सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में तीन मुख्य सवाल उठाए गए थे
1. जिस तरह पुराने सौदे को दरकिनार कर, प्रधानमंत्री ने नया सौदा किया. उसमें तय प्रक्रिया का उल्लंघन हुआ.
2. विमान पहले से ज्यादा कीमत पर खरीदे जा रहे हैं. इसे लेकर कोई पारदर्शिता नहीं है.
3. विमान बनाने वाली फ्रांस की कंपनी दसॉल्ट को इस बात के लिए विवश किया गया कि वो भारत में रिलायंस डिफेंस को अपना ऑफसेट पार्टनर चुने. यानी रिलायंस को फायदा पहुंचाने के लिए पुराना सौदा रद्द कर नया सौदा किया गया.
सुप्रीम कोर्ट ने 29 पन्नों के अपने फैसले में तीनों बिंदुओं का सिलसिलेवार जवाब दिया है.
कोर्ट ने माना है कि 2012 से चल रही 126 राफेल विमानों की खरीद की बातचीत अंजाम तक नहीं पहुंच रही थी. इसकी वजह थी दसॉल्ट को भारतीय ऑफसेट पार्टनर के तौर पर हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड की क्षमता पर भरोसा न होना. इस बीच भारत के प्रतिद्वंद्वी देश अपने हवाई बेड़े को मजबूत करने में लगातार लगे हुए थे. चौथी और पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमानों की कमी भारत की सुरक्षा को खतरे में डाल रही थी. ऐसे में पुराने सौदे को रद्द कर सीधे फ्रांस की सरकार के साथ समझौता करना सरकार का एक विवेकपूर्ण फैसला था.
कोर्ट ने कहा है कि सरकारों के बीच हुआ समझौता डिफेंस प्रोक्यूरमेंट प्रोसिजर (DPP) 2013 के प्रावधानों पर खरा उतरता है. इसमें साफ लिखा है कि रक्षा ज़रूरत को पूरा करने के लिए सीधे किसी मित्र देश की सरकार के साथ हुए समझौते में साधारण रक्षा खरीद की तरह एक एक प्रक्रिया का पालन ज़रूरी नहीं.
चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच ने ये भी कहा है कि इस बात पर सवाल खड़े नहीं किए जा सकते कि 126 विमानों की जगह 36 विमान ही क्यों खरीदे गए. ये भी सरकार का एक फैसला है जो उसने देशहित में लिया. कोर्ट इसमें दखल नहीं देगा.
कीमत को लेकर लगाए गए आरोपों पर कोर्ट ने कहा है, "हमें सरकार ने विमान की मूल कीमत और आधुनिक उपकरण लगाने के बाद की कीमत की जानकारी दी है. सरकार ये जानकारी CAG और पब्लिक एकाउंट्स कमिटी को भी दे चुकी है. हमने सीलबंद लिफाफे में दी गई जानकारी को देखा है. हम इस बात पर आश्वस्त हैं कि विमानों की इस खरीद में देश को व्यवसायिक लाभ हुआ है. कोर्ट का ये काम नहीं कि वो कीमतों की तुलना करे."
ऑफसेट पार्टनर के चुनाव के बारे में कोर्ट ने कहा है कि DPP 2013 के मुताबिक ऑफसेट पार्टनर का चयन मूल विदेशी कंपनी करती है. इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं है. फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रंस्वा ओलांद के एक बयान को आधार बना कर कोर्ट में याचिकाएं दाखिल की गईं. लेकिन दसॉल्ट और रिलायंस उस बयान का खंडन कर चुके हैं. इसलिए, सिर्फ मीडिया रिपोर्ट के आधार पर मामले में दखल देना उचित नहीं लगता.
कोर्ट ने फैसले में इस बात को भी दर्ज किया है कि रिलायंस इंडस्ट्रीज और दसॉल्ट के बीच 2012 में ही आपसी सहयोग का एक व्यवसायिक करार हुआ था. ऐसे में हो सकता है कि पुराने व्यवसायिक संबंध के चलते दसॉल्ट ने 2017 में रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर को पार्टनर बनाया हो. लेकिन ऑफसेट पार्टनर के बारे में दसॉल्ट ने अभी तक भारत सरकार को कोई आधिकारिक सूचना नहीं दी है.
तीनों बिंदुओं का जवाब देने के बाद कोर्ट ने निष्कर्ष के तौर पर लिखा है, "सभी पहलुओं को विस्तार से देखने के बाद हम ये नहीं समझते कि मामले में दखल की ज़रूरत है. कुछ लोगों की धारणा जांच का आदेश देने का आधार नहीं बन सकती. हम सभी याचिकाओं को खारिज करते हैं."
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