हिंदुस्तान की सियासत में जातियों के जत्थे को जिसने साध लिया उसे सत्ता हासिल करने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती है. यही वजह है कि विकास एक बार पीछे छूटे तो छूटे लेकिन जातियों का अपने दल से छिटक जाने का का रिस्क कोई नहीं लेता. बल्कि इसके उलट इस बात का जतन जारी रहता है कि अपनी अपनी सियासत से उनका जुड़ाव बना रहे.
इसी जद्दोजहद के बीच ओबीसी वर्ग के वोटबैंक देखते हुए सभी दल इन्हें रिझाने में लगे हुए हैं. मंडल कमीशन के दौर से शुरु हुई ओबीसी वाली सियासत अब इतनी बड़ी हो गई है कि राष्ट्रीय दलों को भी इन्हें साधने की टेंशन बनी रहती है.
हालांकि, अब तक के सियासी इतिहास में ओबीसी वर्ग को साधने में ज्यादा कामयाबी क्षत्रपों को ही मिली है लेकिन, फिर भी राष्ट्रीय दल इससे इतनी आसानी से जानें दें इस बात की इजाजत तो सियासी परिस्थितियां दे ही नहीं सकती.
इसी वोटबैंक को साधने के लिए हाल ही में मेडिकल परीक्षा में भी ओबीसी आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया ताकि बीजेपी को आने वाले चुनाव में सीधा फायदा मिल सके. लेकिन तू डाल डाल मैं पात पात वाली सियासत में किसी को नफा हो और दूसरा दल हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे तो तो मुमकिन ही नहीं है.
दरअसल लंबे समय से देश में जातिगण जनगणना की बात होती आई है लेकिन सरकारें इससे बचती रही हैं. राज की बात ये है कि 2011 में जनगणना में जातियों को शामिल किया भी गया लेकिन उसके आंकड़े सर्वजनिक नहीं किए गए.
इन्ही सबके बीच से राज की बात ये भी निकलकर सामने आ रही है कि ओबीसी के साथ ही साथ अन्य जातियों को अपने से जोड़े रखने के लिए, उनकी नजरों में सबसे बड़ा हितैषी बने रहने के लिए नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू जातिगत जनगणना की जिद पर अड़ गई है. इसी वजह से टेंशन बीजेपी की भी बढ़ गई है. क्योंकि देश में लगभग 41 फीसद से ज्यादा ओबीसी वोटरों पर न सिर्फ उसकी निगाह है, बल्कि उन्हें अपने खेमे में लाने के लिए मोदी सरकार ने कई बड़े फैसले भी किए हैं. चाहे ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देना हो या फिर अभी मेडिकल में उनको आरक्षण. ये सभी कदम इस बड़े वोटबैंक के लिए है, यहां तक कि मोदी कैबिनेट में कितने ओबीसी हैं, इस बात को भी बीजेपी भरसक प्रचारित कर रही है.
राज की बात ये है कि बीजेपी की इस रणनीति से नीतीश की पार्टी समेत अन्य क्षेत्रीय दल भी सशंकित हैं. इसका कारण है कि मंडल आयोग के बाद जिस तरह की राजनीति हुई, उसी का नतीजा था कि क्षेत्रीय दल पूरे देश में मजबूत हुए. खासतौर से हिंदी बेल्ट में क्षेत्रीय दलों का न सिर्फ आविर्भाव हुआ, बल्कि प्रदेश और देश की सियासत में उनका दबदबा बढ़ा. ये भी तथ्य है कि ज्यादातर क्षेत्रीय दल ओबीसी वोटरों की मूल ताकत के सहारे ही आगे बढ़े. जाहिर है कि बीजेपी की इस दूरदर्शी सियासत से उन्हें अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आ रहा है.
खास बात है कि इसकी काट के लिए विपक्ष नहीं, बल्कि राजग के अंदर से ही नीतीश कुमार ने बीजेपी के सामने ओबीसी सियासत में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने वाला दांव चल दिया. नीतीश ने न सिर्फ इस मसले पर राजद नेता और अपने सबसे बड़े आलोचक तेजस्वी यादव से बात की, बल्कि राज्यों में जातिगत जनगणना का दबाव बढ़ा दिया. यदि बिहार के साथ और भी एक-दो राज्य जनगणना के लिए राजी हो जाते हैं तो जाहिर तौर पर केंद्र पर जातीय जनगणना करा उसे घोषित करने का दबाव बढ़ेगा.
नीतीश कुमार के इस कदम से बीजेपी खेमे की बेचैनी को आप केवल इस बात से समझ सकते हैं कि अब तक 4 बार ओबीसी मोर्चा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके जातिगत जनगणना के नुकसान समझा चुका है. लेकिन ओबीसी वर्ग के वोटर्स को साधने की जंग में नीतीश का कदम बीजेपी के लिए टेंशन का सबब बन गया है. साफ है कि ओबीसी की विभिन्न जातियों के आंकड़े खुलकर सामने लाने का मतलब साफ है कि उसी हिसाब से सियासी चक्रव्यूह रचा जाएगा. लड़ाई न सिर्फ जटिल होगी, बल्कि बेहद संवेदनशील. अभी ओबीसी की पहचान सामने लड़कर बात आगे जा रही तो तब वो जातीय अस्मिता पर बात जा पहुंचेगी.
सियासत में सगा होने की शर्त केवल सत्ता है. ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब बिहार चुनाव में बीजेपी ने भारी सीटें जीतकर जेडीयू और नीतीश कुमार की टेंशन बढ़ा दी थी. अब वक्त ने पलटी मारी है और बीजेपी के ओबीसी कार्ड पर नीतीश की जातिगत जनगणना का दांव ....कमलछाप समीकरण के लिए चुनौती बन गया है. अलग अलग दलों की तरफ से ओबीसी वर्ग को रिझाने की होड़ कहां तक जाएगी और क्या रंग दिखाएगी ये तो वक्त बताएगा. लेकिन वक्त इतना तो दिखा ही रहा है कि अगर इस वोट बैंक को साधने के लिए किसी ने नहला मारा तो अगले दल का दहला तैयार मिलता है.