देश भर की निगाहें इस वक्त बंगाल के चुनाव पर टिकी हुई हैं. सूरमा हों या सियासी पंडित, सभी का विश्लेषण बंगाल पर जारी है लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि सियासी समर में चुनौतियां का जाल केवल बंगाल में ही गहरा है. पश्चिम में बंगाल के साथ ही साथ पूर्वोत्तर में भी सियासत की एक कड़ी और बड़ी जंग लड़ी जा रही है. राज की बात ये है कि जितना पेचीदा चुनाव बंगाल का है उससे कम पेचीदगियां असम विधानसभा चुनाव में नहीं हैं. मुकाबला यहां पर भी कड़ा है और धार्मिक ध्रुवीकरण की धुरी पर बाजी बंगाल जैसी दिलचस्प हो गई है.


दरअसल, बीजेपी ने जिस तरह से बंगाल को जीतने के लिए पूरा दम-खम लगा रहा है ठीक उसी तरह से नाक की लड़ाई असम में भी लड़ी जा रही है. मिशन ईस्ट में लगी बीजेपी के लिए असम एक महत्वपूर्ण राज्य है और मौजूदा दौर में सत्ता में भी बीजेपी ही है ऐसे में वापसी के लिए बीजेपी ने पूरी ताकत झोंक रखी है. वहीं कांग्रेस ने भी अपने पुराने सियासी किले को वापस पाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है. असम में जारी सियासत की इस चुनावी लड़ाई में मुद्दे विकास के भी हैं, बुनियादी जरूरतों के भी हैं और रोजगार के भी हैं. इसके साथ ही साथ भले ही इंटेसिटी कम हो गई लेकिन सी.ए.ए और एन.आर.सी गूंज भी असम में अन्य राज्यों की अपेक्षा ज्यादा है जिसके दम पर कांग्रेस बीजेपी के मिशन विजय को रोकने में जुटी हुई है.


असम में कांग्रेस की पुरजोर कोशिश


मामला केवल विकास और राष्ट्रीय मुद्दों तक ही सीमित नहीं है. कांग्रेस रूट लेवल तक सियासी पकड़ मजबूत करने के लिए चाय बागान में काम करने वाले कामगारों के मानदेय बढ़ाने का वादा भी किया गया है. साथ ही साथ ध्रवीकरण की राजनीतिक में अल्पसंख्यक वोटबैंक को साधने के लिए ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के साथ गठबंधन किया है. एआईयूडीएफ प्रमुख मौलाना बदरुद्दीन अजमल और उनकी पार्टी से गठबंधन करके एक बड़े वोट बैंक पर पकड़ बनाने की जोरआजमाइश में कांग्रेस लगी हुई है.


एक तऱफ कांग्रेस की सत्तावापसी की तड़प है तो दूसरी तरफ बीजेपी सत्ता में अपनी बुलंदी को बनाए रखने के लिए जुटी हुई है. स्थानीय समीकरणों को साधने के लिए बीजेपी ने अपने पुराने सहयोगी क्षेत्रीय पार्टी असम गण परिषद और यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) को अपने गठबंधन का साथी बनाया है. असम में बीते 5 साल में हुए कामकाज के साथ ही साथ आगे के विजन पर बीजेपी जनता के साथ संवाद कर रही है.


बीजेपी की काट


असम विधानसभा चुनाव की रणनीतियों से जो राज की बात निकलकर सामने आ रही है वो ये है कि जिस तरह से रूट लेवल तक अपनी सियासत को साधने के लिए कांग्रेस ने चाय बगान तक फोकस किया है.....ठीक इसी तर्ज पर बीजेपी भी बुनियादी स्तर पर काट तैयार कर चुकी है. कांग्रेस बगान के जरिए अंतिम व्यक्ति तक पहुंचना चाहती है तो बीजेपी के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचा का फॉर्मूला हैं नामघर.


दरअसल वैष्णव परंपरा के संवाहक और असम के सर्वमान्य और सर्वश्रेष्ठ आचार्य श्रीमंत शंकरदेव ने नामघर स्थापित किए और वही परंपरा पूरे असम में फैली और जन-जन से जुड़ी गई. भक्ति प्रचार में नामघरों का जितना बड़ा योगदान रहा उतनी ही उपेक्षा इन नामघरों को कांग्रेस शासनकाल में झेलनी पड़ी. लेकिन बीजेपी की सरकार आने के बाद वित्त मंत्री हेमंत बिस्वशर्मा ने प्रदेश के लगभग 8 हजार नामघरों को ढाई ढाई लाख का आवंटन असोम दर्शन योजना के अंतर्गत कर दिया.


नाम घरों का जीर्णोद्धार


इस योजना का असर ये हुआ कि बदहाली के मुहाने पर पहुंच रहे नाम घरों का जीर्णोद्धार हुआ, सुंदरीकरण और सुदृढ़ीकरण हुआ तो वहीं इन नामघरों से जुड़े अनुयायियों के मन पर बीजेपी की अच्छी छाप बन गई. और राज की बात ये है कि नामघरों पर बीजेपी के फोकस से सियासी बिसात पर बुलंदी पहले से ज्यादा होती दिख रही है. असम में गांव-गांव में नामघरों की स्थापना हुई है और वैष्णव परंपरा के साथ ही साथ सनातन संस्कृति से जुड़े लोग यहां पर प्रार्थना के लिए पहुंचते हैं.


मतलब साफ है कि नाम घर पर फोकस ने जहां बीजेपी को सांस्कृतिक परंपरा और सहेजने का श्रेय दिया वहीं बूथ लेवल तक चुनाव के लिए बुलंद कर दिया. अब देखने वाली बात होगी कि ये बुलंदी चुनाव के परिणामों में कितना तब्दील हो पाती है और इसका असम के सियासी भविष्य पर क्या असर पड़ता है.


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