Raaj Ki Baat: उत्तर प्रदेश में 2022 विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सियासी शह मात का खेल हर सेकेंड, हर मिनट, हर घंटे या कहिए कि 24 घंटे जारी है. क्या बड़ा, क्या छोटा, क्या जनाधार या क्या शख्सियत. सियासत के इस संग्राम में अंतर की सारी रेखाएं मिट चुकी हैं. यहां कोशिश है तो सिर्फ इस बात की कि कैसे भी सत्ता के शीर्ष तक पहुंचा जाए. राजनीति की इसी म्यूजिकल चेयर में छोटे दलों ने संग्राम को दिलचस्प बना दिया है. और छोटे दलों की इस अहमियत को बढ़ाया है उन सियासी परिस्थितियों ने जिनके इर्द गिर्द चुनावी चकल्लस घूमती नजर आ रही है.


यूपी के सियासी समर में ओबीसी, अल्पसंख्यक और ब्राह्मण राजनीति अपने शबाब पर है. हर दल शह-मात में लगा हुआ है, बीजेपी के सामने चुनौतियां ज्यादा हैं क्योंकि एक तरफ जहां जातिगत जनगणना से इनकार पर विपक्ष घेर रहा है तो ब्राह्मणों पर अत्याचार के नाम पर माहौल बनाने की कोशिश जारी है. वहीं अल्पसंख्यकों को साधने के लिए होने वाली सियासत को औवैसी की एंट्री ने हाईवोल्टेज कर दिया है.


इन्हीं हालातों के देखते हुए सपा और भाजपा के उन दलों के साथ गंठबंधन हो रहे हैं जिनका नाम या तो किसी ने सुना नहीं होगा और सुना होगा तो इन दलों के नाम याद नहीं रहे होंगे. तो सवाल ये है कि जिन नेताओं और दलों कि साढ़े 4 साल तक कोई पूछ नहीं थी वो अचानक से इतनी अहमियत वाले कैसे हो गए. तो आज उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर यही राज की बात हम आपको बताने जा रहे हैं.


राज की बात ये है कि महान दल, वीआईपी, निषाद पार्टी जैसे दलों और नेताओं का जनाधार भले ही सीमित है लेकिन फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट चुनाव प्रणाली में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. जिस चुनाव में 1-1 वोट का महत्व वो वहां 5 से 10 फीसदी की संभावनाओं को अपने साथ सहेजे छोटे दलों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है.


यही वजह है कि गोडवाना गणतंत्र पार्टी के साथ सपा गठबंधन कर रही है और बीजेपी की गलबहियां निषाद पार्टी के साथ हो रही हैं. राज की बात ये है कि इस गठबंधन में भी 1 तीर से 2 निशाने साधने की कोशिश छिपी है. पहला तो ये कि जितने वोट सध जाएं उतने सही और दूसरा ये कि एक खास जाति को अपने साथ लेकर चलने वाले इन दलों से गठबंधन के जरिए वो समाज भी सध पाएंगे और समाज का वोट सुनिश्चित हो पाएगा.


राज की बात ये है कि इन समीकरणों को साधने के खेल में इस बार कोई भी दलितों की चर्चा नहीं कर रहा, लेकिन हाथी की माया से बीजेपी नावाक़िफ़ नहीं. यूपी में इस दफ़ा के चुनाव में दलित विमर्श बेहद पीछे है. कारण था दलितों की सबसे बड़ी नेता और बसपा सुप्रीमो मायावती का मौन रहना. हालाँकि, प्रबुद्ध सम्मेलन के ज़रिये ब्राह्मण कार्ड फिर मायावती ने खेला है, जिसने ख़ासतौर से बीजेपी को सतर्क कर दिया है. मायावती का हाथी बाज़ी पलटने का सामर्थ्य रखता है, इसको लेकर बीजेपी खासी संजीदा है.


दरअसल,अल्पसंख्यकों की राजनीति को साधने में हर दल का दिल घबरा रहा है. इसकी वजह है कि ओवैसी की हार्डकोर मुस्लिम तुष्टीकरण वाली सियासत पहले तो सपा के लिए घातक मानी जा रही थी, लेकिन राज की बात है कि जैसे चुनाव क़रीब आ रहा है उससे बीजेपी की टेंशन बढ़ गई है. दरअसल पहले तो ये माना जा रहा था कि एआईएमआईएम की यूपी में एंट्री सपा और कांग्रेस के अल्पसंख्यक वोट को काट कर इनका नुकसान कर सकती है लेकिन राज की बात ये है कि इससे कहीं ज्यादा टेंशन बीजेपी की बंगाल के फैक्टर से हो रही है.


दरअसल, असदुद्दीन ओवैसी बंगाल में भी गए थे और परिणाम ये हुआ कि मुस्लिम समाज ने एकमुश्त वोट टीएमसी को दे दिया. राज की बात ये है कि ठीक यही डर बीजेपी को यूपी में लग रहा है कि कहीं ऐसा न हो कि सपा के वोट कटने के बजाय मुस्लिम समाज का एकमुश्त वोट समाजवादी पार्टी को चला जाए. या फिर जहां मायावती जीतती दिख रही हैं…उधर! ऐसी ही वोटर्स की लामबंदी से आशंकित बीजेपी बदलती सियासी परिस्थितयों के मद्देनजर काट तलाशने  लगी है.


हालांकि सियासत के हर गणित को हल करने के लिए बीजेपी ने एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है. एक तरफ ओबीसी वर्ग को साधने के लिए जहां केंद्र से लेकर राज्य के मंत्रिमण्डल विस्तार तक में ओबीसी वर्ग को शामिल किया गया. वहीं ब्राह्मण समाज से आने वाले नेतओं को भी मंत्री बनाया गया ताकि ब्राह्मण विरोधी होने के माहौल को थामा जा सके. इसके साथ ही साथ छोटे दलों के साथ गठबंधन के जरिए समाजिक संतुल और सोशल इंजीनियरिंग की कवायद भी जारी.


तो शह मात का दौर हर घंटे जारी है और बदल रहा है. हर घटना और बयान के बाद जिस तरह से सियासत अपने पंख खोलती है, समीकरण उलट जाते हैं और नए सिरे से संग्राम का चक्रव्यूह तैयार होने लगता है. अब देखने वाली बात है कि कौन इस चुनावी राजनीति के चक्रव्यूह को आखिरी वक्त तक तोड़े रखता है.


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