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#Pradhanmantri2onABP | क्या शिमला समझौता भारत की हार था?
पाकिस्तान युद्ध हार चुका था. सबसे बड़ी बात ये थी कि पूर्वी पाकिस्तान दुनिया के नक्शे से हमेशा के लिए गायब हो गया और बांग्लादेश नाम का नया मुल्क अस्तित्व में आया. इसके बावजूद शिमला समझौते से भारत के हाथ कुछ क्यों नहीं आया, यहां जानिए....
नई दिल्लीः साल 1970, याह्या खान, पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे. याह्या खान ने एक ऐसा काम किया जो पाकिस्तान में पहले कभी नहीं हुआ था. उन्होंने इसी साल पाकिस्तान में निष्पक्ष चुनाव करवाया लेकिन इस चुनाव के नतीजों ने पाकिस्तान का नक्शा ही बदल दिया. तब पाकिस्तान भारत के दोनों तरफ था, एक पूर्वी पाकिस्तान जो आज बांग्लादेश है और दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान. इन चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान के नेता शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी को भारी बहुमत से जीत मिली. पश्चिमी पाकिस्तान का सेना और प्रशासन में वर्चस्व था .जुल्फीकार अली भुट्टो सरीखे पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं ने शेख मुजीबुर्ररहमान को सत्ता देने से मना कर दिया और यहीं से भारत-पाकिस्तान रिश्तों ने नया मोड़ ले लिया .
आज के बांग्लादेश में उस समय पश्चिमी पाकिस्तान ने सैनिक दमन और हिंसा की इबारत लिखी. लाखों बांग्लादेशियों को भारत में शरण लेनी पड़ी. मशहूर फोटोग्राफर रघु राय की तस्वीरों ने पूर्वी बंगाल में चल रहे जनसंहार की त्रासदी को अपनी तस्वीरों मे कैद किया है. उनका कहना है “मेरी ऐसी ऐसी तस्वीरें थी कि उनकी आंखों में त्रासदी का दुख बहुत ही ज्यादा था. एक बच्चे की तस्वीर थी, वो रो रहा है, उसकी डीप सेट आंखें थीं, उसकी आंखें आंसुओं से भरी पड़ी हैं लेकिन आंसू गिर नहीं रहे, मुंह खुला हुआ है दुख से, छोटे से बच्चे के माथे पर दर्द की लकीरें थीं” ऐसी स्थिति में भारत ने शेख मुजीबुर्रहमान के आंदोलन को समर्थन दिया वहीं पूर्वी पाकिस्तान में भारत की मदद से सशस्त्र विद्रोही मुक्ति वाहिनी भी सक्रिय थी. आखिरकार पाकिस्तान ने वो गलती की जिसका भारत इंतजार कर रहा था. पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया. 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने औपचारिक तौर पर भारत के खिलाफ युद्ध की शुरुआत की और इसके दो हफ्ते बाद पाकिस्तान अपना आधा मुल्क गंवा बैठा. पाकिस्तान के तकरीबन एक लाख सैनिकों ने लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी के साथ भारत के सामने आत्मसमर्पण किया.
पाकिस्तान युद्ध हार चुका था. सबसे बड़ी बात ये थी कि पूर्वी पाकिस्तान दुनिया के नक्शे से हमेशा के लिए गायब हो गया और बांग्लादेश नाम का नया मुल्क अस्तित्व में आया. मोहम्मद अली जिन्ना ने धर्म के नाम पर जिस ‘टू नेशन थ्योरी’ को रचा था उसका तिलिस्म टूट गया था. पाकिस्तान के आत्मसमर्पण के सिर्फ चार दिन बाद जनरल याह्या खान ने इस्तीफा दे दिया और जुल्फिकार अली भुट्टो को पाकिस्तान का राष्ट्रपति बना दिया गया. ये वही जुल्फिकार अली भुट्टो थे जिन्होंने 1963 में शांति वार्ता के दौरान भारत को कहा था कि आप एक हारे हुए मुल्क हैं और अब इसी जुल्फिकार अली भुट्टो को भारत से लड़ाई में गंवाई पांच हजार वर्ग मील जमीन और लगभग एक लाख पाकिस्तानी सैनिकों को बख्शने की गुहार लगानी थी.
भारत ने एक निर्णायक जीत हासिल की थी और उसके 6 महीने बाद पाकिस्तान के प्रेसीडेंट जुल्फिकार अली भुट्टो भारत आ रहे थे. इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिखर सम्मेलन शिमला में 28 जून से 2 जुलाई 1972 तक होना तय हुआ. इस सम्मेलन में पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे पर बातचीत करने से आना-कानी कर रहा था. पाकिस्तान चाहता था कि पहले युद्धबंदी और भारत के कब्जे में आई उसकी जमीन पर बातचीत हो जबकि भारत के लिए ये जरूरी था कि कश्मीर मुद्दे में पाकिस्तान की दखलअंदाजी हमेशा के लिए बंद हो और इस मसले पर शिखर सम्मेलन में फैसला हो जाए.
शिमला में इंदिरा गांधी बेहतरीन मेजबान की भूमिका में थीं वहीं दूसरी तरफ जुल्फिकार अली भुट्टो एक हारे हुए मुल्क के नेता का किरदार निभाने के लिए खुद को तैयार कर रहे थे. यही किरदार जुल्फिकार अली भुट्टो को वो सफलता दिलवाने वाला था जो पाकिस्तान को युद्ध के मैदान में कभी हासिल नहीं हुई . भुट्टो के साथ उनकी बेटी बेनजीर भी भारत आ रहीं थी. भारत पहुंचने से पहले भुट्टो ने बेनजीर को हिदायत दी. भुट्टो ने अपनी बेटी से कहा “तुम्हें शिमला में बिल्कुल नहीं हंसना है, ये संकेत बिल्कुल नहीं जाना चाहिए कि हमारे सैनिक भारत के कब्जे में हैं और तुम मजे में हो. तुम्हें उदास भी नहीं दिखना है. ज्यादा उदास दिखने से लोगों में निराशा फैलेगी”.
भारतीय प्रतिनिधिमंडल के महत्वपूर्ण सदस्य ‘पीएन धर’ ने अपनी किताब ‘इंदिरा गांधी, द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी’ में लिखा है “जुल्फिकार अली भुट्टो को हिमाचल भवन में ठहरना था. मिसिज गांधी हेलिपैड से हिमाचल भवन तक भुट्टो के साथ कार में आईं. रास्ते में लोग अगुवाई के लिए खड़े थे और गुजरने पर तालियां बजाकर स्वागत कर रहे थे. इस स्वागत को देखकर भुट्टो अवाक थे. उन्होंने मिसिज गांधी से पूछा कि क्या लोग मेरा मजाक उड़ा रहे हैं? कोई भी ये आसानी से समझ सकता था कि लोग उनका स्वागत कर रहे हैं ना कि उनका मजाक उड़ा रहे हैं. लेकिन भुट्टो ने ऐसा कहकर इंदिरा गांधी को असहज कर दिया. इंदिरा गांधी को कहना पड़ा कि लोग आपके स्वागत में खड़े हैं”
शिमला में दोनों नेताओं की मुलाकात हुई. जुल्फिकार अली भुटटो ने इंदिरा गांधी से कहा कि “मैंने खुद भारत के साथ रिश्तों के बारे में कड़वे बोल बोले हैं. 1971 की घटना ने साफ कर दिया है कि पाकिस्तान कभी भी कश्मीर को अपनी फौजी ताकत से हासिल नहीं कर सकता. कश्मीर मुझे बहुत परेशां करता है”.
जम्मू- कश्मीर राज्य दो हिस्सों में बंटा हुआ है. एक हिस्सा 1947 की लड़ाई के बाद से पाकिस्तान के कब्जे में है जबकि बाकि का हिस्सा भारत में है. दोनों हिस्सों को बांटने वाली रेखा तब सीज फायर लाइन थी जो 1948 से जम्मू- कश्मीर में भारत- पाकिस्तान को अलग कर रही थी. भारत चाहता था कि इसी सीजफायर लाइन को दोनों देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय बॉर्डर मान लिया जाए. जुल्फिकार अली भुट्टो बार बार ये दुहाई दे रहे थे कि अगर कश्मीर पर इस वक्त कोई बड़ा फैसला हुआ तो पाकिस्तान में उनके राजनीतिक दुश्मन उन्हें नुकसान पहुंचाएंगे.
भारत पाकिस्तान के बीच सबसे अहम शिखर सम्मेलन बेनतीजा जा रहा था. पाकिस्तान प्रतिनिधिमंडल अपना सामान बांधने लगा. जल्द ही शिखर सम्मेलन में असफलता की खबर फैल गई. इस निराशा के माहौल में जुल्फिकार अली भुट्टो ने इंदिरा गांधी से एक बार और मिलने का समय मांगा. इंदिरा गांधी से मिलने से पहले जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी बेटी बेनजीर से मिले और कहा “ मैं एक आखिरी दांव खेलने जा रहा हूं”.ये दांव आखिर था क्या ? ये बात बहुत जल्द साफ हो गई.
जुल्फिकार अली भुट्टो ने इंदिरा गांधी से कहा “कोई भी ऐसा समझौता जिसमें ऐसा लगे कि पाकिस्तान एक हारा हुआ मुल्क है इससे मेरी दिक्कतें बहुत बढ़ जाएंगी. कश्मीर पर कोई भी फैसला करने से ऐसा लगेगा कि पाकिस्तान सरेंडर कर रहा है.भारत विजेता है पाकिस्तान नहीं, इसलिए शांति के लिए जो रियायत देनी है वो आप ही दे सकती हैं”. भुट्टो इंदिरा गांधी से कह रहे थे कि पाकिस्तान एक हारा हुआ मुल्क है और खुद के लिए रियासतें मांग रहे थे. इंदिरा गांधी ने इस आखिरी मुलाकात में कहा “यथास्थिति को ही स्थाई बनाने का हमारा जो सुझाव है उससे मामला सुलझ सकता है. अगर आप सीजफायर लाइन को अंतर्राष्ट्रीय बार्डर मान लेते हैं तो इसका सबसे बड़ा फायदा ये है कि जो जमीन जिसके पास है वो उसके पास ही रहेगी. आबादी को इधर से उधर ट्रांसफर नहीं करना पड़ेगा. लाइन ऑफ कंट्रोल आज भी नस्ली और भाषाई फ्रंटियर तो है ही.
इस मुलाकात में इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के सामने एक बहुत बड़ी पेशकश रखी. इंदिरा गांधी साफ साफ पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर भारत के दावे को छोड़ रही थीं. बशर्ते पाकिस्तान सीजफायर लाइन को अंतर्राष्ट्रीय बार्डर मान ले. भुट्टो ने इंदिरा गांधी के इस प्रस्ताव को मान लिया लेकिन उन्होंने कहा “इस प्रस्ताव को एग्रीमेंट का हि्स्सा हम इस वक्त नहीं बना सकते. जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा कि इस समझौते को एक सरेंडर के तौर पर पाकिस्तान में पेश किया जाएगा. आपकी रजामंदी हो तो सीजफायर लाइन को एक इंटरनेशनल बॉर्डर कि शक्ल देने का काम हम धीरे धीरे कर सकते हैं” यानि भुट्टो कह रहे थे कि सीजफायर लाइन पर सहमति भविष्य में बनेगी.
ये मुलाकात टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. जुल्फिकार अली भुट्टो की इस बात पर इंदिरा गांधी ने रजामंदी दे दी कि कश्मीर मसले को सुलझाने पर उनकी जो बातचीत हुई है उसे समझौते का हिस्सा नहीं बनाया जाए. एग्रीमेंट में कोई सीक्रेट क्लॉज भी नहीं रखा गया. भारत ने समझौते के बाद पाकिस्तान की 5000 वर्ग मील जमीन लौटा दी. जुल्फिकार अली भुट्टो शिमला समझौते के एक साल तक अपने युद्धबंदियों को छुड़वाने की कवायद में लगे रहे.
लेखक और विदेश मंत्रालय के पूर्व अधिकारी अवतार सिंह भसीन का कहना है “कि झगड़ा तो कश्मीर का था. पाकिस्तान की जेब में या कहें जितना कश्मीर उनके पास था वो उतना कश्मीर वापस ले गए, बिना एक इंच सरेंडर किए. इस फैसले से कश्मीर भी नहीं सुलझा, युद्धबंदी तो हमारे पास रह गए, बांग्लादेश को भी अभी पाकिस्तान ने मान्यता नहीं दी थी. एक तरह से शिमला समझौते से हमारे हाथ में कुछ भी नहीं आया .भुट्टो साहब अपना सर उठाकर चले गए क्योंकि कश्मीर पर पाकिस्तान को डर था कि सरेंडर करना पड़ेगा. जुल्फिकार अली भुट्टो ने सरेंडर नहीं किया और वापिस पाकिस्तान जाकर उन्होंने कहा कि मैंने अपना झंड़ा बुलंद रखा है.
1971 में भारत की इतनी बड़ी फौजी जीत के बाद भी कश्मीर समस्या क्यों नहीं सुलझी? इसका एक जवाब शिमला समझौते के दौरान भारत के मुख्य वार्ताकार पीएन धर ने अपनी किताब ‘इंदिरा गांधी, द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी’ में दिया है “विडम्बना है कि ये तथ्य कि पाकिस्तान 1971 में जंग हारा. इस बात को ही उसने बातचीत की मेज पर मनोवैज्ञानिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया. भुट्टो और उसके साथी अजीज अहमद ने बहुत ही सोच समझकर भारतीय प्रतिनिधिमंडल को बचाव की स्थिति में ला दिया. ये सुनने में बहुत अजीब लग सकता है लेकिन भारतीय प्रतिनिधिमंडल इस बात को लेकर बहुत सहज नहीं था कि उसने युद्ध जीता है. भारत के इस रवैये का समझने की मैंने बहुत कोशिश की लेकिन मैं असफल रहा. शायद इसके पीछे इंदिरा गांधी का ये नजरिया था कि शिखर सम्मेलन के दौरान विजेता जैसा बर्ताव करना हमारे लिए अशोभनीय होगा. ये बात हमारे दिमाग में घर कर गई या शायद हम सब का ऐतिहासिक अनुभव युद्ध में हारने का रहा है इसलिए हम लोग जीत का इस्तेमाल ही नहीं कर पाए”.
यानि इतिहास हमें बहुत कुछ सिखाता भी है और बहुत कुछ भूलने के लिए भी तैयार करता है. अब ये देश के नीति निर्धारकों पर निर्भर करता है कि वो कौन सी बात सीख रहे हैं और कूटनीति के मेज पर कौन सी बात भूल रहे हैं.
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