़ बताया है. सपा ने कहा कि नगर निकाय चुनाव को देखते हुए धार्मिक तुष्टिकरण की एक कोशिश है.
सपा के इस आरोप पर बीजेपी ने चुप्पी साध ली है. यूपी की सियासत में एनकाउंटर ने हमेशा से पॉलिटिकल बूस्टअप का काम किया है. श्रीप्रकाश शुक्ला से ददुआ और ठोकिया तक एनकाउंटर की यह लिस्ट काफी लंबी है.
यूपी में हुए इन मुठभेड़ों पर सवाल भी उठे. मानवाधिकार आयोग के नोटिस भी आए, लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए एनकाउंटर होता रहा. इस स्टोरी में सिलसिलेवार तरीके से जानते हैं कि कब-कब बड़े एनकाउंटर का फायदा तत्कालीन सरकार और उसमें शामिल लोगों को हुआ?
1. श्रीप्रकाश शुक्ल- 1998 में यूपी सरकार के लिए सिरदर्द बन चुका माफिया श्रीप्रकाश शुक्ल को पुलिस ने एनकाउंटर में ढेर कर दिया. शुक्ल ने उस वक्त मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को मारने के लिए 5 करोड़ रुपए की सुपारी ले ली थी.
खुफिया एजेंसी से जब सरकार को इस बात की भनक लगी तो आनन-फानन में एसटीएफ का गठन किया गया था. शुक्ल पर हत्या, रंगदारी और हत्या की साजिश जैसे आरोप में कई मुकदमे दर्ज था. बिहार के मंत्री बृजबिहारी प्रसाद की हत्या में भी श्रीप्रकाश शामिल था.
यूपी एसटीएफ के गठन के बाद शुक्ल ने विधानसभा के बाहर एक होटल में ताबड़तोड़ फायरिंग कर सरकार की टेंशन बढ़ा दी. इसके कुछ दिनों बाद लखनऊ के जनपथ मार्केट में पुलिस के साथ उसका मुठभेड़ हो गया. इसके बाद एसटीएफ ने उसे मारने की प्लानिंग कर ली.
एसटीएफ ने काफी ट्रैप करने के बाद शुक्ल को गाजियाबाद में मार गिराया. शुक्ल की मौत के बाद यूपी सरकार ने राहत की सांस ली थी. इस एनकाउंटर का उस वक्त बीजेपी सरकार को काफी फायदा मिला था.
श्रीप्रकाश शुक्ल के एनकाउंटर के बाद 1999 का लोकसभा चुनाव हुआ. बसपा के बढ़ते प्रभाव की वजह से बीजेपी की सीटों में कमी आई, लेकिन पूर्वांचल में बीजेपी का दबदबा कायम रहा. पूर्वांचल की गोरखपुर, जौनपुर, देवरिया, पंडरौना, गाजीपुर और वाराणसी जैसी सीटें बीजेपी जीतने में सफल रही थी.
1998 के चुनाव में इनमें से अधिकांश सीटों पर सपा को जीत मिली थी. पूर्वांचल में बीजेपी के इस दबदबे के पीछे श्रीप्रकाश शुक्ल एनकाउंटर को भी एक बड़ा फैक्टर माना गया था. शुक्ल का अधिकांश दबदबा पूर्वांचल में ही था.
2. ददुआ और ठोकिया का एनकाउंटर- 2007 में यूपी की सत्ता में मायावती पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में आई. बीएसपी ने एसटीएफ को फिर से शक्ति दी और अपराध पर जीरो टॉलरेंस अपनाने का आदेश दिया.
सरकार से आदेश मिलने के बाद एसटीएफ एक्टिव हो गई. उस वक्त बीहड़ में आतंक के प्रयाय बन चुके ददुआ और ठोकिया को लेकर ऑपरेशन शुरू हुआ. ददुआ और ठोकिया का आतंक यूपी के साथ ही एमपी के चंबल में भी था.
ददुआ डकैती के साथ ही बुंदेलखंड में चुनावी समीकरण भी सेट करता था. ददुआ के इशारे पर ही बुंदेलखंड की सीटों पर जीत और हार तय होती थी. उस वक्त ददुआ को लेकर कई नारे भी प्रचलित थे.
एसटीएफ के एनकाउंटर में साल 2007 में ददुआ की मौत हो जाती है. ददुआ के मौत से उसके गिरोह उबल पड़ता है और ठोकिया के नेतृत्व में एसटीएफ पर हमला कर देता है. ठोकिया के इस हमले में एसटीएफ के कई जवान शहीद हो जाते हैं.
इसके बाद एसटीएफ ठोकिया को मारने की तैयारी करता है. एक निजी कार्यक्रम में ठोकिया भी पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है और उसकी भी मौत हो जाती है.
ददुआ-ठोकिया के एनकाउंटर के बाद मध्य प्रदेश का विधानसभा चुनाव हुआ. इसमें मायावती को कठोर शासक की इमेज को लेकर बीएसपी मैदान में उतरी. बीएसपी को बीहड़ के इलाकों में फायदा भी मिला.
बीएसपी मध्य प्रदेश में 7 सीटों पर जीत दर्ज की, जो 2003 के मुकाबले 5 ज्यादा था. 2003 में बीएसपी को सिर्फ 2 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. 2008 में बीएसपी ने अधिकांश सीटें बीहड़ इलाकों में ही जीती, जहां ददुआ और ठोकिया का खौफ चलता था.
2009 के लोकसभा चुनाव में भी बीएसपी को इसका फायदा मिला और बुंदेलखंड की 3 में से एक सीट पर पार्टी को जीत मिली. यूपी के अलावा बीएसपी मध्य प्रदेश की रीवा सीट पर भी जीत हासिल की
विकास दुबे एनकाउंटर- जुलाई 2020 में कानपुर के बिकरू में विकास दुबे और उसके साथियों ने एक डीएसपी समेत 8 पुलिसकर्मियों को मौत का घाट उतार दिया. विकास दुबे इसके बाद यूपी पुलिस की हिटलिस्ट में आ गया. एसटीएफ ने उसे पकड़ने के लिए कई राज्यों में जाल बिछाया.
विकास दुबे ने बिकरू कांड के कुछ दिनों बाद मध्य प्रदेश के उज्जैन स्थित महाकाल मंदिर में खुद को सरेंडर कर दिया. इसके बाद यूपी एसटीएफ उसे लेने उज्जैन पहुंच गई. उज्जैन से लखनऊ लाने के दौरान यूपी एसटीएफ की गाड़ी पलट गई, जिसके बाद विकास दुबे का एनकाउंटर हो गया.
दुबे इस एनकाउंटर में मारा गया. यूपी सरकार ने विकास दुबे के एनकाउंटर और उसके अवैध संपत्तियों पर चलाए गए बुलडोजर एक्शन को चुनावी मुद्दा भी बनाया. विकास दुबे एनकाउंटर के बाद 2022 में यूपी के चुनाव हुए. इसमें बीजेपी को इसका फायदा भी मिला.
विकास दुबे के दबदबा वाले कानपुर डिवीजन में बीजेपी पुराने परफॉर्मेंस को दोहराने में कामयाब रही. कानपुर डिवीजन में इटावा, कन्नौज, औरेया, फर्रूखाबाद, कानपुर नगर और कानपुर देहात आता है. इन जिलों में विधानसभा की कुल 27 सीटें हैं. इटावा और फर्रूखाबाद और कन्नौज सपा का गढ़ माना जाता रहा है.
2022 में बीजेपी को 27 में से 22 सीटों पर जीत मिली थी. 2022 में सपा ने अपने गढ़ में मजबूती से वापसी करने के लिए प्लान तैयार किया था, लेकिन बीजेपी पुराने परफॉर्मेंस को दोहराने में कामयाब रही. 2022 में बीजेपी को 27 में से 20 सीटों पर जीत मिली. वो भी तब, जब पूरे प्रदेश में बीजेपी की कुल सीटों में भारी कमी आई.
एनकाउंटर सत्ता के लिए संजीवनी कैसे?
1. अपराध के बाद सरकार जब किसी मुद्दे पर बुरी तरह घिर जाती है, तो उसके बाद राजनीतिक दबाव कम करने लिए अपराधी का एनकाउंटर कर दिया जाता है.
2. एनकाउंटर के जरिए सरकार अपनी सख्त इमेज बनाती है और इसे अपराध कम करने का एक जरिया के रूप में प्रचार किया जाता है.
3. एनकाउंटर के जरिए सरकार सांगठनिक अपराध को कम करती है. एनकाउंटर के डर से कई बार माफिया अंडरग्राउंड हो जाता है, जिस वजह से उनके दबदबे वाले क्षेत्र में कुछ महीनों तक अपराध कम हो जाता है.
4. कल्याण सिंह, मायावती और अब योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्रियों ने गुंडों पर कार्रवाई को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था. इन तीनों नेताओं को इसका फायदा भी मिला.
असद एनकाउंटर से बदलेगा सियासी समीकरण?
असद एनकाउंटर का असर यूपी में हो रहे नगर निकाय चुनाव में पड़ना तय माना जा रहा है. प्रयागराज और कौशांबी समेत कई जिलों में असद एनकाउंटर और कानून व्यवस्था मुख्य मुद्दा रहने वाला है. असद एनकाउंटर के बाद राजनीतिक एक्सपर्ट्स का मानना है कि अब सीधे सपा वर्सेज बीजेपी के बीच चुनाव होगा.
बात प्रयागराज की करें तो अतीक परिवार का यहां दबदबा रहा है. अतीक की पत्नी शाइस्ता बीएसपी से चुनाव लड़ने की भी तैयारी कर रही थी, लेकिन अब परिस्थिति पूरी तरह बदल गई है. हालांकि, चुनाव में अतीक और उस पर हुई कार्रवाई का फैक्टर जरूर काम करेगा.
प्रयागराज नगर निगम में 15 लाख से अधिक वोटर्स हैं, जिनमें करीब 20 फीसदी मुसलमान है. प्रयागराज में करीब 20 फीसदी ओबीसी और 16 फीसदी दलित वोटर्स हैं. प्रयागराज में मुस्लिम मतदाताओं के बीच अतीक अहमद की पकड़ मजबूत रही है. अगर निकाय चुनाव में मुस्लिम वोट एकतरफा मूव करता है तो सपा को इसका फायदा मिल सकता है.
बीजेपी कानून-व्यवस्था को लेकर लोगों के बीच जा रही है. बीजेपी ने अभी प्रयागराज सीट पर उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है. बीजेपी का एक तबका उमेश पाल की पत्नी जया पाल को महापौर का टिकट देने के पक्ष में है. कुल मिलाकर असद के एनकाउंटर के बाद प्रयागराज और आसपास के इलाकों में निकाय चुनाव में यह एक बड़ा मुद्दा बन गया है.