(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
Qurratulain Hyder Death Anniversary: औरत का संघर्ष, बंटवारे का दर्द या फिर सांप्रदायिक सौहार्द्र... क़ुर्रतुल ऐन हैदर की लेखनी में सबकुछ है
20 जनवरी, 1927 को अलीगढ़ में पैदा हुईं क़ुर्रतुल ऐन हैदर यानी ऐनी आपा का पूरा नाम मुसन्निफ़ा क़ुर्रतुल ऐन हैदर था.
उर्दू अदब की दुनिया में कई मोहतरम नाम हैं जो तब तक रौशन रहेंगे जब तक ये दुनिया रहेगी. इन्हीं नामों में एक नाम है फ़िक्शननिगार क़ुर्रतुल ऐन हैदर. साहित्य का हर दौर किसी न किसी शख्स की लेखनी से जाना पहचाना जाता है. उर्दू अदब में मंटो, चंदर, बेदी, इस्मत के बाद का जो दौर है वो क़ुर्रतुल ऐन हैदर के नाम से जाना जाता है. सन्तोष और सब्र की दौलत से मालामाल अदीब इस बात की परवाह नहीं करते कि ज़माना उनको कितना याद रखता है वो तो बस अपना लिखना जारी रखते हैं और अपनी लेखनी में जमाने को शामिल करते चले जाते हैं. ऐसे ही क़ुर्रतुल ऐन हैदर भी रही हैं. जैसे हवा चलती रहती है...दरियाएं बहती रहती हैं वैसे ही अदीब लिखते रहते हैं और यही काम किया क़ुर्रतुल ऐन हैदर ने भी. क़ुर्रतुल ऐन हैदर की किताबों में रूमानियत, जज़्बातियत, बंटवारे और अपने देश से निर्वासन का दर्द दिखाई देती है. उनकी तमाम तख़्लीकात में एक प्रमाणिकता है.
जब तमाम शहर सन्नाटे की दबीज चादर ओढ़े सोता हुआ मालूम हो. जब लगे कि खामोशी ने शहर के इर्द गिर्द हिसार कायम कर रखा है. जब सड़कों पर एक्का दुक्का ट्रक या कार की रौशनी जंगल में जलाई गई टॉर्च की तरह दिखाई दे, जब उदासी की खामोशी शहर की फज़ा में रक्स करने लगे तो समझ लीजिए आप क़ुर्रतुल ऐन हैदर की किसी उन्यास के गुजर रहे हैं.
20 जनवरी, 1927 को अलीगढ़ में पैदा हुईं क़ुर्रतुल ऐन हैदर यानी ऐनी आपा का पूरा नाम मुसन्निफ़ा क़ुर्रतुल ऐन हैदर था. उनके वालिद सज्जाद हैदर यलदरम, तो उर्दू के नामवर मुसन्निफ़ थे ही, अम्मी ‘नजर’ बिन्ते-बाकिर भी उर्दू की बड़ी अदीब थीं. उनकी अम्मी का लेखन में यह रुतबा था कि उन्हें उर्दू की ‘जेन ऑस्टिन’ कहा जाता था. कुर्रतुल ऐन हैदर ने एमए तक की पढ़ाई लखनऊ में, फिर आगे की एक बड़ी डिग्री लन्दन के हीदरलेस आर्ट्स स्कूल से ली.
इसके बाद पिता का इंतकाल हुआ और इधर मुल्क़ का बंटवारा. उन्होंने पाकिस्तान जाने का फैसला किया. वहां जी नहीं लगा तो वह लंदन चली गयीं. बीबीसी लंदन के लिए उन्होंने फ्रीलांस राइटिंग, जर्नलिज्म की. लगभग 10 साल वहां रहने के बाद वो अपने वतन भारत लौटीं. यहां फिर बतौर पत्रकार काम किया. इस दौरान वो साहित्य में लगातार अपना योगदान देती रहीं.
उन्होंने छह साल की उम्र में अपनी पहली कहानी-‘बी चुहिया’ लिखी. अठारह साल की उम्र तक आते-आते साल 1945 में उनके अफ़सानों का पहला मज़मुआ ‘शीशे का घर’ आया. इसके बाद ‘मेरे भी सनम-ख़ाने’ उनका पहला उपन्यास आया. इसके बाद वो धीरे-धीरे उर्दू की दुनिया की बड़ी शख्सियत बन गईं.
उनके अफ़सानों में औरत की आजादी, अकेलेपन का ऐहसास सबकुछ पढ़ने को मिल जाता है. उनके उपन्यास ‘आखि़रे-शब के हमसफ़र’ में आजादी के दीवानों, ‘चांदनी बेगम’ में अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष करती औरत, ‘आग का दरिया’ जो उनकी सबसे मक़बूल नॉवेल मानी जाती है उसमें साम्प्रदायिक सौहार्द, एकता, सद्भावना, तो वहीं ‘चाय के बाग’ और ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो’ में पूर्वी पाकिस्तान में सत्ता के शोषणकारी निज़ाम के खि़लाफ़ बुलंद आवाज की तस्वीर दिखती है.
कहानी संग्रह ‘पतझड़ की आवाज़’ पर उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया. ‘पद्मश्री’, ‘गालिब मोदी अवार्ड’, ‘इकबाल सम्मान’, ‘कुल हिन्द बहादुर शाह जफ़र अवार्ड, ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ वगैरह दीगर सम्मान हैं जिनसे वो नवाजी गईं. उर्दू साहित्य को समृद्ध बनाकर 21 अगस्त, 2007 को क़ुर्रतुल ऐन हैदर ने दुनिया को अलविदा कह दिया.