सत्ता और सियासी सितारों के समन्वय के बीच से ही एक राज की बात हम आपके लिए निकालकर लाए हैं. ये राज की बात पार्टियों के चुनावी मैनेजमेंट से जुड़ी हुई है. सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की कोशिश में लगे सियासी दलों ने अपने सितारों को चुनावी समर में उतार दिया है. वो सितारे जिनके चेहरे, व्यक्तित्व और जनाधार की नाव पर सवार होकर चुनावी वैतरणी पार की जाती है. खासतौर पर बात करें बीजेपी और कांग्रेस की तो दोनों राष्ट्रीय दलों ने चोटी तक पहुंचने के लिए एड़ी से भी जोर लगा रखा है.
राज की बात में हम आपको बताएंगे कि कैसे चुनावी मैदान में दोनों दलों ने स्टार कैंपेनर्स को उतारा है. सियासी सितारों के प्रचार का चुनाव परिणामों पर क्या असर होगा वो तो वक्त बता देगा लेकिन अभी जो उनकी पोजीशनिंग बीजेपी और कांग्रेस ने की है उसका फिलहाल क्या असर हो रहा है वो आपको राज की बात में हम बताने जा रहे हैं.
बीजेपी की तरफ से पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और राष्ट्रीय अध्य्क्ष जेपी नड्डा प्रमुख चेहरे हैं तो वहीं कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने प्रमुख रूप से मोर्चा संभाल रखा है. जब बात स्टार प्रचारकों की सेंकेंड लाइन आती है तब अंतर साफ नजर आता है. जहां बीजेपी के पास स्मृति ईरानी, बीएस येदियुरप्पा, धर्मेंद्र प्रधान, निर्मला सीतारमण, योगी आदित्यनाथ, शिवराज सिह चौहान जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की फौज खड़ी है तो वहीं कांग्रेस के पास उन बड़े नेताओं का टोटा हो गया है जिनकी राष्ट्रीय छवि है और जिनके चुनावी मंचों पर मौजूद रहने से मायने काफी बदल जाते हैं.
खासतौर से बीते दशकों से जो कांग्रेस की फर्स्ट लाइन के नेता जो रहे आज उनकी पहचान बागी या ‘ग्रुप- 23’ की हो गई है. ऐसे में गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, वीरप्पा मोइली, आनंद शर्मा जैसे दिग्गजों के बिना बीजेपी की तेज और सधी धारा के बीच कांग्रेस के पैरों के नीचे से रेत रफ्तार के साथ खिसक रही है.
एक तरफ जहां बीजेपी के पास प्रांतीय, क्षेत्रीय, जातीय और हर तरह के समीकरण को प्रभावित करने वाले स्टार कैंपेनर्स की फौज खड़ी हुई है वहीं कांग्रेस का 5 राज्यों का प्लान राहुल-प्रियंका और स्थानीय दलों के साथ गठबंधन पर ही आधारित नजर आ रहा है. और इतना ही नहीं जिस पश्चिम बंगाल में सबसे बड़ा घमासान है वहां राहुल और प्रियंका पहुंचे ही नहीं. कांग्रेस के सियासी संघर्ष की कहानी असम तक ही सिमटती नजर आने लगी है.
ऐसे में राज की बात ये है कि पेट्रोल से लेकर आदमी तक की जिन बुनियादी जरूरतों को लेकर कांग्रेस एक बड़ा प्रहार बीजेपी पर कर सकती थी वो नहीं हो पा रहा है. इसकी वजह साफ है. वजह ये कि जिन नेताओं ने शिखर तक कांग्रेस को पहुंचाया उनमें से कुछ हाशिए पर हैं तो कुछ पार्टी से नाराज है. इसके साथ ही साथ संदेश ये भी जा रहा है कि जो पार्टी अभी अपनों को साधने में अक्षम है वो क्या बड़े मामलों को सत्ता में आकर साध पाएगी.
कांग्रेस की यही कमजोरी बीजेपी के लिए वरदान बन रही है और रही सही कसर बचती है उसे पार्टी अपने राष्ट्रव्यापी छवि वाले चेहरों से मैनेज करने में दम-खम से जुटी हुई है. चुनाव के परिणाम क्या होंगे ये जनता तय कर देगी लेकिन इतना तो तय है कि कांग्रेस संगठानात्मक स्तर पर एक बड़े संकट से जूझ रही है और इससे पार पारा लोहे के चने चबाने से कम नहीं.
राज की बातः क्या सच में कम हो गई है वैक्सीन या वैक्सीनेश को लेकर हो रही है सियासत?