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Rajasthan Election: क्या वसुंधरा राजे BJP की राह में बनेंगी बाधा? गहलोत-पायलट तनातनी का होगा फायदा

Rajasthan Politics: करीब ढाई दशक से राजस्थान की सत्ता वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के इर्द-गिर्द ही घूमते रही है. वहां बीते कुछ चुनाव से हर पांच साल में सत्ता में बदलाव की परंपरा रही है.

BJP Vasundhara: इस साल जिन 9 राज्यों में चुनाव होना है, उसमें राजस्थान भी शामिल है. फिलहाल यहां अशोक गहलोत की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार है. इस साल सबकी निगाहें राजस्थान के सियासी दंगल पर टिकी है. बड़े राज्यों में यही एक राज्य है जहां फिलहाल कांग्रेस की सरकार है. बीजेपी यहां सत्ता छीनने के मकसद से जोर-शोर से जुटी है.   

राजस्थान विधानसभा का कार्यकाल 14 जनवरी 2024 को खत्म हो रहा है. ऐसे में यहां मध्य प्रदेश के साथ नवंबर-दिसंबर में चुनाव हो सकता है. राजस्थान में 200 विधानसभा सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए जादुई आंकड़ा 101 सीट का है. 

राजस्थान में पिछले 6 चुनाव से बीजेपी और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आती है. ये सिलसिला 1993 से जारी है. 1993 से यहां कोई भी पार्टी लगातार दो बार चुनाव नहीं जीत सकी है.  परंपरा कायम रहने के हिसाब से देखें, तो सत्ता की दावेदारी बीजेपी की बन रही है. लेकिन राज्य में पार्टी की सबसे वरिष्ठ और कद्दावर नेता वसुंधरा राजे के रुख से बीजेपी की चिंता बढ़ गई है. 

सीएम फेस के चक्रव्यूह में फंसी बीजेपी

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहा है, बीजेपी के लिए मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा, ये सवाल सबसे जेहन में दौड़ने लगा है. सीएम फेस बनने के लिए बीजेपी में दावेदारी बढ़ते जा रही है. पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ ही कई ऐसे नाम हैं, जो अपने-अपने तरीके से खुद को इस रेस में मान रहे हैं.  इनमें आमेर से एमएलए और प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष सतीश पूनिया, केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत के नाम शामिल हैं. इनके अलावा राजस्थान के सियासी गलियारे में  लोकसभा स्पीकर ओम बिरला के नाम की भी सुगबुगाहट है. इनके अलावा स्थानीय नेता गुलाब चंद कटारिया, राजेंद्र राठौर और किरोड़ी लाल मीणा जैसे नेता भी शामिल हैं, जो अपने हिसाब से खुद के लिए अभियान चला रहे हैं. हालांकि इनमें कोई भी नेता खुलकर अपनी दावेदारी पर बात नहीं कर रहा है.

राजस्थान बीजेपी में सब ठीक नहीं है!

राजस्थान के जयपुर में 9 जनवरी को बीजेपी की राज्य कोर कमेटी की बैठक पार्टी के प्रदेश मुख्यालय में हुई. इसमें  प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया, प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह, नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल मौजूद रहे. लेकिन पूर्व सीएम वसुंधरा राजे इस बैठक में शामिल नहीं हुईं. इससे पहले 3 जनवरी को विधानसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर जयपुर में हुई बैठक में भी वसुंधरा राजे शामिल नहीं हुई थीं. चुनावी तैयारियों के तहत बीजेपी ने दिसंबर में जन आक्रोश यात्रा शुरू की थी. ये यात्रा राज्य की सभी 200 विधानसभा क्षेत्रों  से गुजरी. वसुंधरा राजे ने कमोबेश इस यात्रा से खुद को दूर ही रखा. इन सब बातों से स्पष्ट है कि राजस्थान बीजेपी और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के साथ वसुंधरा राजे के रिश्ते उतने बेहतर नहीं रह गए हैं.   


क्या कहती है वसुंधरा राजे की खामोशी?

वसुंधरा राजे की पार्टी गतिविधियों से दूरी और चुनावी रणनीति पर खामोशी ने बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की चिंता बढ़ा दी है.  हालांकि वसुंधरा राजे के तेवर लगातार  आक्रामक होते जा रहे हैं. प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह और प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया बार-बार कह रहे हैं कि विधानसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे पर ही लड़ा जाएगा. कहा जा रहा है कि इस तरह के बयान से वसुंधरा राजे नाराज हैं. बीजेपी उनकी नाराजगी को साधने के तरीके ढूंढ़ रही है. बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को डर है कि कहीं वसुधंरा राजे की नाराजगी और पार्टी की एकजुटता को लेकर कार्यकर्ताओं और जनता के बीच संशय न पैदा हो जाए. अगर ऐसा हुआ तो चुनाव में बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है. राजनीतिक विश्लेषकों के बीच चर्चा है कि बीजेपी वसुंधरा को नाराज किए बिना सबको साधने का विकल्प तलाश रही है. 

समर्थकों के जरिए सीएम फेस पर दावेदारी 

2022 में कई ऐसे मौके आए जब वसुंधरा राजे का दर्द बयानों के जरिए बाहर आया. अपने समर्थकों के बीच उन्होंने कहा भी कि उनका कोई भी काम सीधे-सीधे नहीं होता, उसके लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता है. वसुंधरा राजे के समर्थकों का कहना है कि बीते 25 साल से बीजेपी की सिर्फ वहीं एक नेता हैं जिन्हें राजस्थान के हर वर्ग का समर्थन मिलते रहा है. भवानी सिंह राजावत समेत कई स्थानीय नेता वसुंधरा राजे को सीएम चेहरा घोषित करने की मांग कर चुके हैं.

'कहो दिल से, वसुंधरा फिर से' पोस्टर से दावेदारी

कुछ महीने पहले राजस्थान के कई जगहों पर 'कहो दिल से, भाजपा फिर से' की जगह 'कहो दिल से, वसुंधरा फिर से' (Kaho dil se, Vasundhara phir se) का पोस्टर दिखा.  इस नारे के जरिए वसुंधरा राजे के समर्थकों ने बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को संदेश देने की कोशिश की. पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पसंद करे या नहीं, वसुंधरा राजे खुद को सीएम चेहरे के रूप में पेश कर रही हैं. राजस्थान में पोस्टर और नारे (slogans) राजनीतिक नब्ज को टटोलने का बेहद कारगर जरिया माने जाते हैं. 2003 में बीजेपी के प्रचार अभियान में 'गहलोत आएगा, अकाल आएगा, गहलोत जाएगा, अकाल जाएगा' स्लोगन ने कमाल कर दिखाया. वैसे ही 2008 में -'8 PM, NO CM'- स्लोगन के जरिए कांग्रेस ने उस वक्त की सीएम वसुंधरा राजे पर निशाना साधकर बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दिया था. 2018 में बीजेपी का एक वर्ग वसुंधरा राजे से नाराज था. उस वक्त इन लोगों ने चुनाव में  'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं' का स्लोगन चलाया. हालांकि इस स्लोगन से बीजेपी को नुकसान ही उठाना पड़ा और सत्ता गवांनी पड़ी. 

वसुंधरा राजे और सतीश पूनिया के बीच मनमुटाव

सतीश पूनिया 3 साल से ज्यादा वक्त से राजस्थान में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा रहे हैं. राजस्थान में वे भी सीएम उम्मीदवार बनने की ख्वाहिश पाले हुए हैं. सतीश पूनिया वसुंधरा राजे के विरोधी खेमे के नेता माने जाते हैं. जब भी मौका मिलता है दोनों ही नेता एक-दूसरे पर तंज कसने से बाज नहीं आते. सतीश पूनिया खुलकर तो खुद की सीएम दावेदारी को लेकर कुछ नहीं बोलते, लेकिन वसुधंरा राजे की दावेदारी पर सवाल पूछे जाने पर वे बेबाक होकर कहते हैं कि बीजेपी संसदीय बोर्ड मुख्यमंत्री को लेकर कोई फैसला करती है और आगामी विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी ही पार्टी का चेहरा होंगे. एक तरह से पूनिया का ये बयान वसुंधरा राजे की दावेदारी को खारिज करने की कोशिश दिखती है. बीते 3 साल से वसुंधरा राजे गुट आरोप लगाते रही है कि सतीश पूनिया की नेतृत्व वाली राज्य इकाई पूर्व सीएम और उनके करीबियों को दरकिनार करते रही है. वहीं सतीश पूनिया गुट का कहना है कि वसुंधरा राजे पार्टी की राज्य इकाई के समानांतर अपनी अलग सत्ता केंद्र चलाते रही हैं. 

गजेन्द्र सिंह शेखावत भी वसुंधरा की राह में रोड़ा!

वसुंधरा राजे के तीसरी बार सीएम बनने की चाहत में केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत भी बाधक बन सकते हैं. ऐसा माना जा रहा है कि भीतर-ही-भीतर राजस्थान में शेखावत खुद ही इस पद पर दावेदारी जता रहे हैं. ऐसे भी गजेन्द्र सिंह शेखावत को वसुंधरा राजे के विरोधी खेमे का नेता माना जाता है.  ये भी कहा जाता है कि 2019 में वसुंधरा राजे के विरोध की वजह से ही शेखावत प्रदेश अध्यक्ष नहीं बन पाए थे. इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व 55 साल के गजेन्द्र सिंह शेखावत को राजस्थान में वसुंधरा राजे के उत्तराधिकारी के तौर पर पसंद कर सकता है. पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह से बेहतर संबंध भी उनकी दावेदारी को मजबूत करती है. कहा जाता है कि आरएसएस के भी वे पसंदीदा नेता हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में शेखावत ने जोधपुर सीट पर अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत को बड़े मार्जिन से हराया था. शेखावत का एक पक्ष ऐसा भी है, जो उनकी दावेदारी को कमजोर करता है. गजेन्द्र सिंह शेखावत का प्रभाव सिर्फ पश्चिमी राजस्थान तक ही सीमित माना जाता है. 

राजस्थान की राजनीति की माहिर खिलाड़ी हैं वसुंधरा

बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति की माहिर खिलाड़ी मानी जाती हैं. भैरो सिंह शेखावत को छोड़ दें, तो वसुंधरा राजे ही एक मात्र नेता हैं, जिनके पास बीजेपी की ओर से राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने का अनुभव है. वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रही हैं.वे राजस्थान की पहली और एकमात्र महिला मुख्यमंत्री भी थी. वे दिसंबर 2003 से दिसंबर 2008 और दिसंबर 2013 से दिसंबर 2018 तक मुख्यमंत्री रही हैं. राजस्थान की मुख्यमंत्री बनने से पहले वसुंधरा राजे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रह चुकी हैं. 69 साल की वसुंधरा राजे फिलहाल बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और  झालरापाटन से विधायक हैं. 2013 में वसुंधरा राजे की अगुवाई में बीजेपी ने राज्य की 200 में से 163 सीटों पर जीत दर्ज की थी. कांग्रेस सिर्फ 21 सीट पर सिमट गई थी. राजस्थान में इतनी बुरी स्थिति कांग्रेस की कभी नहीं हुई थी. वसुंधरा राजे का ही करिश्मा था कि 2013 में बीजेपी ने राजस्थान में अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन किया था. राजस्थान में ये बीजेपी की सबसे बड़ी जीत थी. राजस्थान के राजनीतिक इतिहास में अब तक कोई भी पार्टी इतनी सीटें नहीं जीत पाई है.

वसुंधरा राजे को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल 

तमाम विरोधाभासों के बावजूद अभी भी वसुंधरा राजे राजस्थान में जननेता के तौर पर बेहद लोकप्रिय हैं. उनकी दावेदारी को खारिज करना बीजेपी के लिए आसान नहीं होगा. सूबे में उनसे बड़े कद का बीजेपी के पास फिलहाल कोई नेता नहीं दिखता. अगर पार्टी वसुंधरा राजे को सीएम उम्मीदवार बनाकर चुनाव नहीं लड़ती है तो कम से कम 50 सीटों पर बीजेपी को अच्छा खासा नुकसान उठाना पड़ सकता है. 

2022 में वसुंधरा राजे की बढ़ी सक्रियता 

2018 में बीजेपी की हार के बाद से ही वसुंधरा राजे राजनीतिक तौर से कम सक्रिय दिख रहीं थीं. सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के बाद बीजेपी की प्रदेश स्तरीय राजनीति में वसुंधरा राजे हाशिये पर थीं. हालांकि 2022 में उनकी सक्रियता बढ़ी. सबसे पहले 8 मार्च 2022 को अपने जन्मदिन पर उन्होंने बूंदी के केशोरायपाटन में बड़ी जनसभा की. इसमें जुटी भारी भीड़ के जरिए वसुंधरा राजे ने अपने विरोधियों को सीधा संदेश दिया कि आगामी चुनाव में सीएम फेस की दावेदारी को नहीं छोड़ा है. उनके जन्मदिन के कार्यक्रम में 42 विधायक और 11 सांसद शामिल हुए थे.  जन्मदिन के कुछ दिन बाद मार्च में ही वसुंधरा राजे ने दिल्ली आकर संसद भवन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी. इस मुलाकात को लेकर सियासी मायने भी निकाले गए थे. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में बीजेपी की बन रही नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में भी शामिल हुईं. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने राजस्थान के कई शहरों में जनसभाओं को जरिए अपनी ताकत दिखाने की कोशिश की है. 

2018 का अनुभव वसुंधरा राजे के खिलाफ 

2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 100 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 90 सीटों के नुकसान के साथ बीजेपी का रथ 73 सीटों पर रुक गया था. इसके साथ ही राजस्थान की सत्ता बीजेपी के हाथ से चली गई थी. पिछले विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे की मनमानी को बीजेपी की हार के लिए बड़ी वजह माना गया था. उस वक्त कई मुद्दों पर वसुंधरा राजे ने अपने हिसाब से काम किया था. इस बार बीजेपी ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना चाहेगी. 2018 के विधानसभा चुनाव के कुछ महीनों बाद ही हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राजस्थान में ऐतिहासिक प्रदर्शन किया था. बीजेपी गठबंधन ने राज्य की सभी 25 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की. उस वक्त लोकसभा चुनाव में वसुंधरा राजे की सक्रियता ज्यादा नहीं थी. कहा जा रहा है कि इस आधार पर बीजेपी वसुंधरा राजे को चुनाव से पहले ही सीएम का चेहरा घोषित करने के पक्ष में नहीं दिख रही है.  

बीजेपी को देनी पड़ रही है बार-बार सफाई

सीएम पद को लेकर कई दावेदार होने से बीजेपी की चिंता बढ़ते जा रही है. राजस्थान में बीजेपी के प्रवक्ता रामला शर्मा को कहना पड़ा कि हर कोई मुख्यमंत्री बनना चाहता है. इसका ये मतलब नहीं है कि सभी के दावे को गंभीरता से लिया जाए. उन्होंने कहा कि फिलहाल किसी के भी दावे में कोई दम नहीं है क्योंकि बीजेपी संसदीय बोर्ड ही इस पर अंतिम फैसला करेगी. गुटबाजी से होने वाले नुकसान से बचने के लिए बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को भी राज्य इकाई को एक यूनिट की तरह काम करने का निर्देश देना पड़ा है ताकि राजस्थान में बीजेपी की जीत सुनिश्चित हो सके.

सीएम फेस की रेस में हैं कई और नाम

उदयपुर शहर से विधायक और नेता विपक्ष गुलाब चंद कटारिया ने कुछ दिन पहले बयान दिया था कि हमार चेहरा तो हम ही हैं, हमारा चेहरा कोई खराब थोड़े ही है, मैं खुद भी प्रतिपक्ष का नेता हूं और पार्टी से जो जिम्मेदारी मिलेगी, उसे निभाऊंगा. इस बयान के जरिए इशारों में गुलाब चंद कटारिया ने भी खुद को सीएम फेस जाहिर कर दिया था. हालांकि 78 साल के कटारिया की दावेदारी को उनकी उम्र कमजोर कर दे रही है.  2013 में कटारिया वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री बनाने का विरोध कर रहे थे. ऐसे में वे इस बार वसुंधरा राजे की दावेदारी को कमजोर कर सकते हैं. किरोड़ी लाल मीणा फिलहाल राज्यसभा सदस्य हैं. वे न तो वसुंधरा खेमे में आते हैं और न ही सतीश पूनिया गुट में. वे भी जनसभाओं और अलग कार्यक्रम में शक्ति प्रदर्शन के जरिए अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं. इसके अलावा कभी वसुंधरा राजे के भरोसेमंद रहे राजेंद्र राठौर ने कहा है कि वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं है, लेकिन वसुंधरा राजे की उम्मीदवारी को लेकर संशय है और बीजेपी आलाकमान ही इस पर कोई फैसला करेगा. हालांकि राजपूतों के बीच अच्छा-खासा प्रभाव रखने वाला क्षत्रिय युवक संघ राजेंद्र राठौर को सीएम फेस बनाने की मांग कर रही है. चुरू से एमएलए राजेंद्र राठौर फिलहाल विधानसभा में उप नेता विपक्ष हैं. 

बीजेपी का राजस्थान से है भावनात्मक जुड़ाव

राजनीतिक विरासत के नजरिए से राजस्थान बीजेपी के लिए बेहद ही महत्वपूर्ण राज्य है. अप्रैल 1980 में नई पार्टी के तौर पर बीजेपी देश की राजनीति में आई. गठन के बाद राजस्थान उन चुनिंदा राज्यों में से एक है, जहां बीजेपी सबसे पहले सरकार बनाने में कामयाब हुई. मार्च 1990 में बीजेपी राजस्थान के साथ ही हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में सरकार बनाने में कामयाब हुई. उसमें भी राजस्थान में इन दोनों राज्यों से एक दिन पहले बीजेपी की सरकार बनी. राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत की अगुवाई में बीजेपी ने पहली बार 4 मार्च 1990 को सरकार बनाई थी. हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में 5 मार्च 1990 को बीजेपी की सरकार बनी थी. 

कांग्रेस में खेमेबाजी का बीजेपी को मिलेगा फायदा!

राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह खुले मंच से एलान कर चुके हैं कि राजस्थान में विधानसभा चुनाव पीएम मोदी के नाम और काम पर लड़ा जाएगा.  अगर चुनाव तक वसुंधरा राजे के आक्रामक तेवर ऐसे ही बने रहे, तो बीजेपी, कांग्रेस के अंदरूनी कलह का फायदा उठाने से चूक सकती है. ये जगजाहिर है कि  मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच 2018 से ही तनातनी है. ऐसे में बीजेपी इसका फायदा उठाना चाहेगी. इसके लिए जरूरी है कि वसुंधरा राजे पूरे मन से बीजेपी के लिए सक्रिय हों.  

करीब ढाई दशक से राजस्थान की सत्ता वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के इर्द-गिर्द ही घूमते रही है. इस बार ये देखना दिलचस्प होगा कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों ओर से ही किसी नए चेहरे को मौका दिया जाता है या फिर पुराने दिग्गजों पर ही बाजी लगाई जाएगी.

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