प्रियंका गांधी नहीं मनातीं तो शायद आज पॉलिटिक्स में न होते सोनिया और राहुल, पढ़ें 1991 से अब तक का राजनीतिक सफर
छह साल के अंदर-अंदर मां, बेटे और बेटी ने मिलकर तय कर लिया कि अब वो राजनीति में आएंगे और 1997 में सोनिया गांधी ने लोकसभा चुनाव में उतरने का ऐलान कर दिया. इस सब में सबसे अहम भूमिका प्रियंका गांधी की थी.
'ये नेता सोचते क्या हैं. कि हमें भी अपने जीवन का बलिदान देना होगा.' राजीव गांधी की मौत के बाद अमेठी में होने जा रहे चुनाव की बातचीत के दौरान कही गई ये लाइन प्रियंका गांधी वाड्रा की हैं, जो तब सिर्फ प्रियंका गांधी थीं. ये लाइन शायद प्रियंका गांधी की भारतीय राजनीति पर की गई पहली टिप्पणी है, जो उन्होंने 19 साल की उम्र में साल 1991 में की थी. इस बात को बीते करीब 33 साल हो गए हैं. इन 33 साल में प्रियंका गांधी न सिर्फ प्रियंका गांधी वाड्रा हो गई हैं बल्कि वो कांग्रेस की महासचिव भी हो गई हैं और अब अपने जीवन का पहला चुनाव लड़ने के लिए भी तैयार हो गई हैं.
1991 और 2024 की प्रियंका गांधी की राजनैतिक टिप्पणी में जमीन-आसमान का अंतर है. ये वो अंतर है जो न सिर्फ प्रियंका गांधी ने पैदा किया है बल्कि उनसे पहले सोनिया गांधी और उनके बाद राहुल गांधी में भी वही अंतर रहा है. ये वही प्रियंका गांधी हैं, जो 1991 में राजनीति से मां को दूर रखना चाहती थीं और ये वही प्रियंका गांधी हैं, जिनकी एक बात ने पहले सोनिया और फिर राहुल गांधी को भी राजनीति में आने पर मजबूर कर दिया और अब आखिर में वही प्रियंका गांधी खुद भी राजनीति में उतरने को पूरी तरह से तैयार हैं.
पॉलिटिक्स में नहीं आना चाहती थीं सोनिया गांधी
राजीव गांधी की मौत के बाद तमाम कांग्रेसी नेताओं ने कोशिश की कि पार्टी की कमान सोनिया गांधी संभालें, लेकिन सोनिया लगातार इनकार करती रहीं. राहुल और प्रियंका से तो कोई पूछ भी नहीं रहा था. तो सोनिया के कहने पर ही नरसिम्हा राव बीच में आए.
कांग्रेस के प्रधानमंत्री बने और गांधी परिवार फिर से नेपथ्य में चला गया. सोनिया गांधी ने राजीव गांधी फाउंडेशन का काम संभाला. पूरे देश की यात्रा करती रहीं. राहुल गांधी विदेश में थे और प्रियंका दिल्ली में, लेकिन ये सब ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाया क्योंकि राजीव गांधी फाउंडेशन का काम करते हुए भी सोनिया परेशान थीं कि उनके पति के हत्यारों को अब तक सजा नहीं हुई.
जब राजीव गांधी की मौत के बाद अमेठी पहुंचे सोनिया और प्रियंका
करीब चार साल का वक्त बीता. राजीव गांधी का जन्मदिन आ रहा था 20 अगस्त. 1995 का साल और सोनिया गांधी पहुंच गईं अमेठी. वहां, जहां से उनके पति सांसद हुआ करते थे. जेवियर मोरो अपनी किताब द रेड साड़ी में लिखते हैं कि सार्वजनिक तौर पर पहली बार बोलने को तैयार सोनिया गांधी की झलक पाने के लिए हजारों लोग इकट्ठे थे.
लोग चिल्ला रहे थे, सोनिया देश को बचा लो और सधे हुए कदमों से सोनिया जब मंच पर चढ़ीं तो उनका सर पल्लू से ढका हुआ था. थोड़ी घबराई हुई सोनिया, लेकिन वो अकेले नहीं थीं जो मंच पर चढ़ रही थीं. उनके साथ उनकी बेटी थी प्रियंका गांधी. मां के विपरीत पूरे आत्मविश्वास के साथ हाथ उठाकर भीड़ का इस्तकबाल करतीं प्रियंका गांधी. उन्होंने मां सोनिया से कहा-
'मां, देखिए कितने लोग हैं. आपको नहीं लगता कि आपको भी हाथ उठाकर उनका अभिवादन करना चाहिए.'
मां ने बेटी की बात सुनी. हाथ उठाया और जवाब में हजारों हाथ उठ गए, जिसने सोनिया को आत्मविश्वास से भर दिया. सोनिया पहली बार बोलीं और हिंदी में बोलीं. उसी हिंदी में जो उन्हें आती थी. उन्होंने कहा-
'अगर एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की सजा में इतना वक्त लग रहा है तो आम आदमी का क्या होगा. मुझे क्या महसूस हो रहा है, आप लोग अच्छी तरह से जानते हैं.'
इसके बाद भी कई बातें हुईं, लेकिन सब व्यक्तिगत. कुछ भी राजनीतिक नहीं, लेकिन सोनिया के बोलने का मतलब ही राजनीति था. तो भाषण खत्म होने के बाद सोनिया जब कार में बैठने को हुईं तो एक पत्रकार ने सवाल पूछ लिया.
'क्या आपका भाषण गांधी परिवार की विरासत का भारतीय राजनीति में वापसी का संकेत है?'
सोनिया ने जवाब दिया-
'नहीं, मेरी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है.'
लेकिन खबरनवीसों को मसाला मिल चुका था. अगले दिन अखबार में सोनिया गांधी की हाथ उठाए तस्वीर छपी. साथ में थीं प्रियंका गांधी. देश सोनिया गांधी को एक गृहिणी से एक नेता में तब्दील होता हुआ देख रहा था. इन सबसे बेखबर सोनिया फिर से अपने काम में जुट गईं. राजीव गांधी फाउंडेशन के काम में. इस बीच साल आया 1996. लोकसभा के चुनाव हुए. कांग्रेस 140 सीटों पर सिमट गई. नरसिम्हा राव ने इस्तीफा दे दिया. प्रधानमंत्री पद से भी और कांग्रेस के अध्यक्ष पद से भी. सीताराम केसरी नए अध्यक्ष बने. एक बार फिर सोनिया गांधी पर दबाव बढ़ा कि वो आगे आएं. पार्टी को संभालें और सोनिया ने पुराना राग दोहरा दिया कि उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है.
यहीं पर फिर से एंट्री होती है प्रियंका गांधी की, जिन्हें तब भी राजनीति की उतनी ही समझ थी जितनी आज है. सोनिया गांधी के पास से कांग्रेस नेताओं के जाने के बाद प्रियंका ने अपनी मां से कहा-
'कुछ तो करना होगा. नहीं तो विपक्ष वो सब खत्म कर देगा जो हमारे परिवार ने हासिल किया है.'
तब सोनिया ने कुछ भी नहीं कहा. फिर राजीव गांधी के पुराने दोस्त अमिताभ बच्चन सोनिया से मिलने आए. प्रियंका भी मौजूद थीं. सोनिया ने अमिताभ से कहा-
'अगर कांग्रेस पार्टी विफल होती है तो क्या मैं नेहरूजी, इंदिरा जी और राजीव को विफल नहीं कर रही हूं.'
अमिताभ ने कहा-
'अभी के नेताओं से उनकी तुलना मत करिए. ये चाटुकारों का एक समूह है, जो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए आपके परिवार की ताकत का इस्तेमाल करना चाहता है. उन्हें रास्ता मत दीजिए.'
सोनिया ने अमिताभ को जवाब दिया-
'बिल्कुल. आप ठीक कह रहे हैं.'
लेकिन तब प्रियंका गांधी अमिताभ की बात से सहमत नहीं हुईं. मां से कहा-
'हम लोग देश को यूं ही गर्त में गिरने दे रहे हैं और कुछ भी नहीं कर रहे हैं.'
सोनिया ने जवाब दिया-
'तुम्हें नहीं लगता कि इस परिवार ने देश के लिए पहले ही बहुत कुछ कर दिया है.'
ये बात यहीं पर खत्म हो गई, लेकिन चंद महीने बीतते-बीतते राजीव गांधी के एक और दोस्त और कांग्रेस पार्टी के नेता दिग्विजय सिंह सोनिया गांधी से मिलने पहुंचे. उन्होंने भी सोनिया गांधी से यही कहा कि आप या आपके बच्चे पार्टी संभालें, क्योंकि सीताराम केसरी के नेतृत्व में कांग्रेस 100 सीटों पर सिमट जाएगी. तब सोनिया ने दिग्विजय सिंह को ही पार्टी का अध्यक्ष बनने का सुझाव दे दिया और इस तरह से बात आगे नहीं बढ़ पाई. सोनिया अपने पुराने स्टैंड पर कायम रहीं, लेकिन प्रियंका का राजनीति को लेकर स्टैंड बदल चुका था.
बाद में एक दिन नाश्ते की टेबल पर सोनिया और प्रियंका आपस में बातें कर रहीं थीं. अमेरिका से पढ़ाई पूरी कर लंदन में एक फाइनेंस कंपनी में काम करने वाले राहुल गांधी भी टेबल पर मौजूद थे. तब सोनिया ने अपने बच्चों से कहा-
'जब मैं अतीत में देखती हूं तो मुझे लगता है कि नेहरूजी, इंदिराजी और राजीव मुझे देख रहे हैं और मुझसे कुछ चाहते हैं.' और छुट्टियों में तो प्रियंका गांधी बोल पड़ीं.
'मां. वो लोग कुछ चाहते हैं. मेरे साथ भी ऐसा ही होता है और मुझे तब शर्मिंदगी होती है कि जब सब कुछ टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर रहा है तो मैं कुछ भी नहीं कर पा रही हूं. दादी क्या कहतीं. मुझे पता है कि उन्हें ये सब अच्छा नहीं लगता. हमें पार्टी को टूटने से बचाना चाहिए.'
तब राहुल गांधी ने बहन प्रियंका से पूछा-
'और ये सब होगा कैसे?'
प्रियंका ने जवाब दिया-
'आने वाले चुनाव में कांग्रेस का प्रचार करके.'
तब राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका को समझाया कि इस पचड़े में मत पड़ो, लेकिन प्रियंका गांधी मां सोनिया गांधी को मनाने में कामयाब हो गईं. हालांकि, सोनिया ने साफ कर दिया कि वो सिर्फ पार्टी का प्रचार करेंगी और सरकार बनने पर कोई भी पद नहीं लेंगी. उन्होंने प्रियंका से पूछा कि क्या तुम मेरी मदद करोगी. प्रियंका ने कहा हां, जरूर.
राहुल गांधी के लिए मां और बहन के इस फैसले को मानना मुश्किल था, लेकिन फैसला हो चुका था. तो राहुल ने मां का हौसला बढ़ाने के लिए कहा-
'मां मैं नोकरी छोड़कर आ जाऊंगा और हर रैली में आपके साथ प्रचार करूंगा.'
मां, बेटा और बेटी ने पॉलिटिक्स में आने का फैसला कर लिया
मां, बेटे और बेटी, तीन लोगों ने मिलकर ये फैसला लिया था कि वो राजनीति में कभी नहीं जाएंगे. छह साल के अंदर-अंदर मां, बेटे और बेटी ने मिलकर तय कर लिया कि अब वो राजनीति में आएंगे और इसमें सबसे बड़ी भूमिका प्रियंका गांधी की थी. परिवार ने दिग्विजय सिंह को बुलाकर फैसला सुनाया और फिर 28 दिसंबर 1997 को सोनिया गांधी ने सार्वजनिक तौर पर ऐलान किया कि वो आने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की प्रत्याशी होंगी. सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बनीं और फिर सांसद. उसके बाद जो हुआ वो इतिहास में दर्ज है.
लेकिन सोनिया गांधी को इतिहास में दर्ज करवाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका प्रियंका गांधी की ही थी, जिन्होंने अपनी दलीलों से सोनिया को राजनीति में आने के लिए मना ही लिया. 1999 में जब सोनिया गांधी अमेठी और बेल्लारी दोनों ही जगहों से लोकसभा चुनाव लड़ रही थीं तो उनके प्रचार की कमान खुद प्रियंका ने ही संभाली. दोनों जगहों से चुनाव जितवाया. मां सोनिया संसद पहुंच गईं और प्रियंका गांधी वाड्रा नेपथ्य में.
वो तब सामने आईं जब 2004 का लोकसभा चुनाव सामने आया. मां सोनिया रायबरेली से चुनाव लड़ रहीं थीं. भाई राहुल बगल की अमेठी सीट से अपना पॉलिटिकल डेब्यू कर रहे थे. तो दोनों ही सीटों की कमान खुद प्रियंका ने संभाल ली. गांव-गांव, गली-गली, घर-घर जाकर प्रचार किया. मां चुनाव जीतीं, भाई चुनाव जीता, पूरी कांग्रेस पार्टी चुनाव जीती और सरकार बन गई. प्रियंका फिर नेपथ्य में. मां-भाई संसद में.
प्रियंका फिर निकलीं 2009 में क्योंकि फिर से चुनाव थे. चुनाव दर चुनाव प्रियंका गांधी वाड्रा परिवार के लिए अमेठी-रायबरेली की गलियां-गलियां घूमती रहीं. चुनाव जिताती रहीं. सिलसिला 2014 तक चला, लेकिन 2017 में पर्दे के पीछे से पार्टी के लिए रणनीति बनाई. साल 2019 में लोकसभा चुनाव से एक महीने पहले वह कांग्रेस में आधिकारिक तौर पर शामिल हुईं. यूपी में उन्होंने बतौर महासचिव पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान संभाली और उस चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई. 2019 में भाई के लिए अमेठी में कैंपेन किया, लेकिन भाई की हार को बचा नहीं सकीं.
अब 2024 में जब भाई ने रायबरेली और वायनाड दोनों ही सीट जीत लीं. तो वायनाड की सीट बहन के लिए छोड़ दी और अब प्रियंका गांधी वाड्रा वायनाड की सीट से कांग्रेस की उम्मीदवार हैं. याद रखिए. ये वही प्रियंका हैं, जिन्होंने अपने पिता की मौत के बाद नेताओं पर तंज कसते हुए कहा था कि ये नेता सोचते क्या हैं कि हमें भी अपने जीवन का बलिदान देना होगा. ये वहीं प्रियंका हैं, जिन्होंने भाई राहुल गांधी के विरोध के बावजूद मां सोनिया को राजनीति में आने के लिए मनाया. ये वही प्रियंका हैं जो पिछले 29 साल से सोनिया गांधी के साथ मंच दर मंच हाथ हिलाते अपनी सियासी जमीन को खाद पानी देती आई हैं. अब ये वही प्रियंका हैं, जिन्हें खुद के लिए वायनाड के लोगों से वोट मांगना है.
तो प्रियंका गांधी वाड्रा की असली परीक्षा अब शुरू होगी क्योंकि अभी तक की प्रियंका की पूरी राजनीति के करियर में 18 साल परिवार के इर्द-गिर्द और उसके अगले सात साल परिवार और पार्टी दोनों के इर्द-गिर्द गुजरे हैं. अब उन्हें जो राजनीति करनी है, वो अपने लिए करनी है ताकि जमीन मजबूत हो सके. बाकी तथ्य तो यही है कि राहुल गांधी ने रायबरेली की पारिवारिक विरासत को अपने पास रखकर पार्टी को, लोगों को और प्रियंका गांधी को भी ये मैसेज दे दिया है कि कांग्रेस में नंबर वन कौन है और नंबर दो कौन.
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