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राज की बात: भारतीय राजनीति के ट्रंप कार्ड और जिताऊ फैक्टर प्रशांत किशोर का भविष्य क्या होगा

आज राज की बात में हम आपको बताएंगे कि कई राज्यों के दलों और उनके सरपरस्तों के सियासी भविष्य को सेट कर देने वाले प्रशांत किशोर का भविष्य कहां अटका हुआ है.

सियासत ऐसी चीज है जो मैनेज नहीं हो सकती, इसे साधने के लिए जनता के मन में उतरना पड़ता है. लेकिन बीते कुछ सालों में ये परिभाषा बदली है. नई परिभाषा को गढ़ने वाले नाम है पीके यानि की प्रशांत किशोर.

यूपी से बंगाल तक, पंजाब से महाराष्ट्र तक ये धारणा आम हो चुकी है कि चुनावी गणित में पीके को जोड़ दिया जाए तो आंकड़ों का ओके होना लगभग तय हो जाता है. दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय राजनीति के ट्रंप कार्ड और जिताऊ फैक्टर बन गए हैं पीके. सियासी सपनों के सौदागर बन गए हैं पीके. निराधार सूरमाओ के भविष्य के आधार बन गए हैं पीके. लेकिन जब ये सवाल उठता है कि आखिर पीके का भविष्य क्या है तब स्थिति अस्पष्ट और उहापोह वाली हो जाती है.

प्रशांत किशोर का भविष्य कहां अटका हुआ है?

आज राज की बात में हम आपको बताएंगे कि कई राज्यों के दलों और उनके सरपरस्तों के सियासी भविष्य को सेट कर देने वाले प्रशांत किशोर का भविष्य कहां अटका हुआ है. चूंकि प्रशांत किशोर ये बात जाहिर चुके हैं कि सियासी समीकरणों को साधने का काम उनकी टीम तो कर रही है लेकिन बहुत लंबे समय तक उनका ये करने का मन नहीं है. तो फिर सवाल ये है कि आखिर पीके करना क्या चाहते हैं.

राज की बात है कि पॉलिटिकल मास्टर प्रशांत किशोर की भी सियासी महत्वाकाक्षाएं हैं. भले ही अपनी राजनीतिक इच्छाओं पर प्रशांत काफी शांत दिखें लेकिन उनका मन उच्च सदन यानि की राज्य सभा में सर्व करने का है. राज की बात ये है कि चाहत और मोह केवल राज्य सभा का ही नहीं है. मन संगठन के सर्वोच्च पदों पर भी काम करने का है.

पीके खुद राज्य सभा क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं?

फिर सवाल ये उठता है कि राजनीतिक लोगों को सत्ता के शिखर तक पहुंचा देने वाले पीके खुद राज्य सभा क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं. इस सवाल का सीधा सा जवाब ये है कि किसी से काम करवाने और अपने काम का हिस्सा बना लेने में फर्क है. पीके की करीबी कांग्रेस से भी है और तृणमूल से भी पूरी ममता है लेकिन दोनों ही दलों में तवज्जों तो है लेकिन कोई पद मिल जाए इस तकाजे पर पीके पिछड़े पिछड़े ही नजर आ रहे हैं.

अब चलिए आपको बताते हैं कि पीके के सपनों के आड़े कौन आ रहा है. राज की बात ये है कि राजनीतिक और चुनावी सलाहकार के तौर पर पीके सफल भी हैं और सियासी दिग्गजों की पसंद भी हैं. लेकिन एक प्रोफेश्नल को अपने हिस्से की सियासी सीट कोई दे दे इसकी गुंजाइश तब तक कम दिखती है जब तक कि संबंध व्यावसायिक न होकर व्यक्तिगत हो. इसीलिए कई दलों तो मुसीबत के दलदल से निकालने के बाद भी प्रशांत कशोर के अरमानों का कमल नहीं खिल पा रहा है.

प्रशांत किशोर की पसंद और प्राथमिकता में नंबर 1 पर कांग्रेस

राज की बात ये भी है कि प्रशांत किशोर की पसंद और प्राथमिकता में नंबर 1 पर कांग्रेस है. इसके पीछे की वजह ये है कि अव्वल तो ये राष्ट्रीय दल है और बीजेपी को टक्कर देने की कूवत रखता है. दूसरा ये कि राष्ट्रीय दल होने के नाते यकीनन संभावनाओं का दायरा बहुत विशाल है. लेकिन मुश्किल ये है कि कांग्रेस और सपा का जो गठबंधन पीके ने प्लान किया था वो बुरी तरह से ध्वस्त हुआ और राहुल गांधी की नजरों में पीके का वो स्थान नहीं रहा.

हालांकि राज की बात ये भी है कि प्रियंका गाधी पीके की वर्किंग स्टाईल और ट्रैक रिकॉर्ड से प्रभावित हैं, लेकिन राहुल गांधी के भरोसे पर प्रशांत किशोर वैसे खरे नहीं उतर सके. अगर प्रियंका गाधी पार्टी के साथ ही साथ अगर पीके के सियासी भविष्य के बारे में सोचना चाहें भी तो.... इस राह में खुद पीके ही रोड़ा भी हैं. राज की बात ये है कि प्रशांत किशोर कांग्रेस में जनरल सेक्रेट्री स्ट्रैटजी और अलायंस का पद चाहते हैं जो कि बहुत बड़ी भूमिका है. ये पद दे दिया जाए तो पीके पार्टी आलाकमान के अंडर में काम करने के बजाय उनसे कंधे से कंधा मिलाकर काम करने की स्थिति में आ जाएंगे. साथ ही इनता बड़ा जिम्मा कांग्रेस या कोई भी दल पीके को दे दे इसकी संभावना न के बराबर है. ये इसलिए क्योंकि इस तरह की भारी भरकम पैराशूट लैंडिग पार्टी और संगठन के लिए नुकसानदायक भी साबित हो सकती है.

लिहाजा वर्तमान हालात तो इसी तरफ इशारा करते हैं कि प्रशांत किशोर की भूमिका सत्ता के फूल खिलाने तक ही सीमित रहेगी.....बाकी सत्ता का हिस्सा राजकुंवरों को मिलता रहेगा. दूसरों के सियासी भविष्य को स्वर्णिम बनाने वाले प्रशांत किशोर का भविष्य मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स पर राज करे... फिलहाल ये स्थिति बनती नहीं दिख रही है.

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