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कानून का पालन करने वाला नागरिक, भीड़ का हिस्सा बनते ही कानून अपने हाथ में क्यों ले लेता है?

पुलिस की ट्रेनिंग में अफसरों को सबसे पहले यही बात समझाई जाती है कि भीड़ को एक साथ एक जगह इकट्ठा ही नहीं होने देना है. इसलिए अगर कहीं ऐसी संभावना होती है तो पुलिस बल भीड़ को सबसे पहले तितर-बितर करने की कवायद शुरु करता है.

नई दिल्ली: भीड़ हिंसा क्यों करती है? आखिर अलग-अलग पर्सनालिटी और साइकोलॉजी वाले लोग एक साथ आने पर एक ही पर्सनालिटी और साइकोलॉजी में कैसे बदल जाते हैं? कैसे हज़ारों लोग एक ही वक्त पर, एक साथ इकट्ठा हो कर बिना किसी प्लानिंग के मरने और मारने पर उतारु हो जाते हैं? फॉरेन्सिक साइकोलॉजी में इस कहानी को अच्छी तरह समझाया गया है?

दरअसल अलग-अलग जगह पर रहने वाले और अलग-अलग शैक्षणिक पृष्टभूमि के लोग, जब एक साथ आते हैं, तो वहां पर उनका सामना उसी विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले एक्सट्रीम मेन्टल रिएक्शन वाले लोगों से होता है. यानी सरल शब्दों में कहें तो उसी विचारधारा या साइकोलॉजी वाले ऐसे लोगों से होता है जो सामान्य की जगह उच्च स्तर की प्रतिक्रिया देते हैं.  इस दिमागी स्थिति का प्रभाव भीड़ में एक इन्फेक्शन की तरह तेजी से फैलता है. और कुछ मिनट में ही हज़ारों लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं.

इसे आप एक आसान उदाहरण से भी समझ सकते है. एक हाल में सैकड़ों लोग नाटक देख रहे होते हैं,अचानक कोई एक आदमी ताली बजाता है और  कुछ सेकेण्ड में ही पूरा हाल एक साथ ताली बजाने लगता है.  इस तरह के इन्फेक्शन की एक और वजह भी होती है. समाज में कानून का भय और व्यक्तिगत पहचान होने के चलते लोगों की साइकोलॉजी में कानून के मुताबिक अनुशासन होता है. उन्हें पता होता है कि वो अगर कुछ भी कानून के खिलाफ करेंगें तो उसका दण्ड उन्हें मिलेगा. इस बारे में सोचते ही उनका दिमाग किसी भी क्रिया या प्रतिक्रिया को खारिज कर देता है,और शरीर को ऐसा संकेत देने से मना कर देता है.

लेकिन हज़ारों लोगों की भीड़ में एक व्यक्ति की निजी पहचान भीड़ की पहचान में तब्दील हो जाती है. वो ये मानने लगता है कि यहां किए गए किसी भी काम के लिए वो व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार नही होगा.जैसे ही किसी भी व्यक्ति के दिमाग से उसकी निजी पहचान खत्म होती है,उसकी पर्सनालिटी में बहुत बड़ा बदलाव आ जाता है. उसका समाज  के सामने वाला व्यक्तित्व जिसके साथ वो समाज में अपना जीवन गुजारता है. वो तुरन्त और तेजी से बदल जाता है. उसकी क्रिया और प्रतिक्रिया दोनो में बहुत बड़ा बदलाव शुरु हो जाता है.  क्रिमिनल साइकोलॉजी में भी अपराधी के व्यक्तित्व में भी यही चीज़ पाई जाती है . वो अपने अपराधी व्यक्तित्व को दुनिया के सामने बचा कर रखता है, और जैसे ही उसकी पहचान छिप जाती है या गुप्त हो जाती है,वो अपराध की धटना को अंजाम दो देता है.

प्रसिद्ध मनौवैज्ञानिक ली बॉन के मुताबिक भीड़ में हिंसा करने वाला व्यक्ति अपनी उस पर्सनालिटी में होता ही नहीं है जिस पर्सनालिटी के साथ वो समाज में पहले से रह रहा होता है. वो हिंसा के वक्त अपने दिमाग की सोचने समझने की शक्ति को खत्म कर के भीड़ में खड़ा होता है. उसके दिमाग में भीड़ से विरुद्ध जाने की क्षमता नहीं होती है. दुनिया को मनोविज्ञान की कई परिभाषाएं देने वाले वैज्ञानिक मैक्डोगल के मुताबिक भीड़ का हिस्सा बनते ही दिमाग में कठोर संवेदना की मात्रा बढ़ने लगती है और जैसे ही ये बढ़ने लगती है लाजिकल यानी तार्किक बैद्धिक क्षमता कम होना शुरु हो जाती है. और ऐसा होते ही वो भीड़ की विचार धारा में शामिल  हो कर उसे और मजबूत बनाने लगता है. यानी पत्थर मारने वालों और आग लगाने वालों की तादाद बढ़ने लगती है. भीड़ में खड़े व्यक्ति के दिमाग में निर्णायक होने यानी जजमेन्टल होने की सुरुर बहुत तेजी से बढ़ने लगता है. और वो भीड़ की ताकत से फैसला लेने की तरफ बढ़ जाता है. और इस बीच उसे जहां रुकावट मिलती है वो उसे खत्म करना शुरु कर देता है. इस काम को करने के दौरान एक बार भी उसके दिमाग में इस काम के बदले मिलने वाले दंड या फिर उसके अंजाम के बारे में उसका दिमाग सोचने के काबिल नहीं होता. क्योंकि क्राउड साइकोलॉजी की गिरफ्त में जाते ही उसका दिमग अपनी ये क्षमता खो देता है.

अब आप ज़रा अपने दिमाग में ज़ामिया या फिर देश के अलग अलग हिस्सों में आग फैलाने वाले लोगों लोगों के चेहरे लाइए. इन लोगों में कानून का भय सामान्य लोगों से ज्यादा होता है. लेकिन जैसे ही ये भीड़ का हिस्सा बनते हैं वैसे ही ये राज्य की सबसे शक्तिशाली ईकाई यानी पुलिस से दो-दो हांथ करने के लिए दिमागी रुप से तैयार हो जाते हैं. गोली चलाना,आग लगाना,तोड़फोड़ करना,या फिर किसी की जान ले लेना ये सारी चीज़ें ऐसी दिमागी हालत में बेहद सामान्य होती हैं. जबकि जब ये समाज के बीच सामान्य जीवन यानी इन्डूविजिअल पर्सनालिटी या फिर आईडेन्टिटी के साथ जीवन गुजारते हैं तो पुलिस को देखते ही इनका दिमाग तय कानून के हिसाब से ही व्यवहार करने के लिए अपने शरीर को संकेत भेजता है.

पुलिस की ट्रेनिंग में अफसरों को सबसे पहले यही बात समझाई जाती है कि भीड़ को एक साथ एक जगह इकट्ठा ही नहीं होने देना है. इसलिए अगर कहीं ऐसी संभावना होती है तो पुलिस बल भीड़ को सबसे पहले तितर-बितर करने की कवायद शुरु करता है. क्योंकि उसे पता है कि अगर ये भीड़ एक साथ,एक जगह खड़ी हो गई तो क्राउड साइकोलॉजी के जन्म को रोकना लगभग असंभव हो जाएगा. और ऐसी स्थिति में ये भीड़ बेहद खतरनाक कदम उठा सकती है. क्योंकि इस भीड़ यानी क्राउड साईकी के पास तार्किक यानी लाजिकल कैल्कुलेशन की क्षमता नहीं होती है. सीआरपीसी और आईपीसी में भी कानून बनाने वालों नें भीड़ को रोकने के लिए धारा 144 का निर्माण किया और इसे तोड़ने पर दण्ड का प्रावधान किया. इन सबके पीछे एक ही मकसद था क्राउड साईकी के जन्म को रोकना. क्योंकि क्राउड साईकी का जीवन काल तो बेहद कम होता है लेकिन इसके नतीजे और एक्शन बेहद खतरनाक होते हैं.

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