अफगानिस्तान में तबाही का मंजर पूरी दुनिया पर तारी है. कराहती मानवता और दम तोड़ती उम्मीदों की कब्रगाह बन चुका काबुल भारत को अपना साझीदार बनाकर अंतर्राष्ट्रीय संजीवनी लेना चाहता है. चीन और पाकिस्तान के कंधों पर सवारी और रूस की चिरौरी कर तालिबान भारत के समर्थन के लिए अपने पासे फेंक रहा है.
ठीक उस शकुनि कि तरह जिसकी धूर्तता ने महाभारत जैसा विनाशकारी युद्ध की पटकथा लिख दी थी. मगर भारत धर्मराज की तरह इस चौसर पर बिल्कुल फंसने नहीं जा रहा. तालिबानी पासों के पीछे एक हाथ चीन और दूसरा पाकिस्तान का है और रूस तालिबानी हुकूमत की इस चौसर का निगहबान बना हुआ है. ये जटिल स्थिति समझते हुए भारत ने इस शकुनि वाली चौसर पर अपनी मुट्ठी बंद कर ली है. राज की बात इसी तालिबानी चौसर पर और उस शर्त पर जो उसने भारत के सामने रखी है और क्या है हमारा रुख, इस पर करेंगे बात.
भारत ने की हालातों से निपटने के लिए तैयारी शुरू
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की तैयारियों के साथ ही भारत ने इन हालात से निपटने के लिए अपनी तैयारियां शुरू कर दी थीं. राज की बात में हमने पहले ही आपको बताया था कि अफगानिस्तान को लेकर जो कुछ भी हो रहा है, उसमें भारत प्रत्यक्ष तौर पर कोई भूमिका नहीं निभाएगा. अपने लोगों की चिंता और अपने हितों की चिंता ही उसकी वरीयता होगी. हालांकि, काबुल का किला इतनी जल्दी ढह जाएगा और तालिबान पूरी तरह काबिज हो जाएगा, ऐसा भारतीय नीति-नियंताओं ने भी नहीं सोचा था.
इन परिस्थियों में फिलहाल तो भारत की अपनी प्राथमिकता अपने लोगों को सुरक्षित निकालना ही है. इसके लिए भारत निश्चित तौर पर काबुल में मौजूद तालिबान से संपर्क में है, लेकिन औपचारिक संबंध रखने से फिलहाल परहेज कर रहा है. राज की बात है कि तालिबान लगातार भारत से राजनयिक संपर्क बनाने के लिए अपना दबाव बना रह है और एक उदारवादी चेहरे के साथ अपनी पूरी ताकत झोंके हुए है. साथ ही एक शर्त या सौदा भी उसने भारत के सामने फेंका है, लेकिन हमारे कूटनीतिज्ञ अभी बिल्कुल जल्दी में नहीं हैं और अपनी मुट्ठी बंद रखी है.
तालिबान को भारत की मान्यता चाहिये
राज की बात ये है कि पाकिस्तान, चीन और रूस के समर्थन के बावजूद किसी भी कीमत पर तालिबान को भारत की मान्यता चाहिये. इसके बगैर उसके लिए एशिया और फिर दुनिया के साथ राजनयिक रिश्ते बनाना दुष्कर है. क्योंकि पाकिस्तान, चीन और रूस के हित या स्वार्थ तालिबान के साथ जैसे जुड़े हैं, वह दुनिया जान रही है. यदि भारत को वह अपने समर्थन में जुटा ले तो फिर तालिबानी हुकूमत को यकीन है कि उसे दुनिया में मान्यता मिल जाएगी. इसीलिए, तालिबान अपना नया चेहरा दिखाने की कोशिश कर रही है और काबुल की हुकूमत में अफगानिस्तान की सरकार के बड़े चेहरों, दलो और धड़ों को जोड़कर एक सम्मिलित सरकार बनाकर अपना दावा मजबूत करने की कोशिश कर रही है.
तालिबान की ये कोशिशें तो पूरी दुनिया के सामने अपने नए अवतार का संदेश देने के लिए है. इसके साथ ही भारत को वह अपनी नेकनीयती का सुबूत देने के साथ-साथ कुछ समझौते की मेज पर कुछ प्रस्ताव भी रख रहा है. यही वह चौसर है, जिससे भारत सतर्क है. राज की बात ये है कि तालिबान ने भारतीय नीति-नियंताओं तक ये संदेश पहुंचाया है. वह इल्तिजा कर रहा है कि भारत ने अफगानिस्तान में जितनी भी परियोजनाएं चला रखी हैं, सबको जारी रखे. चाहे वह बांध बनाने हों, सड़कें हो या फिर अन्य प्रतिष्ठान. साथ ही साथ वह ईरान जा रही भारत की पाइपलाइन में मदद के साथ-साथ व्यापारिक हितों का हवाला देते हुए अपनी भूमिका को और बढ़ाने का दबाव भी बना रहा है. इसके एवज में उसे चाहिए भारत से सरकार के तौर पर मान्यता. जाहिर तौर पर इसके लिए वह भारत से उसका दूतावास भी खोलने को कह रहा है. सुरक्षा की गारंटी भी दे रहा है.
तालिबान की इन कोशिशों के बावजूद भारत आसानी से इस जाल में फंसने के लिए तैयार नहीं है. हमने पहले ही आपको बताया था कि भारत अपनी तरफ से बातचीत के रास्ते कभी बंद नहीं करेगा, लेकिन इस तरह की सरकार को मान्यता दे जो मानवता के खिलाफ हो, वह भी नहीं होगा. भारत फिलहाल इस बात का इंतजार कर रहा है कि तालिबान की सरकार किस शक्ल और किस राजनीतिक फार्मूले के साथ आती है.
अमेरिका या अन्य देश किस तरह से इस स्थिति को लेते हैं
हामिद करजई, अब्दुल्ला अब्दुल्ला जैसे नेताओं का भावी सरकार को चलाने वाली परिषद में होना भारत के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है. इससे भारत को अपने हितों की हिफाजत के लिए संवाद में सुविधा होगी. साथ ही पारंपरिक नेताओं की मौजूदगी तालिबान की मनमानी और पाकिस्तानी के एक-तरफा प्रभाव को बढ़ने से रोकेगी, ऐसा भी भारतीय पक्ष मानता है. मगर ये भी देखा जाएगा कि आखिर अमेरिका या अन्य देश किस तरह से इस स्थिति को लेते हैं.
ध्यान रहे कि सर्वदलीय बैठक में भी अधिकतर दल इस बात से सहमत नजर आए कि फिलहाल अफगानिस्तान के हालात की हवा किस तरफ रुख लेती है उसको देखने के बाद ही भारत को निर्णय करना चाहिए. सरकार ने भी स्पषऱ्ट कर दिया है कि अफगानिस्तान के साथ पुराने रिश्तों के मद्देनजर भारत अभी पक्षों के साथ सम्पर्क में है. सरकार की तरफ से रखे गए वेट एंड वॉच के नजरिए का भी अधिकतर नेताओं ने समर्थन किया है. जाहिर है कि भारत की विदेश नीति किसी दल की नहीं, बल्कि पूरे देश की है और सभी राजनीतिक दल इसमें साथ हैं. वैसे भी यूएनजीसीए का चेयरमैन पद भारत के पास होने के नाते उसकी भूमिका भी यहां ज्यादा संवेदनशील और अहम है.
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