Pranab Mukherjee Death Anniversary: राष्ट्रपति रहते हुए RSS के कार्यक्रम में हुए थे शामिल, अपनी किताब में नेहरू से UPA तक पर किए कई खुलासे
Pranab Mukherjee Death Anniversary: आज (31 अगस्त) प्रणव मुखर्जी की तीसरी पुण्यतिथि है. एक ऐसे नेता जिसने राजनीति में सब कुछ हासिल किया, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी उनसे दूर रही.
Pranab Mukherjee Death Anniversary: भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की आज तीसरी पुण्यतिथि है. कई दिनों तक अस्पताल में बीमार रहने के बाद 31 अगस्त 2020 को उन्होंने आखिरी सांस ली थी. प्रणब मुखर्जी के लिए कहा जाता है कि वे एक ऐसे नेता थे जिनके सभी पार्टियों में अच्छे संबंध थे. उनको राजनीतिक करियर में लगभग सबकुछ मिला सिवाए प्रधानमंत्री पद के.
कहा जाता है 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणब मुखर्जी के लिए माना जा रहा था कि वे ही प्रधानमंत्री का पद संभालेंगे लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था. राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गए. 2004 लोकसभा चुनाव में जीत के बाद एक बार फिर वह कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार माने जा रहे थे, लेकिन पार्टी ने ऐन वक्त पर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री चुन लिया.
प्रणब मुखर्जी की शख्सियत एक कुशल राजनयिक, नीतिशास्त्री और एक कामयाब अर्थशास्त्री की रही है.
कैसा था शुरुआती जीवन
प्रणब मुखर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव मिराटी में 11 दिसंबर 1935 को हुआ था. उन्होंने इतिहास और राजनीति विज्ञान में मास्टर डिग्री की तालीम हासिल की थी. इसके अलावा उन्होंने कानून की पढ़ाई भी की थी. पहले वे एक शिक्षक के तौर पर कॉलेज में पढ़ाते थे और बाद में उन्होंने पत्रकारिता में भी हाथ आजमाए थे.
सियासी सफर
साल 1969 में वे पहली बार वे राज्यसभा के सदस्य बने. इंदिरा गांधी के शासन में उनकी राजनीति का ग्राफ लगातार बढ़ता चला गया लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी की सरकार के दौरान उनकी स्थिति खराब होती गई. फिर उन्होंने नरसिम्हा राव की सरकार में अपनी राजनीति को फिर से पटरी पर खड़ा कर लिया.
‘विवादित’ किताब
साल 2021 में प्रणब मुखर्जी की किताब 'द प्रेसिडेंशियल इयर्स' को उनके देहांत के बाद प्रकाशित किया गया. अपनी किताब में उन्होंने लिखा कि कांग्रेस का अपने करिश्माई नेतृत्व खत्म होने की पहचान नहीं कर पाना ही 2014 आम चुनावों में हार का कारण बनी. किताब में वह आगे कहते हैं कि यूपीए सरकार एक मध्यम स्तर के नेताओं की सरकार बनकर रह गई थी.
किताब के इंट्रोडक्शन में प्रणब मुखर्जी में कहा, 'राष्ट्रपति भवन में मेरे शुरुआती सालों में डॉ. मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा था. मैंने 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की शानदार जीत के बारे में भी लिखा है, लेकिन इसके पहले कार्यकाल के दौरान कुछ क्षेत्रों में उनकी विफलताओं को भी उजागर किया है और सुधारात्मक उपाय सुझाए हैं.'
उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी सलाह लिखी. लिखा कि प्रधानमंत्री को सबकी आवाज सुननी चाहिए. किताब में प्रणब मुखर्जी ने बताया है कि जवाहर लाल नेहरू ने नेपाल को भारत का एक प्रोविन्स बना लिए जाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था.
प्रणब मुखर्जी लिखते है, 'नेपाल के तत्कालीन राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह ने पंडित नेहरू को प्रस्ताव दिया था कि नेपाल को भारत अपना एक प्रोविन्स बना लें मगर पंडित नेहरू ने इस प्रस्ताव को ये कह कर ठुकरा दिया था कि नेपाल एक स्वतंत्र राष्ट्र है और उसे स्वतंत्र राष्ट्र हीं रहना चाहिए.'
किताब के मुताबिक नेहरू का मानना था कि अलग-अलग प्रधानमंत्री विदेश नीति, सुरक्षा और आंतरिक प्रशासनिक मसलों पर अलग-अलग फैसले कर सकते हैं, भले ही वे सब एक ही दल के क्यों न हो. मसलन लाल बहादुर शास्त्री ने कई फैसले नेहरू की सोच से इतर फैसले लिए. प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, अगर इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री होती तो नेपाल में भारत में शामिल किए जाने की पेशकश को कभी नहीं ठुकरातीं.'
इससे पहले भी अपनी राजनीति पर उन्होंने तीन किताबें लिखी है. द कोएलिशन इयर्स” (2017), “द टर्बुलेंट इयर्स” (2016) और “द ड्रामेटिक डिकेड” (2014) में प्रणब मुखर्जी ने अपनी व्यापक राजनीतिक यात्रा और अनुभवों को साझा किया है.
RSS के मंच से दिया था भाषण
7 जून 2018 को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में आरएसएस मुख्यालय में एक जोरदार भाषण दिया था. इस दौरान उन्होंने देश को संदेश देने की कोशिश की था कि विविधता में एकता ही भारत की असली पहचान है.
RSS के मंच पर जाने और भाषण देने पर तब कई सवाल उठे थे, यहां तक कि उनकी बेटी शमिष्ठा मुखर्जी भी ने उनके इस फैसले पर सवाल उठाए थे. लेकिन भाषण के बाद ये संदेश दिया था कि उन्होंने मंच बदले हैं तेवर वही है.
आरएसएस के नागपुर मंच से उन्होंने कहा, 'भारत की राष्ट्रीयता एक भाषा और एक धर्म में नहीं है. हम वसुधैव कुटुंबकम् में यकीन करने वाले लोग हैं. भारत में 7 बड़े धर्म को मानने वाले लोग है. लेकिन ये सारे लोग एक व्यवस्था, एक झंडा और एक ही भारतीय पहचान की नीचे रहते हैं. नफरत और असहिष्णुता की वजह से हमारी राष्ट्रीय पहचान खतरे में आ जाएगी.'
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