राज की बात: अफगान मामले पर आरएसएस और भारत सरकार में मतभेद नहीं, सोच समझ कर उठा रहे कदम
रणनीतिक तौर पर अफगानिस्तान भारत के लिए बेहद जरूरी भी है. वहां पर यदि सब कुछ प्रतिकूल होता है तो जाहिर तौर पर हरदम नफरत की आग में झुलसते पाकिस्तान को रणनीतिक फायदा जरूर मिलता है.
इसमें कोई शक नहीं कि भारत की विदेश नीति किसी दल, व्यक्ति या संगठन मात्र के कहने पर नहीं चलती. सरकार जो भी फैसला लेती है उसमें सिर्फ और सिर्फ देश के तात्कालिक और दूरगामी हितों के बीच में सामंजस्य बैठाना प्राथमिकता होती है.
राज की बात ये है कि इन तात्कालिक और दूरगामी हितों के बीच संतुलन के काम में बीजेपी का पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपनी भूमिका निभा रहा है. कैसे...ये समझने के लिए अफगानिस्तान और भारत के बीच तमाम सांस्कृतिक संबंध और उसकी भौगोलिक सीमाओं पर फौरी नजर भी जरूरी है.
अफगानिस्तान भारत के लिए बेहद जरूरी भी है
ये सच है कि भारत की सीमा अफगानिस्तान से नहीं लगती. मगर रणनीतिक तौर पर अफगानिस्तान भारत के लिए बेहद जरूरी भी है. वहां पर यदि सब कुछ प्रतिकूल होता है तो जाहिर तौर पर हरदम नफरत की आग में झुलसते पाकिस्तान को रणनीतिक फायदा जरूर मिलता है. वो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से अपने आतंकी कैंप वहां ले जा सकता है और तालिबान का साथ लेकर दहशतगर्दी को बढ़ाने की कोशिश कर सकता है.
हालांकि, तालिबान लगातार कश्मीर से खुद को दूर दिखाकर उसे दो देशों के बीच का मामला बता रहा है. इसलिए भारत भी तालिबान के साथ न दिखते हुए भी ऐसा कुछ नहीं करना चाहता कि पाकिस्तान उसे अपने साथ साजिशों में खुले तौर पर ले सके.
संघ और भारत सरकार के बीच कोई मतभेद भी नहीं
इसीलिए, अफगानिस्तान के मुद्दे पर भारत काफी फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है. हमारे हितों को नुकसान न हो, इसलिए भारतीय कूटनीतिज्ञ टीम तात्कालिक कदम उठा रही है, लेकिन दीर्घकालीन हित और अतीत के संबंधों के मद्देनजर आरएसएस ये बिल्कुल नहीं चाहता कि किसी भी तरह से भारत तालिबानी हुकूमत को अपनी तरफ से मान्यता देते दिखे.
राज की बात ये भी है कि इस मसले पर संघ और भारत सरकार के बीच कोई मतभेद भी नहीं है और जिस तरह से तमाम दलों के साथ बैठक कर एक राय बनाई गई है, उसी तरह संघ भी अपना पक्ष खुलकर सरकार से रख रहा है. राज की बात ये है कि अफगानिस्तान में जो कुछ घटनाक्रम हुआ, उसके बाद संघ के विदेश विभाग से जुड़े अधिकारी और शीर्ष नेतृत्व के बीच भी मंथन हुआ.
सरसंघचालक मोहन भागवत की विदेश देखने वाले राम वैद्य और अन्य अधिकारियों के साथ चर्चा हुई. संघ का सुझाव है कि चूंकि, अफगानिस्तान में जो भी विकास कार्य भारत ने किए वह अमेरिकी प्रतिष्ठान की देख-रेख या छत्रछाया में करे. अब अमेरिका कह रहा है कि अगर तालिबान तमाम राजनीतिक दलों को लेकर समेकित सरकार बनाता है तो वह मान्यता देने पर सोच सकता है.
भारत अपना पक्ष रखे
संघ का स्पष्ट मानना है कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के पत्ते खोलने के बाद ही भारत अपना पक्ष रखे. खासतौर से अफगानिस्तान में जिस तरह की तालिबानी बर्बरता के किस्से और तस्वीरें हैं, उनका असर पूरे देश और खासतौर से उत्तर प्रदेश जो चुनाव में जाने वाला है, वहां भी दिख रहा है.
संघ का मत साफ है कि विदेश नीति अपने हितों के मद्देनजर चलेगी, लेकिन बयानों और बातचीत में पूरी तरह चुप्पी रखी जाए. मतलब मुट्ठी बंद रखी जाए. खास बात है कि वो भारत सरकार की अघोषित नीति है कि अफगानिस्तान पर अपनी तरफ से कोई भी जल्दबाजी नहीं दिखाई जाएगी. और सबसे बड़ी बात है कि इस मुद्दे पर पीएम नरेंद्र मोदी शायद ही कुछ सीधे तौर पर नाम लेकर बोलें, क्योंकि उनके बोलने का मतलब होगा पत्थर की लकीर और इस समय भारत की रणनीति लचीली होगी और मौन ज्यादा मुखर होकर बोलेगा.
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