राज की बात: यूपी में बदली रणनीति, चुनाव में राष्ट्रवाद और श्रीराम से आगे बढ़ेगी बीजेपी
विपक्ष जाहिर तौर पर इन भावनाओं को भड़काने के लिए घी डाल रहा है. इसकी सियासी काट प्रदेश नेतृत्व नहीं कर पा रहा है. कारण यह है कि जिस तरह से योगी सरकार में कुछ लोगों का समूह और एक वर्ग हावी होता दिखाई पड़ रहा है, उससे वर्गों में कहीं असंतोष के बीच पनप रहे हैं.
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की दस्तक अब बेहद करीब है. हर राजनैतिक दल अपने अपने समीकरण सेट करने में लगा हुआ है. सेटिंग आंकड़ों की भी हो रही है, सेटिंग सोशल इंजीनियरिंग की भी हो रही है, सेटिंग जातिगत पेंच को साधने की भी हो रही है. कुल मिलाकर मसले केवल 2 ही है. पहला ये कि बीजेपी को अपनी सत्ता बचाए रखनी है और दूसरा ये कि विपक्ष को अपने सियासी वनवास को खत्म करना है.
चूंकि अब तैयारियों का वक्त कम बचा है ऐसे में सबसे ज्यादा सीटों वाले सूबे में विरोधियों के लिए चक्रव्यूह रचना शुरू हो गई है. राज की बात ये है कि 2022 में यूपी विधानसभा में फतह करने के लिए बीजेपी ने अपने प्लान में थोड़ी तब्दीली की है. राज की बात ये है कि राष्ट्रवाद और श्रीराम से आगे बढ़कर भाजपा इस बार पिछड़ी जातियों पर फोकस करके सियासी मैदान में उतरने का मन बना चुकी है.
ये बात इतनी सीधी नहीं है. ऐसा क्यों करना पड़ रहा है, पहले ये भी समझना होगा. यूपी में जातियों को तोड़कर हिंदू अस्मिता को जगाकर बीजेपी के नए चाणक्य अमित शाह ने मोदी नाम के सहारे 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में चमत्कार कर दिया था. 2019 का लोकसभा चुनाव भी पूरी तरह मोदी केंद्रित लड़कर फिर केंद्र की सत्ता तक बीजेपी पहुंची थी.
राज की बात यहीं छिपी हुई है कि बीजेपी का अपना सर्वे इशारा कर रहा है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में ये समीकरण थोड़ा उलट-पलट गए हैं. जातियों में बंटे यूपी के समाज में मौजूदा प्रदेश नेतृत्व को लेकर कुछ सवाल खड़े हो चुके हैं. ख़ासतौर से जातीय गोलबंदी समाज के अंदर चुपचाप आकार लेती जा रही है. क़ानून-व्यवस्था के मोर्चे पर प्रदेश के प्रदर्शन को ठीक माना जा रहा है, लेकिन विकास के मानदंडों पर अपेक्षित प्रगति न होना, प्रशासनिक अपरिपक्वता और सियासी व सामाजिक धड़ेबंदी के चलते प्रदेश सरकार के विरुद्ध भावनाएँ जा रही हैं.
विपक्ष जाहिर तौर पर इन भावनाओं को भड़काने के लिए घी डाल रहा है. इसकी सियासी काट प्रदेश नेतृत्व नहीं कर पा रहा है. कारण यह है कि जिस तरह से योगी सरकार में कुछ लोगों का समूह और एक वर्ग हावी होता दिखाई पड़ रहा है, उससे वर्गों में कहीं असंतोष के बीच पनप रहे हैं. मोदी के नाम पर दो चुनाव जीतने के बाद ये चुनाव अगर योगी के चेहरे पर लड़ा जाता है तो नतीजों को लेकर बीजेपी नेतृत्व मुतमईन नहीं हो पा रहा है.
तो इसकी काट में ही राज की बात छिपी है. पहली ये कि ओबीसी और एससी वोटर्स को साधने के लिए जहां इस समाज से जुड़े नेताओं को तरजीह मिलेगी वहीं योगी आदित्यनाथ की जगह पीएम नरेंद्र मोदी को चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा जा सकता है. इसका मतलब ये कि यूपी चुनाव में -पार्टी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी- न कि किसी को मुख्यमंत्री घोषित कर। इसके संकेत लगातार दिए भी जाने लगे हैं.
इन तैयारियों के कई चरण भी हैं. राज की बात ये है कि गुजरात कैडर के अधिकारी रहे एके शर्मा का वीआएस लेना और भाजपा के कोटे से एमएलसी बन जाने का फैसला भी बीजेपी की बदली हुई रणनीति का ही हिस्सा है. वहीं ओबीसी और एससी वर्ग से आने वाले नेताओं की भूमिका और जिम्मेदारियों में बड़े बदलाव भी आने वाले वक्त में देखने को मिल सकते हैं.
वैसे ओबीसी और एससी वर्ग को साधने की कवायद शुरू की जा चुकी है और सुहेलदेव के सम्मान में जो कार्य़क्रम बीजेपी ने किया उसमें खुद पीएम भी शामिल हुए. यानी की जतन जारी है और इस बार ओबीसी और एससी को साधकर जीत की तैयारी है. मतलब साफ है कि यूपी में बाजी मारने के लिए जिस तरह से जातिगत समीकरणों को साधना अनिवार्य है...उसी अनिवार्यता को साधने के आरंभ बीजेपी की तरफ से शुरू कर दिया गया है.