नई दिल्ली: यूपी चुनाव बीजेपी के सामने सत्ता कायम रखने का जतन है. तो सपा या बसपा के सामने सत्ता पाने का. कुछ छोटे दलों के लिए अपनी प्रसांगिकता या सियासत में सक्रिय भूमिका बचाने या पाने का संघर्ष. इन सबके बीच कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा संघर्ष है. देश की सबसे पुरानी पार्टी का यह संघर्ष दोहरा है. पहला तो यूपी की राजनीति में अपना अस्तित्व बचाना और दूसरा फिलहाल प्रदेश की कमान संभाल रही प्रियंका की साख को बचाना. 


राज की बात ये है कि यूपी की सियासत में तमाम संघर्षों के बीच प्रियंका का करिश्मा और सम्मान बचाने की जद्दोजहद भी बड़ी है और दिक्कत ये है कि जो फार्मूला कांग्रेस के संकटमोचकों को समझ आ रहा है, वह यहां लागू होना मुश्किल दिख रहा है. पूरा राज खोलें, उससे पहले आपके लिए एक इशारा कि इस फार्मूले का रास्ता साइकिल से होकर जाता है, लेकिन अखिलेश यादव तो कांग्रेस के हाथ ही नहीं आ रहे हैं.


राहुल गांधी की तरह ही प्रियंका भी लगातार यूपी को मथ नहीं सकी
अमेठी से चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के सम्राट से फिर युवराज बन गए राहुल गांधी ने प्रत्यक्ष तौर पर यूपी से खूद को अलग कर लिया है. चूंकि वायनाड से सांसद हैं, लिहाजा केरल समेत दक्षिणी राज्यों की तरफ ही उन्होंने ज्यादा रुख किया. कांग्रेस की असली ताकत और गढ़ रहे उत्तर प्रदेश में पार्टी को पुर्नजीवित करने का बीड़ा फिलहाल उनकी बहन और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के कंधों पर है.


प्रियंका गांधी का नाम जब यूपी के लिए आया था तो राजनतीक पंडितों से लेकर उनकी पार्टी तक को राज्य की सियासत में कुछ रोमांच बढ़ने की उम्मीद बढ़ी थी. प्रियंका ने गंगा यात्रा से जब इसकी शुरुआत की तो शुरुआत में मीडिया कवरेज से लेकर जनता का ध्यान भी गया. मगर राहुल गांधी की तरह ही प्रियंका भी लगातार यूपी को मथ नहीं सकी. लिहाजा, कांग्रेसी तो जुटे, लेकिन जनता के बीच वैसा प्रभाव नहीं दिखा, जिसकी अपेक्षा थी.


प्रियंका ट्विटर पर ही ज्यादा सक्रिय दिखाई दीं
कोरोना, महंगाई, कानून-व्यवस्था या महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर प्रियंका ट्विटर पर ही ज्यादा सक्रिय दिखाई दीं. प्रदेश में मृतप्राय दिख रही कांग्रेस को प्रियंका ने स्पंदन तो दिया, लेकिन उसे अपने पैरों पर खड़ा करने में नाकाम रहीं. राज की बात ये है कि इस बात को प्रियंका और उनके प्रबंधक भलीभांति समझ रहे हैं. अकेले यदि कांग्रेस लड़ती है तो कांग्रेस का सूपड़ा तो साफ है ही, लेकिन प्रियंका की साख और भविष्य भी ताक पर आ सकता है. इमरान प्रतापगढ़ी या इमरान मसूद जैसे चेहरे आगे कर प्रियंका ने मुसलिम राजनीति में दखल बनाकर एक तरह से सपा पर दबाव भी बनाने की कोशिश की. राज की बात ये कि कांग्रेस चाहती है कि सपा से समझौता हो, लेकिन अखिलेश हाथ नहीं रखने दे रहे हैं.


बीजेपी विरोधी वोट में कांग्रेस को शामिल करने की जुगत में पीके
पश्चिम बंगाल में तृणमूल की जीत के बाद तमाम मोदी विरोधी राजनीतिक दलों के चहेते और पालिटिकल मास्टर के रूप में ख्यात प्रशांत किशोर को प्रियंका की तरफ से सपा से समझौता करने की जिम्मेदारी दी गई. प्रशांत किशोर यानी पीके यूपी में भी बीजेपी के खिलाफ घेरेबंदी में राष्ट्रीय विकास मंच यानी शरद पवार और ममता बनर्जी के अलावा अन्य छोटे दलों को सपा के साथ एक छतरी के नीचे लाने में लगे हैं. आम आदमी पार्टी भी अखिलेश के साथ चुनाव लड़ने को उत्सुक है. राज की बात ये कि पीके का फार्मूला बीजेपी विरोधी वोटों को जो न बंटने का है, उसमें वो कांग्रेस को भी शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ जाने को तैयार नहीं है.


अखिलेश कुछ शहरी सीटें AAP को दे सकते हैं
राज की बात ये कि कांग्रेस की तरफ से इस दिशा मे अखिलेश से संपर्क भी किया जा रहा है, लेकिन वह बातचीत की मेज पर भी नहीं आ रहे. अगले हफ्ते पीके की मुलाकात अखिलेश से होनी है, जिसमें चर्चा आगे बढ़ाई जाएगी. दरअसल, अखिलेश के खेमे का तर्क साफ है कि कांग्रेस राष्ट्रीय दल है. तृणमूल से लेकर आम आदमी पार्टी तक से वह अलग-अलग राज्यों में चुनाव लड़ रही है.


महाराष्ट्र में भी एनसीपी के साथ झगड़ा चल ही रहा है. ऐसे में कांग्रेस इस गठबंधन में कहां फिट होगी. वैसे राज की बात ये कि अखिलेश कुछ शहरी सीटें जो सपा कभी नहीं जीती है, उसे आम आदमी पार्टी को दे सकते हैं. लेकिन उनके इस फार्मूले में कांग्रेस कहीं फिट नहीं होती. उधर कांग्रेस के लिए यह अपना भविष्य या भविष्य की नेत्री की साख बचाने का सवाल है.


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