Raaj Ki Baat: कांग्रेस की कलह अब बिल्कुल सतह पर है. गांधी परिवार का तिलस्म पहले ही टूट चुका था. पार्टी के वफादारों के बीच भी इकबाल जाता दिख रहा है. देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी में टूटन नहीं बल्कि बिखराव होता दिख रहा है. कांग्रेस अब ऐसी स्थिति में पहुंच चुकी है कि उसे किसी और राजनीतिक दल से नहीं, बल्कि खुद से ही लड़ना है. ये लड़ाई कांग्रेस के अंदर कुछ गुटों में नहीं, बल्कि गांधी परिवार बनाम असंतुष्ट नेताओं की है. राज की बात यही है कांग्रेस में ये लड़ाई अब अपने मुकाम तक पहुंचना तय है. गांधी परिवार इन पुराने नेताओं को तो उनकी जगह दिखाने पर अमादा है, लेकिन बीजेपी या मोदी को हराने के लिए विपक्ष में फूट नहीं चाहता. मतलब अपनों पर सितम और गैरों पर करम वाली सियासत चलेगी और इसके पीछे क्या है राज. इस पर करते हैं बात.


कांग्रेस के मौजूदा हालत और गांधी की रणनीति पर बात करने से पहले थोड़ा अतीत पर नजर फिराना जरूरी है. बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के बाद कांग्रेस जब 2004 में सत्ता में आई उससे पहले पार्टी बहुत खराब दौर से गुजर चुकी थी. राजीव गांधी की मौत के बाद पी.वी. नरसिंह राव की सरकार बनी, वही अध्यक्ष भी थे. इसके बाद राव ने सीताराम केसरी को अध्यक्ष बना दिया और राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी को संगठन से दूर रखा. इस दौर में कांग्रेस के वफादारों गुलाम नबी आजाद, अंबिका सोनी, अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी और आस्कर फर्नांडिज समेत तमाम नेताओं ने सोनिया गांधी को काफी बवाल के बाद अध्यक्ष बनाया.


सोनिया कांग्रेस की अध्यक्ष तो बन गई थीं, लेकिन आजादी के बाद का उस समय कांग्रेस के लिए यह बेहद खराब दौर था. बीजेपी राष्ट्रीय विकल्प के रूप में खड़ी हो रही थी. मगर जब 2004 में सोनिया गांधी ने छोटे-छोटे दलों के साथ गठजोड़ कर वाजपेयी के एनडीए के मुकाबले यूपीए को न सिर्फ खड़ा किया, बल्कि उसे जीत भी मिली. इसके बाद कांग्रेस और गांधी परिवार का देश के प्रथम राजनीतिक परिवार का तमगा भी वापस आने लगा. 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी उत्तराधिकारी के तौर पर पार्टी में प्रभाव बढ़ाने लग गए. हालांकि, समय के साथ देश की राजनीति में उनका प्रभाव घटता गया, लेकिन पार्टी में प्रभुत्व बढ़ा.


इसके बाद जबसे मोदी का युग शुरू हुआ है, तबसे लगातार राहुल सियासी रसातल में गए. 2019 में तो अमेठी से चुनाव तक हार गए. नेतृत्व कमजोर हुआ तो असंतोष के स्वर भी उठने लगे. पार्टी में पुरानो लोगों की जगह नई टीम खड़ी करने की कोशिश कर रहे राहुल ने अध्यक्ष पद तो छोड़ा, लेकिन अपना काम करते रहे. अब जब कांग्रेस अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही है तो पार्टी में लोकतंत्र को लेकर सवाल उठ रहे हैं. नेतृत्व बिखर रहा है. इसके बावजूद राहुल तो थे ही प्रियंका गांधी भी सक्रिय राजनीति में आईँ तो उन्होंने अपनी भी चलानी शुरू कर दी. सोनिया गांधी ही कार्यकारी अध्यक्ष बनकर बिना पूर्णकालिक अध्यक्ष के कांग्रेस चला रही हैं. मतलब तीनों गांधी ही शक्तियों को आपस में बांटकर या संतुलन साधकर फैसले ले रहे हैं.


इधर कांग्रेस के वफादारों में असंतोष बढ़ता ही जा रहा था. कारण पद बचे नहीं. सरकारें सिर्फ तीन राज्यों में बचीं. राहुल या प्रियंका ने पुराने वफादारों की उपेक्षा कर नए लोगों की टीम बनानी शुरू की. वास्तव में राहुल गांधी पर सवाल संगठन से लेकर जनता के बीच में भी उठ रहे हैं. पार्टी के अंदर मांग उठी किराहुल में नेतृत्व क्षमता की कमी कांग्रेस का बेड़ा गर्क कर रही है और ऐसे में कमान किसी और के हाथ में दी जानी चाहिए. प्रियंका गांधी भी सामने आईं..लेकिन अभी तक वह भी कुछ प्रभाव नहीं छोड़ पाईं. इधर कांग्रेस में क्षत्रपों के साथ पुराने लोगों को धीरे-धीरे किनारे कर राहुल ने संगठनात्मक स्तर पर कांग्रेस की पॉलिटिक्स की एक मजबूत और युवाओं की बुनियाद तैयार कर दी. बीते 17 सालों के दौर में टीम राहुल अब पहली पंक्ति में जगह बना चुकी है....और बुजुर्ग नेताओं के दबदबे या उनकी राय से चलने वाली सियासत का जमाना काफी हद तक रवाना हो गया है.


पंजाब में जिस तरह से प्रियंका गांधी ने नवजोत सिंह सिद्धू का फैसला लिया और अमरिंदर की विदाई चन्नी की ताजपोशी जैसे प्रकरण हुए और तभी सिद्धू के इस्तीफे के बाद फिर कांग्रेस में बवाल मचा हुआ है. कपिल सिब्बल खुलकर सामने आए और कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाए. जवाब में उनके घर पर प्रदर्शन हुआ. पी. चिदंबरम से लेकर गुलाम नबी आजाद जैसे नेताओं ने इस हुडदंग पर सवाल उठाए. कैप्टन अमरिंदर तो कांग्रेस से किनारा कर ही रहे हैं, पंजाब के सांसद व पूर्व मंत्री मनीष तिवारी ने भी खुलकर हमला किया. अब कांग्रेस कार्यसमिति या सीडब्ल्यूसी बुलाने की मांग है, जिसे जल्दी बुलाने को कहा भी गया है. मगर राज की बात ये है कि अब आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने पर पूरी तरह से गांधी अमादा हैं.


राज की बात ये है कि गांधी अब बिल्कुल नई कांग्रेस बनाने की रणनीति पर लगे हैं. उनका लक्ष्य है कि कांग्रेस संगठन परिवार के पास पूरी तरह रहेगा, तभी भविष्य में सत्ता की लड़ाई में वे रह पाएंगे. किसी गैर गांधी के पास सीताराम केसरी वाले अनुभव के बाद सत्ता न जाए, इस पर भाई-बहन और मां तीनों राजी हैं. हालांकि, फैसलों में आपस में भी मुद्दे बनते हैं, लेकिन वो उनके परिवार का मामला है. इस हालात को समझने के लिए कांग्रेस के एक बेहद वरिष्ठ नेता जो अब राजनीति और पार्टी से पूरी तरह किनारा कर चुके हैं, उन्होंने मौजूदा हालात और तीनों गांधी...सोनिया, राहुल और प्रियंका पर एक बेहद अहम टिप्पणी की.


उन्होंने कहा कि ये तीनों पार्टी में खुद को ब्रह्मा-विष्णु-महेश की तरह यानी सर्वशक्तिमान मानते हैं. वही किसी को बनाएंगे और वही किसी को बिगाड़ेंगे. इसके साथ ही आपस में भी शक्ति संतुलन साधने की कवायद चलती रहेगी. मगर किसी भी कीमत में कांग्रेस की संगठनात्मक कमान गैर गांधी पर नहीं जाने देंगे. ये बात अलग है कि उनकी इस जिद में कांग्रेस का संगठन अपनी हैसियत और वजूद इस तरह से खत्म होने के कगार पर है, लेकिन वो संगठन नहीं छोड़ेंगे.


उनकी बात में दम भी दिखता है. तमाम नए-पुराने नेता पार्टी छोड़ रहे हैं. जनार्दन द्विवेदी किनारा कर चुके हैं. पी.सी. चाको पार्टी छोड़ चुके हैं. सुष्मिता देव, फलारो और संगमा भी तृणमूल में शामिल हो गए हैं. कैप्टन अमरिंदर पार्टी छोड़ने का ऐलान कर चुके हैं. मगर कांग्रेस नेतृत्व खुद ही सवाल उठाने वालों से दूरी बनाकर एक नई कांग्रेस खड़ी करने की कोशिश कर रहा है कि जो उनकी आवाज में सुर मिलाएं. इसीलिए, उनकी पार्टी के नेता दूसरे दल ले रहे हैं, लेकिन उन दलों से कांग्रेस कोई अदावत नहीं रख रहा. उनके साथ मिलकर मोदी का मुकाबला करने की रणनीति बना रहा है. इसके लिए बाहर से नेता भी आयातित किए जा रह हैं.


तो सार ये है कि कांग्रेस के गांधी पहले संगठन में पूरी तरह से अपनी पकड़ बनाने की लड़ाई में लगे हैं. इस रणनीति के तहत खासतौर से राहुल गांधी संगठन के ओल्ड गार्ड या अन्य वो नेता जो बोल सकते हैं और उनका अनुभव है, उनसे निजात पाने की चाहत है. इस काम में वे लगातार सफल भी हो रहे हैं और युवाओं की फौज तैयार की जा रही है. इसके लिए नेतृत्व तक दिया जा रहा है मसलन नवजोत सिद्धू या हार्दिक पटेल के बाद अब कन्हैया कुमार. संगठन में पकड़ बनाने के बाद फिर अपनी विपक्ष की भूमिका पाने की मशक्कत होगी तब जाकर केंद्रीय सत्ता की दावेदारी. अब ये तो वक्त बताएगा कि अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को ठिकाने लगाने के बाद आयातित और नई टीम कांग्रेस को कितना आगे या पीछे ले जाएगी.


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