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रिपोर्ताज: जिंदगी की दो विरोधाभासी तस्वीरें दिखाता मुंबई-नासिक हाईवे, घर लौटते मज़दूर और मजबूर किसान

नासिक अंगूर के लिये मशहूर है. हाईवे के दोनों ओर दूर दूर तक फैले हुए अंगूर के खेत नजर आते हैं. लॉकडाउन की एक बड़ी मार अंगूर के किसानों पर पड़ी है.

मुंबई: देश के तमाम बड़े शहरों को एक दूसरे शहरों से जोड़ते हैं हाईवे. लॉकड़ाउन के दौरान यही हाईवे शहरों के लिये लिये जरूरी सामान जैसे फल, सब्जियां, दूध वगैरह की सप्लाई चेन बनाये रखे हुए हैं. मुंबई और आसपास के शहरों में इसकी सप्लाई नासिक से होती है. हम मुंबई से नासिक के बीच ड़्राईव पर निकले तो दो विरोधाभासी तस्वीरें दिखाईं दीं. एक तरफ शहरों के लिए जरूरी सामान की सप्लाई चेन दुरूस्त थी तो दूसरी ओर उन्हीं शहरों से वो मजदूर बड़े पैमाने पर पैदल पलायन कर रहे थे, जिन्हें भूखे मरने का ड़र सता रहा था.

जिले सील, सिर्फ जरूरी वाहनों को ढील मुंबई से नासिक तक पहुंचने के दौरान हमें जगह जगह पुलिस की चेकिंग से गुजरना पड़ा. चूंकि राज्य की तमाम सीमाएं सील हैं. इसलिए मुंबई-ठाणे सीमा और ठाणे-नासिक सीमा पर चेकिंग ज्यादा सख्त थी. नासिक की सीमा में दाखिल होने से पहले हमारा पूरा ब्योरा लिया गया और गाड़ी के नंबर की रजिस्टर में एंट्री हुई. सिर्फ फल, सब्जियां, ड़ॉक्टर, मीड़िया और सरकारी वाहनों को ही छोड़ा जा रहा था.

लंबा फासला, कड़ी धूप और भुखमरी का ड़र! नासिक से काफी पहले जब हम भिवंड़ी से गुजर रहे थे, तो हमने देखा कि बड़ी तादाद में मजदूर कंधे पर बैग लादे पैदल चले जा रहे थे. हमने रूक कर कुछ लोगों से बात की. उनका कहना था कि वे मुंबई के कांदिवली से निकले थे और पैदल करीब 1200 किलोमीटर का फासला पूरा करके उत्तर प्रदेशे के बांदा जिले में अपने गांव लौट रहे थे. कोई प्लंबर का काम करता था. कोई पेंटर का तो कोई कारपेंटर का. लॉकड़ाऊन की वजह से इनकी आमदनी छिन गई थी. जिस घर में वे रहते थे, उसके किराये चुकाने के पैसे नहीं थे. खाना खरीदने के लिये भी पैसे नहीं बचे. ये लोग सरकारी मदद या गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से बांटी जाने वाली खैरात पर निर्भर थे, लेकिन इन्हें चिंता थी कि ज्यादा दिन ये उनके भरोसे नहीं चल सकेंगे.

खाना मिलने का कोई वक्त भी तय नहीं था. ऐसे में इन्होंने मुंबई में भूखे मरने से बेहतर अपने गांव लौट जाना ठीक समझा. नासिक तक इस तरह के हजारों मजदूरों की भीड़ नजर आई. कई मजदूर अपने परिवार के साथ चल रहे थे. 35 ड़िग्री के तापमान में कई महिलाएं सिर पर भारी बैग ढोते हुए आगे बढ रहीं थीं. कई महिलाओं की गोद में दुधमुंहे बच्चे थे. 8-10 साल की उम्र के बच्चे उस झुलसा देने वाली धूप में पैदल चल रहे थे. भीड़ में कई बुजुर्ग भी नजर आये. इन लोगों के चेहरों पर थकावट के साथ-साथ बेबसी भी नजर आ रही थी.

कुछ की आंखों में आंसू थे. कुछेक जगह पर सड़क किनारे चल रहे मजदूरों ने हाथ के इशारे से हमसे पानी मांगा. जितनों को हम पानी दे सकते थे, हमने दिया. गाड़ी में कुछ बिस्किट के पैकेट पड़े थे, जो मैंने बच्चों को दे दिये. मुझे दुख हुआ कि मैं घर से पानी की कुछ और बोतलें और बिस्किट के ज्यादा पैकेट लेकर क्यों नहीं चला. दिल पसीज देने वाला अनुभव था. हाईवे के किनारे कुछ ठिकानों पर स्थानीय गांव वालों ने मजदूरों के लिये अस्थाई प्याऊ बना रखे थे. पलायन करने वाले मजदूरों के बीच ये ड़र भी था कि कहीं पुलिस ने रास्ते में उन्हें पकड़ लिया तो वापस भेज देगी. इगतपुरी के घाट के बीचोबीच पुलिस ने एक चौकी बना रखी थी. उससे बचने के लिये कई मजदूर सड़क छोड़कर अगल बगल की पहाड़ियों में घुसकर जंगल के रास्ते आगे बढ़ते दिखे.

सड़क की दुरूस्ती उस वक्त थोड़ा सुखद अहसास हुआ जब शहापुर के पास हमें सड़क की मरम्मत का काम होते दिखा. लॉकडाउन का फायदा सड़क दुरूस्ती करने वाले ठेकेदारों को मिला. चूंकि सड़क पर वाहनों की आवाजाही कम है, इसलिये जगह जगह पर सड़कों की मरम्मत का काम, गड्ढों को भरने का काम होता दिखाई दिया. हर साल खराब सड़कों और गड्ढों की वजह से सैकड़ों लोग महाराष्ट्र में मारे जाते हैं. महीनेभर बाद ही राज्य में फिर एक बार मानसून दस्तक देगा, ऐसे में लॉकडाउन के दौरान मिले वक्त के दौरान सड़कें ठीक की जा रहीं है. अगर काम ठीक रहा तो कई जानें बचेंगी.

टोल नाकों का हाल लॉकडाउन के शुरुआती कुछ दिनों में वाहनों से टोल नहीं वसूला जाता था, लेकिन 20 अप्रैल से फिर एक बार टोल की वसूली शुरू हो गई. हमने टोल नाके पर रुक कर जानना चाहा कि वहां कोरोना से बचाव के क्या इंतजाम किये गये हैं. टोल कर्मचारी को नोट देते वक्त या उससे रसीद लेते वक्त वायरस से ग्रसित होने का खतरा रहता है. इसपर टोल मैनेजर साजिद शेख ने हमें बताया कि सभी टोल कर्मचारियों को दस्ताने दिये गये हैं. साथ ही सभी खिड़कियों पर सैनिटाइजर रखे गये हैं. टोल कर्मचारी और टोल चुकाने वाले ड्राइवर दोनों ही लेन-देन के बाद सैनिटाइजर से हाथ स्वच्छ कर सकते हैं. इसके अलावा शेख ने हमें एक स्प्रिकंलर भी दिखाया, जिसके अंदर से गुजरने के बाद पूरे शरीर पर सैनिटाइजर का छिड़काव हो जाता है. ड्यूटी पर हाजिर होने के बाद सभी कर्मचारी इस स्प्रिकंलर से गुजरते हैं.

पेट्रोल पंप का हाल रास्ते में पड़ने वाले सभी पेट्रोल पंप पर पेट्रोल और डीज़ल की सप्लाई हो रही थी. यहां मौजूद ज्यादातर वाहन फल-सब्जियां नासिक से मुंबई पहुंचाने वाले थे. नियमों के मुताबिक सिर्फ जरूरी सामान की आवाजाही करने वाले वाहनों को पेट्रोल-डीज़ल बेचा जा रहा था. वो भी कागजों की जांच-पड़ताल के बाद. ज्यादातर वाहन चालक सुबह के वक्त नासिक से फल, सब्जियां लेकर मुंबई की ओर निकलते थे और शाम को वापस नासिक लौट आते थे.

सड़क पर किसान कई किसान अपनी उपज जैसे टमाटर, भिंड़ी, खीरा, गोभी वगैरह लेकर सड़क के किनारे खड़े नजर आये. दरअसल लॉकडाउन के बाद से रोजाना मुंबई की ओर सफल सब्जियां ले जाने वाले व्यापारी सड़क किनारे ही इनसे माल खरीद लेते हैं. ये माल फिर सीधे मुंबई की कॉलोनियों में स्टॉल लगाकर बेचा जाता है. कोरोना का संक्रमण न फैले इसलिये व्यापारी गांव के भीतर नहीं जाते. गांव वाले ही हाईवे पर आकर उन्हें माल बेच देते हैं. नवी मुंबई का थोक एपीएमसी मार्केट आये दिन किसी न किसी कारण से बंद हो जाता है. ऐसे में इस तरह का इंतजाम लोगों तक फल, सब्जियों की सप्लाई में रूकावट नहीं आने देता.

अंगूर किसान बदहाल नासिक अंगूर के लिये मशहूर है. हाईवे के दोनों ओर दूर दूर तक फैले हुए अंगूर के खेत नजर आते हैं. लॉकडाउन की एक बड़ी मार अंगूर के किसानों पर पड़ी है. अंगूर की फसल इस बार अच्छी हुई थी, लेकिन लॉकडाउन के कारण माल न तो विदेश में निर्यात हो पाया और न ही देश के दूसरे हिस्सों में जा पाया. नतीजतन अंगूर की कीमत बेतहाशा गिर गई. किसानों ने बताया कि हर साल उन्हें प्रति किलो अंगूर पर 50 स 60 रूपये का भाव मिलता था, लेकिन इस बार 10 से 12 रूपये भी मुश्किल से मिल रहे हैं. किसानों की शिकायत है कि बिचौलिये उनसे तो औने पौने दाम में अंगूर खरीद ले जाते हैं, लेकिन मुंबई जैसे शहरों में उन्हें ऊंची कीमत में बेचते हैं, जिसका कोई फायदा उन्हें नहीं मिलता.

मशरूम की फसल बर्बाद हमारे सफर का अंतिम पड़ाव था नासिक शहर से 50 किलोमीटर आगे मशरूम उत्पादन का एक प्लांट. ये प्लांट कैंबियम नाम की कंपनी का है, जो कि देश की 6 बड़ी मशरूम उत्पादक कंपनियों में से एक है और यहां का मशरूम दुनियाभर में निर्यात होता है. कंपनी के मालिक एम के झा ने हमें अपने प्लांट में घुमाया और दिखाया कि किस तरह से बड़े पैमाने पर मशरूम को फेंकना पड़ा, क्योंकि प्लांट से बाजार तक मशरूम पहुंचाने के लिये वाहन नहीं मिल पा रहे थे. इसके अलावा लॉकडाउन के कारण प्लांट पर काम करने के लिये कई मजदूर अपने गांवों से नहीं पहुंच पा रहे हैं. ऐसे में एम के झा पशोपेश में थे कि आगे मशरूम का उत्पादन करें या नहीं. उनके प्लांट पर आखिरी बार मशरूम उत्पादन 23 अप्रैल को हुआ था.

कुल मिलाकर मुंबई-नासिक हाईवे पर अपने सफर के दौरान हमने ये पाया कि शहरी इलाकों में रहने वाले मध्यमवर्गियों के लिये नासिक से सबकुछ पहुंच रहा है. उनके खानपान की कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन वहीं दूसरी ओर उन्हीं शहरों से भूखमरी से डरकर भागते हुए गरीब मजदूर भी दिखाई दिये.

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