गुजरात: गुजरात चुनाव दिसंबर 9 और 14 तारीख को होने है. इस चुनाव में बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों की ही साख दांव पर लगी है. 22 साल से सत्ता में रही बीजेपी एक बार फिर से सत्ता में आने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा रही है तो दूसरी ओर दूसरी ओर सत्ता में आने के लिए कांग्रेस एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रही है. इस बीच अब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने राफेल डील को एक बड़ा चुनावी मुद्दा बना दिया है. राहुल अपनी हर सभा में मोदी सरकार पर हमला बोलते हुए "राफेल डील" पर उनसे जवाब मांग रहे हैं.


राहुल ने कहा, "मोदी जी जब फ्रांस गए थे तो उन्होंने राफेल डील को बदल दिया था, वो भी बिना किसी से पूछे. एयरक्राफ्ट बनाने के लिए जो कंपनी जानी जाती है, उसकी बजाय अपने इंडस्ट्रियलिस्ट दोस्त को कॉन्ट्रैक्ट दे दिया. तब डिफेंस मिनिस्टर गोवा में थे. मोदी जी को मेरे तीनों सवालों का जवाब नहीं देना है इसलिए पार्लियामेंट बंद कर दी. मोदीजी अब कहते हैं कि ना बोलूंगा और ना बोलने दूंगा. वे चाहते हैं कि गुजरात की जनता सच्चाई को ना सुने."


राफेल डील पर राहुल गांधी ने मोदी सरकार को घेरते हुए तीन सवाल पूछे हैं. राहुल गांधी ने पूछा कि कांग्रेस के टाइम की गई डील और अब की डील में इतना फर्क क्यों आ गया है. उन्होने पूछा कि राफेल का दाम पहले के मुकाबले क्यों बढ़ाया गया और इस फैसले के लिए कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्युरिटी से आपने परमिशन ली गई थी कि नहीं?


इस पर वित्त मंत्री अरुण जेटली, जो कभी रक्षा मंत्री भी रहे हैं, उन्होंने कहा कि "राफेल डील में स्पष्ट था कि केंद्र में 10 सालों तक यूपीए की सरकार थी, 10 साल तक यूपीए कोई निर्णय नहीं ले पाई, सेना की आक्रमण क्षमता कमजोर हो रही थी और एयर फ़ोर्स की प्राथमिकता थी इसे लेने की. राफेल डील दो सरकारों के बीच ट्रांजेक्शन था. यह वह ट्रांजेक्शन नहीं था जो कांग्रेस के ज़माने में होता था, जिसमें बिचौलिए हुआ करते थे, इसमें कोई क्वात्रोची नहीं था.


साथ ही अरुण जेटली ने राहुल गाँधी के इस सवाल के समय पर भी उनको आड़े हाथों लेते हुए कहा कि "ढाई साल में किसी ने राफेल डील पर प्रश्न नहीं उठाया, ढाई साल बाद अचानक गुजरात चुनाव में कांग्रेस को राफेल की कैसे याद आ गई? यह चुनाव से जुड़ा एक "मोटिवेटेड कैंपेन" है.


क्या है राफेल डील?


राफेल सौदा दरअसल भारत और फ्रांस की सरकारों के बीच एक हस्ताक्षरित रक्षा समझौता है. यह सौदा काफी लंबा खींचा गया. दरअसल भारतीय वायु सेना में आधुनिकरण के लिए 126 राफेल खरीदने का प्रस्ताव अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार के समय साल 2000 में रखा गया था.


रिकार्ड्स के मुताबिक 2007 में मध्यम मल्टी-रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एम्एमआरसीए) की खरीद शुरू की गई थी. जब तत्कालीन यूपीए सरकार ने प्रस्तावों के लिए अनुरोध जारी किया था. छह दावेदारों के प्रस्ताव, बोइंग के सुपर हॉरनेट, लॉकहेड मार्टिन का एफ -16IN सुपर वाइपर, आरएसी मिग का मिग -35, साब की ग्रिपेन सी, यूरोफाइटर टायफून और राफेल, की जांच भारतीय वायु सेना ने की थी.


भारतीय वायु सेना को अपनी बेहतर क्षमता प्राप्त करने के लिए कम से कम 42 फाइटर स्क्वाड्रन की ज़रुरत है, लेकिन बाद में इसके अप्रचलन के कारण इसे घटाकर 34 स्क्वाड्रन कर दिया गया. वायु सेना ने तकनीकी और उड़ान का मूल्यांकन कर 2011 में सही मानदंडों को देखते हुए राफेल और यूरोफाइटर टाइफून को चुना. 2012 में बिडिंग के वक़्त राफेल को L1 बोली दाता घोषित किया गया और उसके निर्माता डेसॉल्ट एविएशन के साथ समझौता वार्ता शुरू हुई.


उसके 2 साल बाद भी, आरएफपी (रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल) का अनुपालन, लागत संबंधी मुद्दों और शर्तों पर समझौते की कमी के कारण 2014 में भी यह डील अधूरी ही रही. यानी यूपीए सरकार के तहत राफेल का कोई सौदा नहीं हुआ. ट्रांसफर ऑफ़ टेक्नोलॉजी दोनों पक्षों के बीच चिंता का प्राथमिक मुद्दा बना रहा. डसॉल्ट एविएशन भारत में 108 विमानों के उत्पादन पर गुणवत्ता नियंत्रण की जिम्मेदारी लेने के लिए भी तैयार नहीं था.


जब नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधान मंत्री बने, तो उन्होंने वायु सेना की लड़ाकू क्षमता की ओर कदम बढ़ाया. 2015 में पीएम नरेंद्र मोदी के फ्रांस दौरे के वक़्त दोनों भारत और फ्रांस ने सरकार समझौते की घोषणा की, जिसमे भारत सरकार को 36 राफेल जेट विमान "फ्लाई-अवे" कंडीशन में जल्द से जल्द देने की बात हुई. जॉइंट स्टेटमेंट के ज़रिये "अंतर-सरकारी समझौते को पूरा करने पर सहमति व्यक्त की गयी.


तीन बार इसके प्रस्तावों को डिफेन्स एक्वीजीशन कौंसिल के सामने रखे गए और उनके निर्देशों को भी सम्मिलित किया गया. इसके बाद प्रस्ताव को कैबिनेट कमेटी ओन सिक्योरिटी (सीसीएस) की मंजूरी मिली जिसके बाद भारत और फ्रांस के बीच "अंतर-सरकारी एग्रीमेंट" (आईजीएजी) पर 2016 में हस्ताक्षर हुए. राफेल डील पर एनडीए सरकार ने उस वक़्त दावा किया था कि उन्हें यूपीए सरकार के मुक़ाबले काफी बेहतर डील बनी है. कांग्रेस पार्टी के आरोपों को खारिज करते हुए सरकार ने कहा कि इन एयरक्राफ्ट्स को उड़ने की स्थिति में खरीदा गया है. इस डील में 12,600 करोड़ रुपये बचे हैं.


जहाँ तक टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की बात है ये समझौता पहले भी नहीं था और अब भी नहीं है. रक्षा जानकरों के मुताबिक कोई भी देश अपनी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर नहीं करता. डील जब उड़ने की स्थिती वाले एयरक्राफ्ट खरीदने की होती है तो ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी का सवाल ही नहीं होता. रक्षा मंत्रालय के सूत्रों की माने तो ये डील पूरी तरह दो सरकारों के बीच में है और कोई भी निजी व्यक्ति, फर्म या इकाई इस प्रक्रिया में शामिल नहीं था. सरकारी सूत्रों ने बताया कि डस्सॉल्ट एविएशन ने इसके लिए रिलाइंस डिफेन्स लिमिटेड के साथ पार्टनरशिप की क्योंकि उसे लग रहा था कि एचएएल के पास वो क्षमता नहीं जिसकी उसे ज़रुरत थी.


उधर बीजेपी इस पर ये कह रही है कि राहुल गांधी को ये मामला दो साल बाद ही क्यों याद आया है.