नई दिल्ली: राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन का कार्यकाल 30 जून को खत्म हो रहा है जिसके बाद इस पद पर किसी नए व्यक्ति की नियुक्ति होगी. आमतौर पर इस पद पर नियुक्ति सर्वसम्मति से होती है लेकिन वर्तमान राजनीतिक हालात में इसकी संभावना कम दिखती है. 18 जुलाई से शुरू हो रहे संसद के मॉनसून सत्र में इस पद के लिए चुनाव होने की संभावना है. ऐसे में सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी युपीए ने जोड़ तोड़ शुरू कर दिया है.
एनडीए और यूपीए के पास अपने दम पर नहीं है संख्या, देनी होगी क़ुर्बानी
पीएम मोदी और बीजेपी के खिलाफ तैयार हो रहे एक साझा और एकजुट विपक्षी ताक़त के मद्देनजर राज्य सभा उपसभापति का चुनाव एनडीए और यूपीए के लिए नाक का सवाल बन सकता है. उपसभापति का पद ताक़त और रुतबे के नज़रिए से ज़्यादा महत्व का भले ही नहीं लगता हो लेकिन इसपर अपने अपने उम्मीदवार की जीत तय कर सत्ता पक्ष और विरोधी एक राजनीतिक संदेश ज़रूर देना चाहेंगे. लेकिन संख्या बल की कमी के चलते न तो एनडीए और न ही यूपीए अपने दम पर किसी उम्मीदवार की जीत तय कर सकती हैं.
राज्य सभा में अभी सदस्यों की कुल संख्या 241 है अगर सभी सांसदों ने मतदान किया तो जीत के लिए कम से कम 121 सांसदों की ज़रूरत है. एनडीए के पास 108 सांसदों के समर्थन का दावा है. इनमें बीजेपी के 69, एआईएडीएमके के 13, जेडीयु के 6, शिवसेना और अकाली दल के 3-3 सांसदों के अलावा 6 निर्दलीय और 3 नामांकित सांसद शामिल हैं. वहीं यूपीए के प्रबंधक 114 सांसदों के समर्थन का दावा कर रहे हैं.
इनमें कांग्रेस के 51, सपा और टीएमसी के 13-13, टीडीपी के 6, आरजेडी के 5 जबकि बसपा, डीएमके और एनसीपी के 4 - 4 सांसद शामिल हैं. ऐसे में दोनों पक्षों की नज़र बीजेडी, टीआरएस, वाइएसआर कांग्रेस और पीडीपी पर है जिनका रुख़ अभी साफ़ नहीं है. इन चारों पार्टियों के पास 19 सांसद हैं. ऐसे में संकेत यही मिल रहे हैं कि राजनीतिक हालात को भांपते हुए दोनों ही बड़ी पार्टियां को इस पद की कुर्बानी देनी पड़ सकती है.
सहयोगियों पर है बीजेपी और कांग्रेस की नज़र
कांग्रेस और बीजेपी अब अपने सहयोगियों से बातचीत कर उनके उम्मीदवार उतारने की संभावनाएं तलाश रहे हैं. दोनों ही पार्टियों की नज़र या तो क्षेत्रीय पार्टियों पर है या अबतक तटस्थ चल रही पार्टियों पर है. सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक बीजेपी अपने सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल के किसी सांसद को उम्मीदवार बनाने पर राज़ी हो सकती है.
पार्टी सांसद और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के बेटे नरेश गुजराल का नाम सबसे आगे चल रहा है लेकिन एक विचार अकाली दल के दोनों सिख सांसदों में से किसी को उम्मीदवार बनाने को लेकर भी हो सकता है. दरअसल पार्टी को लगता है कि गुजराल या अकाली दल के किसी और सांसद को उम्मीदवार बनाकर ग़ैर एनडीए पार्टियों, यहां तक कि टीडीपी जैसी पार्टी को भी अपने पाले में किया जा सकता है.
यूपीए बीजेडी पर खेल सकती है दांव
वहीं कांग्रेस बीजेडी के किसी उम्मीदवार पर अपना दांव लगाना चाहती है. अगर बीजेडी से बात बनती है तो पार्टी के वरिष्ठ सांसद प्रसन्न आचार्य उम्मीदवार हो सकते हैं. कांग्रेस को उम्मीद है कि बीजेडी सांसद को उम्मीदवार बनाकर उसे जितने के लिए कम पड़ रहे 7 वोटों का जुगाड़ हो जाएगा क्योंकि बीजेडी के कुल 9 राज्य सभा सांसद हैं.
बीजेडी पर कांग्रेस को नहीं है भरोसा
हालांकि जानकारी के मुताबिक अबतक बीजेडी ने कांग्रेस को कोई आश्वासन तक नहीं दिया है, हामी भरने की बात तो दूर है. बीजेडी पर कांग्रेस और यूपीए पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकती. उसकी वजह ये है कि राष्ट्रपति के चुनाव में जहां बीजेडी ने एनडीए उम्मीदवार राम नाथ कोविंद का समर्थन किया था वहीं उपराष्ट्रपति के चुनाव में गोपाल कृष्ण गांधी का, जो यूपीए के उम्मीदवार थे. इतना ही नहीं सियासी मज़बूरियों के चलते ओडिसा में बीजेडी, बीजेपी और कांग्रेस से समान दूरी बनाकर रखना चाहती है और इसलिए पार्टी अपना उम्मीदवार उतारने को लेकर उत्साहित नहीं दिखती.
तृणमूल से हो सकता है यूपीए के उम्मीदवार
ऐसे में कांग्रेस का स्वाभाविक विकल्प ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस हो सकता है. सूत्रों की मानें तो तृणमूल सांसद शुखेंदू शेखर राय के नाम पर कांग्रेस को कोई दिक्कत नहीं है. उनके नाम पर यूपीए पार्टियों से एक दौर की बातचीत हो भी चुकी है. सूत्रों के मुताबिक वामदल भी शुखेंदू शेखर रॉय के नाम पर सहमत हो सकते हैं. उधर युपीए की कुछ अन्य सहयोगी पार्टियां भी इस पद पर अपना उम्मीदवार बिठाने को इच्छुक हैं और समाजवादी पार्टी अपने सबसे वरिष्ठ नेताओं में से एक राम गोपाल यादव के लिए इस पद की मांग कर सकती है.
एक-एक कदम पीछे हटेंगी पार्टियां ?
ज़ाहिर है मोदी सरकार के ख़िलाफ़ एक साझा विपक्ष खड़ा करने के कोशिश में लगी सभी पार्टियों के लिए उपसभापति का चुनाव एक और मौक़ा के साथ साथ अग्नि परीक्षा भी है. जहां तक सरकार और बीजेपी का सवाल है तो संख्याबल में कमज़ोर होने के चलते उसके सामने ज़्यादा विकल्प फ़िलहाल दिखाई नहीं पड़ते. ऐसे में लगता कि यही है कि दोनों ही पार्टियों को एक एक कदम पीछे हटना पड़ेगा.