कोरोना महामारी के साइडइफेक्ट के बाद हिली अर्थव्यस्था को संभालने के लिए देश सरकार ने पूरी ताकत झोंक रखी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफसरों को सीधे निर्देश दिए हैं कि रेड टेप की उलझन में उद्योगों और उद्योगपतियों को हरगिज न फंसाया जाए.


सीधे निर्देश हैं कि कानून-कायदे कम हों, सुगमता ज्यादा हो और देश में इनवेस्टमेंट बढ़ाने और नए उद्योगों को लगाने में अफसर केवल मदद की भूमिका में रहें. जांच पड़ताल के नाम पर अड़ंगा एक दम न लगाया जाए. बात का सारांश ये कि ईज़ ऑफ डूंइंग बिजनेस के सिद्धान्त पर काम हो.


पीएम के इस विजन पर काम हो भी रहा है और कागजी कार्रवाई के झंझट में कम से कम इन्वेस्टर्स फंसे इस बात का ख्याल भी रखा जा रहा है. मिनिमम गर्वनेंस और मैक्सिमम डिलिवीरी के सिद्धान्त पर विपक्षी दलों के शासन वाले राज्य भी काम कर रहे हैं लेकिन चौकाने वाली एक राज की बात ये है कि देश में आर्थिक सुधार की इसी मुहिम को एक बीजेपी शासित राज्य ने झटका दे दिया है. ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस की मुहिम पर गठबंधन वाली गठरी बोझ बनने लगी और उस राज्य का नाम है हरियाणा.


इस कानून से ईज ऑफ डूइंग बिजनेस का नारा औंधे मुंह हो गया है


हम उसी हरियाणा की बात कर रहे हैं जो देश में होने वाले बड़े इनवेस्टमेंट्स का हब है. हम उसी हरियाणा की बात कर रहे हैं जहां तमाम मल्टीनेशनल कंपनियां काम कर रही हैं और बड़ी संख्या में देश की प्रतिभाओं को रोजगार दे रही हैं. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उद्योगपतियों की पसंद वाले हरियाणा की सरकार ने एक ऐसा कानून बना दिया है जिससे ईज ऑफ डूइंग बिजनेस का नारा औंधे मुंह हो गया है और उद्योगपति कानून के खिलाफ हाईकोर्ट की शरण में पहुंच गए हैं.


सबसे पहले आपको पूरा मामला तफ्सील से समझाते हैं. मामला ये है कि हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार ने एक कानून पास किया है जिसके तहत प्रदेश में काम कर रहे उद्योगों के लिए स्थानीय लोगों को नौकरी में 75% आरक्षण देना अनिवार्य होगा. यह अनिवार्यता 50 हजार रुपये की नौकरी तक के लिए रखी गई है और नियम नहीं मानने पर सख्त कार्रवाई का प्रावधान रखा गया है. इस फैसले का असर ये होगा कि कंपनियों को टैलेंज के बजाय स्थानीयों को तरजीह देने की मजबूरी हो जाएगी जिससे उनके बिजनेस पर भी असर होगा और आने वाले वक्त में इनवेस्टर्स राज्य में आने से कतराने लगेंगे.


इस कानून के बनने के बाद पहला सवाल ये उठता है कि जब ईज ऑफ डूइंग बिजनेस का मंत्र खुद पीएम मोदी का दिया हुआ है तब उन्हीं की पार्टी किसी राज्य में इसके विपरीत कानून कैसे बना सकती है तो इस सवाल का जवाब है गठबंधन की मजबूरी. दरअसल खट्टर सरकार ने इस कानून को उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला और उनकी पार्टी जजपा के दबाव में पास किया है. अब सवाल ये उठता है कि जजपा के साथ गठबंधन करके सत्ता में आई भाजपा आखिर इतना मजबूर कैसे हो गई कि उन्हे ऐसा कानून बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा जो प्रधानमंत्री के आर्थिक विजन को ही चुनौती देता हो.


खट्टर सरकार के सामने कोई चारा नहीं बचा था


तो राज की बात ये है कि जजपा और दुष्यंत चौटाला की जिद के आगे झुकने के सिवा खट्टर सरकार के सामने कोई चारा भी नहीं था. पहली मजबूरी तो ये कि गठबंधन तोड़ें तो दूसरा विकल्प नहीं है और दूसरी मजबूरी ये कि किसान आंदोलन के साथ जाटों की नाराजगी भाजपा पहले से ही झेल रही है, ऐसे में दुष्यंत चौटाला को भी नाराज करके जाटों के और बड़े धड़े को नाराज करने का खतरा बढ़ जाएगा जो रिस्क लेने की स्थिति में भाजपा अभी नहीं है.


इस खबर में एक राज की बात और भी है. राज की बात ये कि उत्तराखण्ड की त्रिवेंद्र रावत सरकार की ही तरह नाकामियों के आरोप खट्टर सरकार पर भी लगते रहे हैं और इस कानून के बाद एक बाऱ फिर से हरियाणा की बीजेपी सरकार सवालों के घेरे में है. सवाल ये भी उठने लगे हैं कि दूसरे टर्म में चल रहे मनोहर लाल खट्टर की स्थिति भी क्या राज्यहित में फैसले लेने के मामले में त्रिवेंद्र सरकार जैसी ही हो गई है.


इन सवालों के जवाब वक्त और सियासी कहासुनी के दौरान आगे मिल जाएंगे लेकिन जो बात साफ है वो ये कि हरियाणा सरकार के इस कानून से बिजनेस पर भी फर्क पड़ेगा, बिजनेसमैन पर भी नकारात्मक फर्क पड़ेगा, इनवेस्टमेंट पर भी उल्टा असर होगा और सरकार की सोच और समझ पर भी निश्चित तौर पर सवाल उठेंगे और ये इसलिए क्योंकि जिस दौर में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को बढ़ावा देने की जरूरत है उस दौर में खट्टर सरकार ने गठबंधन के दबाव में देश प्रदेश के आर्थिक हितों से समझौता करने वाला कानून पास कर दिया.


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