हिंदुस्तान का राजनैतिक सिस्टम बड़े अलग किस्म का है. यहां पेचीदगियों के पन्ने इतने हैं कि जो सामने हैं वो समझ आ जाते हैं और कुछ पन्ने अनसुलझे रहकर राज की बात बन जाते हैं. सियासत के उन्हीं अनसुलझे पन्नों में से एक पन्ना हम आज राज की बात में आपके सामने खोलने जा रहे हैं.


राज की बात में आज हम बात करेंगे राहुल गांधी की. राजनीति की मुख्यधारा में डेढ़ दशकों से डटे राहुल गांधी की इमेज सफलता की बजाय असफताओं और सूझबूझ के अभाव वाली शख्सियत की बनी. राहुल की छवि लगातार अदूरदर्शी बयानबाजी करने वाले राजनेता की बनी और पार्टी को न साध और संभाल पाने वाले नेता और अध्यक्ष की बनी. लेकिन सियासत ऐसी चीज है जिसमें कई बार जो दिखता है वो होता नहीं और होता है वो दिख नहीं पाता. राहुल गांधी के उसी न दिख पाने वाले पक्ष को आज राज की बात में हम आपको दिखाने जा रहे हैं.


राहुल का हालिया तस्वीर


सबसे पहले हालिया तस्वीर को देखिए. कभी कांग्रेस के स्तंभों में गिने जाने वाली पीसी चाको अब पार्टी को अलविदा कह के सियासत का नया निशान हाथ में थाम चुके हैं. वरिष्ठ और बुजुर्ग नेताओं की ऐसी बगावत की झड़ी कांग्रेस में लगी है. कुछ पार्टी छोड़कर चले गए और कुछ पार्टी में रहकर भी पार्टी लाइन के खिलाफ खुल कर बोलते दिखे. इस फेहरिस्त में आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद जैसे कई बड़े और दिग्गज नेता शामिल हैं. बुजर्ग नेताओ की इस सियासी बेवफाई पर गांधी परिवार सवालों के घेरे में आया और खास तौर पर राहुल गांधी जिनका आगामी कार्यसमिति में फिर से अध्यक्ष चुना जाना तय है.


सवाल उठे कि राहुल में नेतृत्व क्षमता की कमी कांग्रेस का बेड़ा गर्क कर रही है और ऐसे में कमान किसी और के हाथ में दी जानी चाहिए. लेकिन असल में राज की बात ये है कि जिस  दौर में विरोधी राहुल को पप्पू साबित करने में लगे रहे उसी दौर में राहुल ने संगठनात्मक स्तर पर कांग्रेस की पॉलिटिक्स की एक मजबूत और युवाओं की बुनियाद तैयार कर दी. बीते 17 सालों के दौर में टीम राहुल अब पहली पंक्ति में जगह बना चुकी है और बुजुर्ग नेताओं की मनमानी वाली सियासत का जमाना काफी हद तक रवाना हो गया है.


राहुल की शातिर चाल


राज की बात में हम आपको बताने जा रहे हैं किस तरह से कांग्रेस की अंदरूनी रीति नीति को चंद बड़े नेताओं ने अपनी मर्जी का मोहरा बना लिया था जिसे राहुल गांधी ने बड़े साइलेंट मोड में किनारे लगा दिया. पिछली कार्यसमिति में जब राहुल को अध्यक्ष बनाने की बात आई तब वो चुनाव कराने की जिद पर अड़ गए. राज की बात ये है कि आगामी जून की कार्यसमिति में वो अध्यक्ष बनेंगे भी लेकिन प्रस्ताव से नहीं बल्कि पूरी चुनाव प्रक्रिया के साथ और केवल राहुल ही नहीं बल्कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी के 23 में से 12 सदस्य भी चुनाव के जरिए ही आएंगे. बाकी को अध्यक्ष अपने सहयोग के लिए ऩॉमिनेट करेंगे.


ये प्रक्रिया लंबे समय से कांग्रेस में लुप्त हो गई थी. नए चेहरों को मौका नहीं मिल रहा था. अब एआईसीसी के लगभग 1 हजार सदस्य वोटिंग के जरिए अध्यक्ष और 11 सीडब्ल्यूसी के मेंबर्स को चुनेंगे. इसके दो फायदे होंगे. पहला ये कि कांग्रेस के संविधान का पालन एक बार फिर से पूर्ण रूप से पालन किया जाएगा और दूसरा फायदा ये कि CWC में टीम राहुल मजबूती के साथ नजर आएगी.


राज की बात ये है कि राहुल गांधी की पॉलिटिकल प्लानिंग यही है कि पार्टी की मजबूती के साथ ही साथ उस पर मजबूत पकड़ भी जरूरी है जो अपनी टीम के साथ ही संभव है. Nsui और यूथ कांग्रेस में जब राहुल ने वोटिंग की बात की थी उस वक्त भी फैसले पर सवाल उठे थे लेकिन आज स्थिति ये है कि इन्हीं संगठनों से निकले टीम राहुल के युवा आज पहली पंक्ति में हैं और लगभग कांग्रेस के आधे सांसद भी इसी टीम से आए हुए लोग हैं.


मतलब साफ है कि सियासत में 17 सालों का वक्त गुजारने के बाद भले ही राहुल गांधी की छवि पप्पू बनाने की कोशिश हुई लेकिन राज की बात ये है कि आलोचनाओं के दौर के बीच से राहुल ने जो आधार संगठनात्मक स्तर पर तैयार किया है उसका फायदा निश्चित तौर पर कांग्रेस पार्टी को भविष्य में मिलेगा. हालांकि ये फायदा सरकार कर पहुंचाने में कारगर होगा या नहीं होगा. ये फैसला तो जनता के हाथ मे है लेकिन संगठन के स्तर पर कांग्रेस का बिखराव खत्म होगा इतना तय है.