राज की बातः सियासत का सिकंदर वो होता है जो लोकप्रिय हो. जनता जिसको सिर आंखें पर बैठाए. राज्य अगर उत्तर प्रदेश जैसा विशाल हो तो सिकंदर कई हो सकते हैं. सियासत के ये सिकंदर अपने-अपने क्षेत्र या वर्गों या फिर समूहों में लोकप्रिय होते हैं. मगर ये सत्ता तक पहुंचने के लिए काफी नहीं होता. इसके लिए तमाम समीकरण, वक्त के लिहाज से मुद्दे और सही फैसला जरूरी होता है. ये सब जब मिलता है तो ही सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने वाला मुकद्दर का बादशाह बनकर उभरता है.


उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले की सियासी सरगर्मियां अब बढ़ती जा रही हैं. सबसे ज्यादा गहमागहमी सत्ता पक्ष में दिख रही है. केंद्रीय नेता लखनऊ आ रहे हैं. सीएम व राज्य के नेता दिल्ली जा रहे हैं. पुराने समीकरणों को दुरुस्त करने की कवायद भी तेज है. मोदी-शाह ने जिस समीकरण के सहारे 2014, 17 और फिर 19 में जीत का परचम फहराया. विपक्ष के हर गठबंधन या चक्रव्यूह के भेदा, उसी को दुरुस्त करने में बीजेपी और संघ परिवार पूरी शिद्दत से जुटा हुआ है. वहीं, विपक्ष की तरफ से ऐसी कोई हलचल नहीं दिख रही है.


हालांकि, राजनीति में जरूरी नहीं कि जो दिखाई दे वही हो. या फिर यूं कहें कि जब कुछ होता न दिखाई दे तो इसका मतलब यह नहीं कि वाकई कुछ भी नहीं हो रहा है. जी..पंचायत चुनावों में कोरोना की लहर से उपजा गुस्सा बीजेपी के खिलाफ दिखाई दिया. सबसे ज्यादा निर्दलीय जीते, लेकिन दल के तौर पर सपा का प्रदर्शन बेहतर रहा. वैसे पंचायत चुनावों में भी बीजेपी ने पूरा जोर झोंका था, लेकिन सपा उतनी सक्रिय नहीं दिखाई दी थी. इसके बाद भी नतीजे सपा के पक्ष में गए.


यूपी में जो सियासी हालात चल रहे हैं, उसमें बीजेपी हर लिहाज से मजबूत नजर आती है. चाहे नेतृत्व हो या संगठन या फिर काडर. इसके बाद भी सत्ताविरोधी लहर को भुनाने के लिए विपक्ष की तरफ से ऐसा कुछ होते भी नहीं दिख रहा कि बीजेपी को चुनौती मिलती दिखे. मगर पंचायत चुनाव के नतीजों ने ये तो बता दिया कि बीजेपी के लिए भी राह आसान नहीं. बशर्ते विपक्ष की सक्रियता हो औऱ उसके पत्ते ठीक से चले जा सकें.


विपक्ष की सक्रियता जमीन पर दिखना तो अभी बाकी है, लेकिन समीकरण के लिहाज से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ट्रंपकार्ड खेलने की तैयारी कर ली है. राज की बात ये है कि एक ऐसा वोटबैंक जो हमेशा सपा के खिलाफ रहा है, उसे अपने खेमे मे लान के लिए अखिलेश ने बड़ा दांव खेलने का मन बना लिया है. राज की बात है कि सपा अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह के बेटे और अब राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी को उपमुख्यमंत्री जैसी हैसियत का नेता बनाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रोजेक्ट कर सकते हैं.


ध्यान रहे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश बसपा का गढ़ रहा है. यहां पर दलित, मुस्लिम और जाटों का संख्या के लिहाज से वर्चस्व रहा है. बाकी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लगभग छह दर्ज सीटें जाटलैंड कही जाती हैं, क्योंकि उनता नेतृत्व हमेशा जाट नेताओं के हाथ में चौधरी चरण सिंह के जमाने से ही रहा है. जाट यहां पर धार्मिक ध्रुवीकरण के चलते बीजेपी के साथ जाता रहा या फिर चौधरी चरण सिंह की विरासत के नाम पर चौधरी अजित सिंह के साथ.


मोदी-शाह के युग में हिंदुत्व के नाम पर पिछले तीन चुनावों से तमाम दावों और नाराजगियों के कयास के बावजूद जाट ने बीजेपी का साथ दिया. सपा के पास मुसलिम वोटबैंक तो यहां है, लेकिन दलित, जाट और अगड़े उससे अलग ही रहे. अभी जाट नेतृत्व बिल्कुल हाशिये पर है. चौधरी अजित सिंह की भी मृत्यु हो चुकी है. ऐसे में जाटों का सहानुभूति वोट रालोद यानी जयंत के साथ जाने की पूरी संभावना है.


राज की बात य ही है कि अखिलेश ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपने सबसे कमजोर इलाके में जयंत को आगे कर यहां मजबूत होने की कोशिश शुरू कर दी है. समाजवादी पार्टी अपनी तरफ से जयंत को पूरे जोर-शोर के साथ पेश करेगी. साथ ही अखिलेश उन्हें अपना उपमुख्यमंत्री बताकर जाटों के बीच पेश कर सकते हैं, इसके भी संकेत दिए गए हैं. ऐसी स्थिति में पश्चिमी उत्तर प्रदेश का इलाका जो किसान आंदोलन से प्रभावित है. बीजेपी से खार खाए बैठा है. ऐसे में जाटों का वोट भी सपा-रालोद गठबंधन के खेमें में आया तो न सिर्फ बीजेपी को झटका लगेगा, बल्कि सपा को बड़ी ताकत मिल सकती है.


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