प्रधानमंत्री मोदी ने इटली की पीएम जॉर्जिया को दिया दुपट्टा, जिसके बारे में हो रही है चर्चा
तोहफे दिलों को करीब लाते हैं.आपसी रिश्तों को मजबूत करने में इनका इस्तेमाल नया नहीं है और भारत के पीएम नरेंद्र मोदी ने इसे बखूबी समझा है. यही वजह रही कि जी 20 सम्मेलन में उनके तोहफे छाए रहे.
भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में तोहफे देने का प्रचलन पुराना है. इन्हें लेकर हिंदी सिनेमा में "तोहफा तो बस एक नाम है दिल के मेरा पैगाम है..." जैसे गीत लिखे जाते रहे हैं. प्यार जताने का, अपनापन निभाने का और रिश्तों में गर्मजोशी लाने में एक छोटा सा तोहफा क्या कमाल करता है इससे हर कोई वाकिफ है. यही वजह है कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडोनेशिया के बाली द्वीप में जी-20 शिखर सम्मेलन में इनकी अहमियत को समझा.
पीएम ने इस मंच पर मौजूद वैश्विक नेताओं को भारत की सांस्कृतिक विरासत को समेटे हुए गुजरात और हिमाचल प्रदेश की पारंपरिक कलाकृतियों वाले तोहफे दिए. पीएम ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को कांगड़ा मिनिएचर पेंटिंग दी, तो ब्रिटेन के पीएम ऋषि सुनक को गुजरात का हाथ से बना 'माता नी पछेड़ी दिया.
ऑस्ट्रेलियाई पीएम एंथोनी अल्बानीस को उन्होंने छोटा उदयपुर की एक आदिवासी लोक कला पिथौरा के तोहफे से नवाजा. फ्रांस, जर्मनी और सिंगापुर के नेताओं को कच्छ के सुलेमानी कटोरे दिए. अपनी इतालवी समकक्ष जियोर्जिया मेलोनी को एक 'पाटन पटोला' दुपट्टा तोहफे में दिया. पीएम के दिए इन सभी तोहफों में इटली की प्रधानमंत्री को दिए पाटन पटोला दुपट्टा की सबसे अधिक चर्चा हो रही है. आखिर ऐसा खास क्या है पाटन पटोला में जो सबका ध्यान खींच रहा है.
इटली की पीएम को मिला पटोला नहीं आम
जी-20 शिखर सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी ने अपनी समकक्ष इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी को पटोला पाटन का जो दुपट्टा तोहफे में दिया वो कोई मामूली तोहफा नहीं है. इस दुपट्टे को सूरत के लकड़ी के शिल्प सादेली के बॉक्स में रखकर दिया गया. अधिकारियों ने कहा कि मेलोनी के दुपट्टे पर बुने हुए मोटिफ 11 वीं शताब्दी ईस्वी में पाटन में बनाई गई रानी की वाव यानी एक बावड़ी से प्रेरित है.
पीएम के गृह प्रदेश में पाटन पटोला केवल एक फैब्रिक नहीं बल्कि इसे देना इज्जत देने का तरीका भी है. ये गुजरात की एक प्राचीन कला है. गुजरात में इसे पहनना और रखना गर्व की बात मानी जाती है. इसकी कीमत इतनी होती है कि आम लोगों की पहुंच से ये कपड़ा बाहर ही रहता है.
गुजरात के लोकगीतों में भी पाटन पटोला की खासियतों के स्वर गूंजते हैं. पटोला साड़ी का इतिहास 900 साल पुराना है. कहा जाता है कि रामायण पुराण में इसका वर्णन मिलता है. इसके अलावा यह भी मान्यता है कि अजंता एलोरा की गुफाओं की कलाकृतियों ने जो कपड़े पहने हुए हैं उनमें से कुछ पाटन वस्त्र में दिखते हैं. गुजरात के पाटन में बनने वाली यह साड़ी अपने आप में एक अनोखी चित्रकला है भारत के इतिहास में इस हस्तकला को उल्लेखनीय माना जाता है.
PM Narendra Modi gifts 'Patan Patola Dupatta' (scarf) to Italian PM Giorgia Meloni
— ANI (@ANI) November 16, 2022
The (Double Ikat) Patan Patola textile woven by Salvi family in Patan area of Northern Gujarat is so well crafted that it becomes a feast of colours, with front & reverse being indistinguishable. pic.twitter.com/fiaEOYJ6V1
ऐसे रंगे जाते हैं पटोला के ताने-बाने
डबल इकत यानी रंगाई की तकनीक वाली पटोला की प्राचीन कला 11वीं शताब्दी की है. शुद्ध रेशम से बने पटोला कपड़ों में दोनों तरफ रंगों और डिजाइन की समान गहनता होती है. बुनाई से पहले ताने और बाने पर अलग-अलग गांठ की रंगाई की एक जटिल और कठिन तकनीक से ये पाटन पटोला तैयार होता है. इसे 'बंधनी' कहा जाता है.
इसकी बुनाई की यही खासियत इसे कपड़ों में उम्दा बनाती है. गुजरात के पाटन शहर में ये तैयार होता है इसलिए इसे पटोला कहा जाता है. पटोला शीशम और बांस की पट्टियों से बने पुराने हाथ से चलने वाले लकड़ी के करघे पर बुना जाता है. करघा तिरछा होता है. अन्य आम तौर पर पहना जाने वाला पटोला राजकोट पटोला है, जो एक सपाट करघे पर बुना जाता है.
इसकी बुनाई में ताने और बाने में रेशम के धागे होते हैं. ये बनाए जाने वाले डिजाइन के संग मार्क किए भागों पर सूती धागे से बंधे होते हैं. यह बंधा हुआ भाग तब रंगाई करते समय रंगों के संपर्क में नहीं आता है. इन्हीं भागों को बाद में अलग-अलग रंगों में बांधना, खोलना, दोबारा से रंगना होता है.
कपड़े पर एकल और प्राथमिक रंग एक के बाद एक लगाए जाते हैं तो मिश्रित रंग ओवरलैपिंग के जरिए कपड़े पर लाए जाते हैं. इस तरह की रंगाई डिज़ाइन को खास बनाती है.इसमें बहुत मेहनत और वक्त तो लगता ही है. इसके साथ ही इस काम के लिए बेहद कुशल और निपुण कारीगरों की जरूरत होती है.
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इंडोनेशिया जाता था पटोला पाटन
अब वहां इसे बनाने वाला इकलौता साल्वी कुनबा है जो 900 साल पुरानी इस हस्तकला को जिंदा रखे हुए है. इस कुनबे के 4 औरतों सहित पूरे 9 सदस्यों के परिवार में सबसे बुजुर्ग 70 साल के रोहित से लेकर सबसे छोटे 37 साल के सावन तक पटोला पाटन की बुनाई करते हैं. साल्वी परिवार के मुताबिक दूसरे विश्व युद्ध से पहले इंडोनेशिया पटोला पाटन का अहम खरीदार था.
इस साड़ी को मलेशिया, थाईलैंड में काफी महत्व दिया जाता है वहां के लोग पटोला साड़ी को भारत से आयात करते थे. कहा जाता है कि सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल ने महाराष्ट्र जालना के पटोला बुनकरों के लगभग 700 परिवारों को उत्तर गुजरात के पाटन में बसने के लिए बुलाया था. साल्वी परिवार उन्हीं में से एक है. इस परिवार को उनकी कला के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है. ये परिवार कहता है कि पटोला पाटन के कपड़े बनाने में काफी मेहनत और महारत की जरूरत होती है.
(अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को दी गई कांगड़ा मिनिएचर पेंटिंग)
6 गज की साड़ी और 50 दिन
पटोला पाटन 6 गज की एक साड़ी के लिए ताने और बाने के धागों पर टाई-डाइड डिज़ाइन तैयार करने में 3 से 4 महीने लगते हैं. इसके लिए दो जुलाहे एक साथ काम करते हुए एक दिन में लगभग 8 से 9 इंच की बुनाई करते हैं. 4-5 लोगों के बिनाई के काम पर लगने के बाद भी एक साड़ी की बुनाई में 40 से 50 दिन लगते हैं.
बिनाई में लगने वाला वक्त डिजाइन की पेचीदगी पर भी निर्भर करता है. परंपरागत रूप से, केवल शुद्ध रेशम और प्राकृतिक और रासायनिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन अब तेजी से ब्लीच करने वाले और आसानी से रंगने वाले रासायनिक रंगों का इस्तेमाल भी होने लगा है. बीते 20 साल में, पुरानी स्वदेशी प्रक्रिया के पुनर्विकास के लिए प्रयोग किए जा रहे हैं.
पटोला पाटन की बिनाई करने वाले साल्वी परिवार के मुताबिक पटोला पाटन के कपड़े के डिजाइन "भात" नाम के पारंपरिक रूपांकनों पर आधारित हैं. इनमें "नारीकुंज", "पान", "फुलवाड़ी", "रसभात", फूल, पशु पक्षी, मानव आकृतियां शामिल होती हैं.
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महंगे तोहफों में रहा शुमार
पटोला पाटन के बिनाई करने वाले साल्वी परिवार कि माने तो 1342 ई. में यात्री इब्न बतूता कई राजाओं के लिए तोहफे के तौर पर पटोला ले गया था. 17वीं और 18वीं शताब्दी में बहुमूल्य तोहफों के तौर पर इनका बहुतायत से इस्तेमाल किया जाता था. गुजरात में एक लोकप्रिय लोक गीत एक पत्नी के बारे में है जो अपने पति से पाटन पटोला मांगती है.
वह कहती है, “छैला जी रे, मारे हाटु पाटन थी पटोला मोंगहा लावजो”. इसका मतलब है कि पाटन से मुझे एक महंगा पटोला लाओ.' पाटन बुनाई में एक पटोला साड़ी का बेस प्राइस 1.5 लाख रुपये से शुरू होता है और 6 लाख रुपये तक जा सकता है. डिजाइन की जटिलता के आधार पर एक सामान्य 46 इंच का दुपट्टा या दुपट्टा 80,000 रुपये की रेंज में बिकता है.
(हिमाचल का किन्नौरी शाल )
राजकोट और पाटन पटोला
राजकोट पटोला साड़ी 70,000 रुपये से शुरू होती है और 1.25 लाख रुपये तक जाती है. पटोला पाटन और राजकोट पटोला में ये अंतर है कि राजकोट में रासायनिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है. वहीं पाटन वनस्पति के रंग इस्तेमाल में लाए जाते हैं. राजकोट के पटोला का वजन 600 ग्राम से अधिक होता है, जबकि पाटन के पटोला का वजन 500 ग्राम से कम होता है.
एक और अंतर यह है कि पाटन पटोलाओं में मोटिफ तीखे होते हैं, जबकि राजकोट वाले धुंधले होते हैं. इकत की बुनाई ओडिशा की प्रसिद्ध संबलपुरी साड़ियों में भी मिलती है, लेकिन ये साड़ी सूती धागे में भी बुनी जाती हैं. आंध्र प्रदेश की पोचमपल्ली साड़ी इसी तरह की होती है.
(G-20 शिखर सम्मेलन में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन को दिया अकीक का कटोरा )
बाइडेन को प्रेम पगी पेंटिंग फ्रांस को सुलेमानी कटोरे
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को दी गई कांगड़ा मिनिएचर पेंटिंग प्रेम भक्ति की थीम पर बनी है. जी-20 के मेजबान देश इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो को दिया गया तोहफा हिमाचल का किन्नौरी शाल है. इस शाल पर सेट्रल एशिया और तिब्बत के प्रभाव वाला डिजाइन है. विडोडो को सूरत से चांदी का कटोरा भी तोहफे में दिया गया.
कच्छ के अकीक यानी सुलेमानी पत्थर के कटोरे फ्रांस, जर्मनी और सिंगापुर के नेताओं को तोहफे में दिए गए. ये कटोरे राजपीपला और रतनपुर की भूमिगत खदानों में पाए जाने वाले कम कीमती पत्थर से बने हैं. ये पत्थर सजावटी वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए निकाला जाता है. स्पेन के प्रधानमंत्री पेड्रो को प्रधानमंत्री मोदी ने मंडी और कुल्लू से कनाल पीतल का सेट तोहफे में दिया.
(ब्रिटेन के पीएम ऋषि सुनक को तोहफे में दिया गया माता नी पछेड़ी )
पीएम मोदी ने अपने ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष एंथनी अल्बनीज को एक आदिवासी कला कृति पिथौरा दी. ये पिथौरा पेंटिंग गुजरात के छोटा उदयपुर राठवा कारीगरों की बनाई जाने वाली परंपरागत जनजातीय लोक कला है. ये कला गुफा चित्रों पर आधारित हैं जिनका इस्तेमाल आदिवासी लोग करते थे. इसमें उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और पौराणिक जीवन और मान्यताओं की झलक मिलती है. ये पेंटिंग ऑस्ट्रेलिया के स्वदेशी समुदायों की आदिवासी डॉट पेंटिंग जैसी है.
ब्रिटेन के पीएम ऋषि सुनक अहमदाबाद में बना माता नी पछेड़ी कपड़ा पीएम मोदी ने तोहफे में दिया. ये खास कपड़ा देवी मां के मंदिरों में चढ़ाया जाता है.3,000 वर्ष से अधिक पुरानी इस कला में देवी के अलग रूपों बनाए जाते हैं. इस कला के लिए ट्रेनिंग 11 साल की से लेकर दशकों तक चलती है. इनके तोहफों के जरिए पीएम मोदी ने दुनिया में प्यार और अपनेपन का संदेश भेजने की कोशिश की है. एक तरह से देखा जाए तो इसे वैश्विक स्तर पर देश की हस्तकला और लोककलाओं को पहचान दिलाने की पहल की तरह भी लिया जा सकता है.
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