उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण नीति के ऐलान के साथ ही पूरे देश में बवाल मचा हुआ है. किसी को सियासत प्रभावित होने का डर है तो किसी को सामाजिक समीकरण बिगड़ने का डर है और कुछ ऐसे भी हैं जो इस फैसले को प्रकृति के खिलाफ बगावत के तौर पर देख रहे हैं.
भले ही ये आम धारणा है कि बढ़ती हुई आबादी और घटते हुए संसाधनों की समस्या के बीच यूपी सरकार की इस पहल पर विपक्ष के सवाल अपनी जगह हैं, लेकिन बीजेपी संगठन और राज्य सरकार में इस कानून को लेकर असहजता है. राज की बात ये है कि इस कानून को लागू करने में विपक्ष नहीं बल्कि अपनों की वजह से दुश्वारियां आना तय हैं. कानून को लेकर मुद्दों की और सवालों की कमी भी नहीं है. जितने लोग इस जनसंख्या नीति के समर्थन में हैं उससे कहीं ज्यादा विरोध में हैं और विरोध भी खांटी राजनीतिक वर्चस्व या भागीदार को लेकर.
ऐसा नहीं है कि पहली बार ये कानून किसी राज्य में लागू हो रह है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में तो दो बच्चों से ज्यादा होने पर स्थानीय निकाय के चुनाव लड़ने पर रोक है ही. मगर उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा राज्य है और यहां जब कोई फैसला लिया जाता है तो उस पर सियासत भी बड़ी होती है तो.. राज की बात ये है कि यूपी में योगी सरकार के फैसले से पार्टी के बाहर से लेकर भीतर तक उहापोह की स्थिति बन गई है. भविष्य में बनने वाले हालतों का भय बहुतों को परेशान कर रहा है. खासतौर से उन्हें ज्यादा जिनके जीवन की लीक राजनीति से जुड़ी हुई है.
राज की बात ये है कि उत्तर प्रदेश के 30 से ज्यादा जनप्रतिनिधियों, जिनमें विधायक और मंत्री भी हैं, उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की है और जनसंख्या नीति को लेकर अपनी चिंताओं को साझा किया है. दरअसल, अगर स्थानीय निकायों में धार्मिक और जातीय आधार पर गणित देखें तो 13 फीसद मुस्लिम और 12 फीसद सवर्ण प्रतिनिधि हैं.
जाहिर है कि एससी और ओबीसी से ज्यादा लोग हैं. वैसे राजनीतिक रूप से धारणा तो ये है कि मुस्लिम समुदाय में दो से ज्यादा बच्चे वाली आबादी ज्यादा है. मगर अनुपात का भले फर्क हो, लेकिन हिंदुओं में भी खासतौर से ओबीसी और एससी वर्ग में भी दो से ज्यादा बच्चे वाले अभिभावक खासे हैं. हालांकि, ड्राफ्ट में निकायों के जनप्रतिनिधियों का ही जिक्र है. लेकिन अगर यह कानून विधानसभा में लागू हुआ तो केवल बीजेपी के ही 152 विधायकों पर कानून की तलवार लटक जाएगी, क्योंकि उनके 2 से ज्यादा बच्चे हैं.
बीजेपी के जिन प्रतिनिधियों ने सीएम योगी से मुलाकात की है उनकी मांग ये है कि 2 बच्चों की पॉलिसी को लागू करने के लिए कोई अग्रिम तारीख तय की जाए और उसके बाद अगर कोई कानून का उल्लंघन करता है तो उस पर नियमों का पेंच कसा जाए. ये मांग इसलिए की गई है क्योंकि जिनके पहले ही 2 से ज्यादा बच्चे हैं अगर वो भी इस कानून के दायरे में गिने गए तो राजनैतिक जीवन के समापन के ही हालात उनके सामने बन जाएंगे.
राज की बात ये है कि विधायकों और मंत्रियो की सीएम से मुलाकात केवल व्यक्तिगत कारणों से नहीं बल्कि सामाजिक कारणों से भी थी. दरअसल जनसंख्या के आकड़ों पर जाएं तो मुस्लिम समाज की जनसंख्या वृद्धि दर 25 फीसदी से 17 फीसदी पर पहले ही आ चुकी है और हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 17 फीसदी से 11 फीसदी हो चुकी है. मतलब ये हुआ कि लोग जागरुक हुए हैं तो क्या ऐसे में उन पर एक सख्त कानून लागू करना उचित होगा.
दूसरा मसला सामाजिक संतुलन और समीकरणों से भी जुड़ा हुआ है. आंकड़ों पर जाएं तो ओबीसी और एससी वर्ग की जनसंख्या वृद्धि जनरल कैटेगरी से कहीं ज्यादा है. ऐसे में प्रतिनिधित्व का संतुलन बनाए रखने की चुनौती भी भविष्य में पैदा हो सकती है.
बात केवल आंकड़ों और सामाजिक समीकरणों तक सीमित होती तो समाधान शायद आसान होता, लेकिन मामला इसके आगे भी है. सियासी तौर पर जनसंख्या नीति को विपक्षी दलों ने बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति से जोड़ना शुरू कर दिया. ये प्रोजक्ट करने की कोशिश की जा रही है कि यूपी की योगी सरकार इस कानून के जरिए मुसलमानों को टारगेट करने की कोशिश कर रही है.
इसी बहस के बीच AIMIM प्रमुख असदुद्दीन औवैसी ने केंद्र और योगी सरकार को घेर लिया है. AIMIM प्रमुख ने यूपी जनसंख्या नियंत्रण विधेयक के प्रस्ताव पर कहा कि योगी सरकार केंद्र के खिलाफ जा रही है. इस बात के पीछे असदुद्दीन ओवैसी ने दिसंबर 2020 में सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे का हवाला दिया है, जिसमें केंद्र की मोदी सरकार ने कहा कि सन 2000 की पॉपुलेशन पॉलिसी के मुताबिक 2018 में टोटल फर्टिलिटी रेट (Total Fertility Rate) 3.2 फीसदी से घटकर 2.2 फीसदी रह गई है. इस गिरावट के कारण देश में दो बच्चों की नीति नहीं आ सकती है.
ऐसा नहीं कि विरोध केवल विपक्षी ही कर रहे हैं. जनसंख्या निंयत्रण के मसौदे पर विश्व हिंदू परिषद ने भी आपत्ति जताई है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी खुल कर कहा है कि कानून बना देने से जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं हो सकता है. हालांकि एनसीपी ने इस नीति का समर्थन किया है औऱ मध्य प्रदेश में भी ऐसे ही कानून की मांग जोर शोर से उठ गई है, लेकिन इतना तो तय है कि विरोध औऱ विरोधाभास का दायरा भी छोटा नहीं है.
आंकड़ों पर जाएं तो उत्तर प्रदेश में फर्टिलिटी रेट 1993 में 4.82 था जो 2016 में 2.7 फीसदी हो गया और सरकारी अनुमान है कि 2025 तक ये 2.1 हो जाएगा. इन आंकड़ों को आधार बनाकर भी यूपी की नीति पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं.
ऐसे में योगी सरकार इस कानून को सर्वसम्मति से लागू कर पाए....इस राह में काफी चुनौतियां दिखती हैं. इस बात से कोई गुरेज नहीं कर सकता की जनसंख्या नियंत्रण कानून वक्त की जरूरत है. लेकिन इसके दूरगामी परिणामों को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं उसको दरकिनार करना भी किसी सरकार के लिए इतना आसान साबित नहीं होगा.