Azmer Sharif Dargah: संभल के बाद अब सुर्खियों में अजमेर शरीफ, जानिए कौन थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती जिनकी दरगाह पर मंदिर का है दावा
Ajmer Sharif: अजमेर की एक स्थानीय अदालत ने 7 नवंबर 2024 को अजमेर शरीफ दरगाह के सर्वेक्षण की मांग वाली याचिका पर केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय, ASI और अजमेर दरगाह समिति को नोटिस जारी किया है.
Who Was Khwaja Moinuddin Chishti: उत्तर प्रदेश के संभल जिले में शाही जामा मस्जिद के सर्वेक्षण को लेकर मचा बवाल अभी खत्म भी नहीं हुआ है कि अचानक से राजस्थान के अजमेर का नाम सुर्खियों में आ गया है. वजह है अजमेर शरीफ दरगाह से जुड़ी एक याचिका. राजस्थान के अजमेर की एक स्थानीय अदालत ने बुधवार (7 नवंबर 2024) को प्रसिद्ध अजमेर शरीफ दरगाह के सर्वेक्षण की मांग करने वाली याचिका पर केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और अजमेर दरगाह समिति को नोटिस जारी किया.
याचिकाकर्ता का दावा है कि अजमेर शरीफ दरगाह पर पहले एक शिव मंदिर था. उस मंदिर को तोड़कर इसे बनाया गया. कोर्ट की ओर से इस पर एएसआई को नोटिस भेजने से चर्चा तेज हो गई है कि जल्द ही यहां भी सर्वे होगा. याचिकाकर्ता हिंदू सेना के प्रमुख विष्णु गुप्ता ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि अजमेर शरीफ दरगाह में काशी और मथुरा की तरह एक मंदिर है. आइए जानते हैं क्या है ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह, कौन थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती जिनकी याद में इसे बनाया गया था.
पहले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को जानें
दरअसल, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती फारसी मूल के एक सुन्नी मुस्लिम दार्शनिक और धार्मिक विद्वान थे. उन्हें गरीब नवाज और सुल्तान-हिंद के नाम से भी जाना जाता था. बताया जाता है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती 13वीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में आए और राजस्थान के अजमेर में रहने लगे थे. यहां रहकर उन्होंने सुन्नी इस्लाम के चिश्ती आदेश की स्थापना की और उसका प्रसार किया. अजमेर में जिस दरगाह पर रोज हजारों-लाखों लोग जाते हैं, वह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की ही दरगाह है.
क्या है सूफी का मतलब?
जानकार बताते हैं कि 'सूफी' शब्द अरबी के 'सफ' शब्द से निकला है. इसका मतलब है, ऊन से बने कपड़े पहनने वाला. इस शब्द का एक अन्य संभावित मूल 'सफा' है जिसका अरबी में अर्थ 'शुद्धता' भी है. सूफी सुलह-ए-कुल यानी शांति और सद्भावना में यकीन रखते हैं. उनके यहां की पीरी-मुर्शीदी की परंपरा भारत के गुरु-शिष्य परंपरा की तरह ही है.
कौन थे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती?
इतिहासकारों का कहना है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म 1143 ई. में ईरान के सिस्तान क्षेत्र में हुआ था. यह वर्तमान में ईरान के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित है. चिश्ती अपने पिता के कारोबार को छोड़कर आध्यात्मिक रास्ते पर निकल पड़े थे. इस दौरान वह प्रसिद्ध संत हजरत ख्वाजा उस्मान हारूनी से मिले. कुछ ही दिन बाद उन्होंने मोइनुद्दीन चिश्ती को अपना शिष्य बनाकर उन्हें दीक्षा दी. मोइनुद्दीन चिश्ती जब 52 साल के थे तब उन्हें शेख उस्मान से ख़िलाफत मिली. इसके बाद वह हज, मक्का और मदीना निकल गए. वहां से वह मुल्तान होते हुए भारत में दाखिल हुए.
कब अजमेर आए मोइनुद्दीन चिश्ती?
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने वर्ष 1192 ई. में अजमेर आए. बताया जाता है कि यह वह वक्त था जब मुहम्मद गोरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराकर दिल्ली में अपना शासन कायम कर लिया था. चिश्ती के शिक्षाप्रद प्रवचनों को सुनकर स्थानीय लोग उनके प्रभाव में आने लगे. उनके भक्तों में राजा-महाराजा, रईस और गरीब सब थे. उनकी मौत के बाद मुगल बादशाह हुमायूं ने वहां पर उनकी कब्र बनवा दी. अजमेर में उनकी दरगाह पर मुहम्मद बिन तुगलचक, शेरशाह सूरी, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, दारा शिकोह और औरंगजेब जैसे शासकों ने जियारत की.
हर साल मनाया जाता है उर्स
हर साल ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की पुण्यतिथि पर 'उर्स' नाम का त्योहार मनाया जाता है. यहां यह बता दें कि उनकी मृत्यु की सालगिरह पर शोक मनाने की जगह लोग जश्न मनाते हैं. इसके पीछे की वजह ये है कि चिश्ती के अनुयायी मानते हैं कि इस दिन शिष्य अपने ऊपर वाले यानी ईश्वर से फिर मिलता है.
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