गालिब की जयंती पर विशेष....वगर्ना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
नई दिल्ली : जब भी बात उर्दू की होगी, उर्दू के अज़ीम शायरों की होगी... गज़ल में इश्क या हुस्न की हो, मुग़ल सल्तनत के ज़वाल (पतन) और 1857 के ग़दर में भारत की शिकस्त या भारत की विविधता की... मंजिल अंदाज़-ए-बयान के निराले शायर 'ग़ालिब' के यहां मिलेगी. उस ग़ालिब को अपने वक़्त से शिकवा भी रहा... और अपने अंदाज-ए-बयान का गुमान भी... आज उसी अजीम शायर का जन्मदिन है.
जब अपने वक़्त से शिकवा किया तो लिखा...
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
और जब बात अंदाज़-ए-बयान पर आई तो तखईल कुछ यूं हुई...
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
ग़ालिब देश के उन शायरों में क्षितिज पर हैं जिनके अशार आज भी महफिलों में गुनगुनाए जाते हैं. इस महान शायर का जन्म 27 दिसंबर 1797 में आगरा में हुआ था, लेकिन शायरी दिल्ली में परवान चढ़ी.
अपनी शायरी की शुरुआत उन्होंने फारसी से की... लेकिन बाद में उन्होंने शायरी उर्दू में की और फिर इसी जबान ने उनको और उनकी शायरी को अवाम तक पहुंचाया.
'ग़ालिब' और 'असद' नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां मुग़लों के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में भी शायर रहे. उर्दू शायरी में नया जोश और जुनून भरने वाले इस अद्भुत शायर ने 1869 में इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह दिया.
भले ही ग़ालिब को गुजरे करीब डेढ़ सौ साल हो रहे हैं, लेकिन उनकी शायरी और बेबाकी हिन्दुस्तानियों के दिलों में आज भी ज़िंदा है.
आइए गालिब के जन्मदिन के मौके पर हम आपको उनके 10 बेहतरीन अशार से रु-ब-रू कराते हैं जिनकी दुनिया आज भी दीवानी है.
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता