नई दिल्ली: आतंरिक सुरक्षा को लेकर देश पर जब कोई मुसीबत आई, देश की एलीट फोर्सेस ने न सिर्फ वतन को महफूज रखा, दुश्मनों को ढेर भी किया, बल्कि देश की सुरक्षा की खातिर अपनी जानें भी निछावर कीं. हमेशा इन फोर्सेस ने अपनी बहादुरी और कौशल से देश को सुरक्षित रखा है.
1) मार्कोस कमांडो
2) पैरा कमांडो
3) गरुड़ कमांडो
4) घातक फोर्स
5) राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड या ब्लैक कैट
6) कोबरा कमांडो
7) स्पेशल फ्रंटियर फोर्स
आइए जानते हैं कि देश की एलीट फोर्सेस के बारे में...
(1) मार्कोस कमांडो
मार्कोस नौसेना की रीड़ की हड्डी मानी जाती हैं, क्योंकि ये मौके पर पहुंच कर दुश्मनों के छक्के छुड़ाने में महारत रखती है, फिर चाहे दुश्मन पानी के अंदर हो या बाहर.
मार्कोस का कब गठन हुआ?
मार्कोस को दुनिया की बेहतरीन यूएस नेवी सील्स की तर्ज पर विकसित किया गया है. इनका चेहरा हर वक्त ढका रहता है. भारतीय नौसेना की इस स्पेशल यूनिट का गठन 1985 में किया गया था. गठन के समय इसका नाम 'इंडिया मैरिन स्पेशल फोर्सेस' (IMSF) रखा गया था, लेकिन दो साल बाद इसका नाम बदलकर मैरिन कमांडो फोर्स (MCF) रख दिया गया. इसके गठन के पीछे सरकार का मकसद समुद्री लुटेरों और आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब देना था.
कैसे जल, थल और वायु में दुश्मनों से लड़ने में है सक्ष्म?
मार्कोस कमांडो को जल, थल और वायु सभी जगह ऑपरेशन को अंजाम देने में महारत हासिल है. मार्कोस हाइटेक वैपंस के साथ कई तरह के हथियार से लैस होते हैं. इन्हें बेहद मुश्किल मिशन के लिए इन्हें शामिल किया गया है. जैसे समुद्री लुटेरों को खत्म करने के काम में लगाया जाता है.
बेस-स्टेशन कहां स्थित है?
आईएनएस करणा के नाम से मार्कोस का स्थायी बेस-स्टेशन विशाखपट्नम के पास स्थित है.
मार्कोस ने कब-कब किए आतंकियों से दो-दो हाथ?
26/11 मुंबई हमले के दौरान ताज होटल पर हुए आतंकी हमले में पहला मोर्चा संभालने वाले यही कमांडो थे.
(2) पैरा कमांडो
पैरा कमांडो भारतीय सेना की पैराशूट रेजीमेंट की स्पेशल फोर्स की यूनिट है. इनका गठन एक स्पेशल ऑपरेशन के लिए साल 1966 में हुआ था.
कब-कब ये देश के काम आए?
ऑपरेशन पवन 1987: श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ सेना की मदद करने के लिए ऑपरेशन पवन को अंजाम दिया था. कारगिल युद्ध, 1999: साल 1999 में पैरा कमांडो ने कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तान से दो-दो हाथ किए थे और भारत की जीत में अहम भूमिका निभाई थी.
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम, दिसंबर 1971: साल 1971 में पाकिस्तान से 16 दिनों का युद्ध हुआ और करीब 90 हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया था. इस दौरान पैरा कमांडो की भूमिका यादगार रही.
पैरा कमांडो का मकसद क्या होता है?
पैरा कमांडो स्पेशल ऑपरेशन, आतंकवाद विरोधी अभियान, विदेश में आंतरिक सुरक्षा, विद्रोह को कुचलने, डायरेक्ट एक्शन, बंधक समस्या, दुश्मन को तलाशने और तबाह करने जैसे सबसे मुश्किल समय में देश के काम आते हैं. ये स्पेशल फोर्स देश ही नहीं, विदेशों में भी कई बड़े ऑपरेशन को सफलतापूर्वक अंजाम दे चुकी है.
ये कमांडो दुश्मनों को खत्म करने के लिए एक विशेष ड्रेस का इस्तेमाल करते हैं. इनकी ड्रेसों का रंग कुछ इस प्रकार से होता है. ये रेगिस्तान में हल्के रंग की ड्रेस और जंगलों या हरियाली में गाढ़े रंग की ड्रेस पहनते हैं. इस तरह इन कमांडो को छिपने में मदद मिलती हैं. पैरा कमांडो एक खास झिल्लीदार सूट भी पहनते हैं जिसे किसी भी वातावरण में छिपने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.
(3) गरुड़ कमांडो
वायुसेना की एक कठोर यूनिट यानी गरुड़ कमांडो फोर्स है. यह फोर्स भी जमीन, आसमान और पानी किसी भी परिस्थिति में ऑपरेशन को अंजाम दे सकती है.
गरुड़ कमांडो का कब हुआ गठन?
साल 2001 में जम्मू-कश्मीर एयर बेस पर आतंकियों के हमले के बाद वायु सेना को एक विशेष फोर्स की जरूरत महसूस हुई. इसके बाद साल 2004 में एयरफोर्स ने अपने एयर बेस की सुरक्षा के लिए गरुड़ कमांडो फोर्स की स्थापना की.
खासियत:
देश की इंडियन एयरफोर्स में करीब 2000 यंग गरुड़ कमांडो हैं. गरुड़ कमांडो एडवांस हथियारों से लैस होते हैं. गरुड़ कमांडो हवाई हमले के बीच दुश्मन की पहचान करने, स्पेशल कॉम्बैट और रेस्क्यू ऑपरेशन्स में माहिर होते हैं. इनके पास हथियार के तौर पर Tavor टीएआर -21 असॉल्ट राइफल, ग्लॉक 17 और 19 पिस्टल भी दिए जाते हैं.
इसके अलावा क्लोज क्वॉर्टर बैटल के लिए MP5 सब मशीनगन, AKM असॉल्ट राइफल, एके-47 और कोल्ट एम-4 कार्बाइन भी इनके पास होते हैं.
गरुड़ कमांडो के पास इजराइल के बने किलर ड्रोन्स हैं जो टारगेट पर बिना आवाज के मार कर सकते हैं.
इनके पास 200 UAV ड्रोन के साथ-साथ ग्रेनेड लांचर भी होते हैं. आर्मी फोर्सेस से अलग ये कमांडो काली टोपी पहनते हैं. हलांकि, अभी तक इन्होंने कोई लड़ाई नहीं लड़ी है.
(4) घातक फोर्स
इन्हें स्पेशल ऑपरेशन के लिए गठित किया गया है. घातक का मतलब 'खतरनाक' और 'हत्यारा' होता है. इनका दूसरा नाम 'पैदल सेना' भी है. इस फोर्स का नाम पूर्व जनरल बिपिन चंद्र जोशी ने दिया था. फील्ड मार्शल मौंटगोमरी ने इनकी प्रशंसा में चंद शब्द कहे थे, जीत तो तभी मानी जाती है जब पैदल सेना की बूते दुश्मन की सरजमीं में दाखिल हो जाए.
खासियत-
इसके बेड़े में 20 जवान होते हैं. इनके साथ एक कैप्टन भी रहता है और इनके साथ दो नन कमीशंड ऑफिसर भी होते हैं. ये शॉक ट्रूप के तौर पर जाने जाते हैं.
घातक कमांडो हमेशा बटालियन की आगे की पंक्ति में तैनात रहते हैं. इनकी ट्रेनिंग कर्नाटक के बेलगाम में होती है. घातक फोर्स को हर ऐसी परिस्थिति से लड़ने की ट्रेनिंग दी जाती है जहां और दूसरी फौजें नहीं पहुंच पाती हैं.
इस यूनिट को IWI Tavor TAR-21, INSAS और AK-47 जैसे हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी जाती है. इस यूनिट में शामिल मार्क्समेन को Dragunov SVD और Heckler & Koch MSG-90 जैसे स्नाइफर राइफल चलाने की ट्रेनिंग भी दी जाती है. ये कमांडो लैटेस्ट हथियारों से लैस रहते हैं.
(5) राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड या ब्लैक कैट
ये कमांडो सीधे तौर पर गृह मंत्रालय के अंदर आते हैं. जब कभी आतंकवादियों की ओर से कोई आत्मघाती हमला या फिर आंतरिक हमला जिसे बाकी फोर्स न संभाल पा रही हो तो उस समय मोर्चा संभालने के लिए इन कमांडो को भेजा जाता है.
स्थापना कब और क्यों हुई?
एनएसजी की स्थापना साल 1984 में हुई थी. इनकी स्थापना ऐसे समय की गई थी जब पंजाब में खालिस्तान की मांग को लेकर हिंसा और आतंक का दौर जारी था.
उस समय पूरे पंजाब भर में सुरक्षा व्यवस्था ताक पर थी. ऐसा स्थिति में कानून व्यवस्था और आतंकी वारदातों को रोकने के लिए स्पेशल फोर्स की जरुरत महसूस की गई, जिसके चलते एनएसजी का गठन किया गया था.
अभी तक रोल क्या रहा है?
इनकी भूमिका तब पूरे देश ने देखी जब पाकिस्तान की ओर से मुंबई में 26/11 जैसा हमला किया हुआ था. उस बड़े हमले से निपटने के लिए एनएसजी को भेजा गया और फिर एनएसजी के मोर्चा संभालते ही स्थिति खुद-ब-खुद काबू में आ गई थी.
एनएसजी की जिम्मेदारी क्या-क्या है?
एनएसजी को वीआईपी, वीवीआईपी सुरक्षा, बम निरोधक और एंटी-हाइजैकिंग के लिए जाना जाता है. ब्लैक कैट कमांडो में थलसेना के और कई दूसरी सेना के सैनिक शामिल किए जाते हैं. इनकी फुर्ती और तेजी की वजह से इनका नाम "ब्लैक कैट" रखा गया है.
(6) कोबरा कमांडो
सीआरपीएफ की ये फोर्स घने जंगलों में रहकर नक्सलियों से दो- दो हाथ करने में सक्षम होती हैं और इन्हें सिर्फ इसी लिए गठित किया गया था. यह अपनी तत्परता और तेजी से दुश्मन को ढेर कर सकते हैं. बता दें कि सीआरपीएफ से ही जवान को कोबरा कमांडो के लिए चुना जाता है.
खास बात-
कोबरा कमांडो हर साल या छह महीने के अंदर विदेशी फोर्सेस को ट्रेनिंग देने जाते हैं. अभी तक ये अपनी स्किल अमेरिका, रूस और इजराइल जैसे देशों से साझा कर चुके हैं.
नक्सलियों को खदड़ने में ये माहिर हैं. जब नक्सली हमले बढ़ते हैं तब इन्हें खदड़ने के लिए बुलाया जाता है.
कोबरा की जिम्मेदारी-
इन्हें देश की संसद और राष्ट्रपति भवन की सुरक्षा के लिए लगाया जाता हैं. ये फोर्स दुनिया की बेस्ट फोर्सेस में से एक हैं और गोरिल्ला ट्रेनिंग भी दी जाती हैं.
गोरिल्ला का मतलब-
कोबरा कमांडो की शैली गोरिल्ला वार की तरह होती है. इसमें इन्हें दिन और रात में पेड़ों पर चढ़कर दुश्मनों से लोहा लेने के लिए तैयार किया जाता है. ये रात में खासकर झाड़ियों में घात लगाकर निशाना बनाते हैं. गोरिल्ला कमांडो एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर सेकेंडो में पहुंचते हैं.
(7) स्पेशल फ्रंटियर फोर्स
कब गठन हुआ?
साल 1962 में भारत लड़ाई में चीन से पराजित हो गया था. जिसके बाद देश की खुफिया एजेंसी रॉ ने सरकार के सामने एक गुप्त सैन्य बल के गठन का प्रस्ताव रखा. जिसे सरकार ने स्वीकार कर इस खुफिया फोर्स यानी स्पेशल फ्रंटियर फोर्स का गठन किया. बता दें कि इनका गठन साल 1962 में ही हुआ.
खास बात-
इस फोर्स में सभी तिब्बती मूल के जवान शामिल होते हैं. इनका प्रमुख उद्धेश्य भारत-चीन सीमा से जुड़े विवादों को निपटाना होता है. इसके बाद भी इस बल ने कई मोर्चों पर अपनी उपयोगिता सिद्ध की है.
यह फोर्स सीधी कार्रवाई, बंधक बचाव, आतंकवाद विरोधी गतिविधियों, अचानक युद्ध की स्थिति में और गुप्त ऑपरेशन को अंजाम देने में माहिर है.
बेस कैंप कहा स्थित हैं?
इस स्पेशल फोर्स का बेस कैंप उत्तराखंड के चकराता में स्थित है. यहां पर अधिकतर तिब्बतवासी ही रहते हैं.
इस फोर्स का देश में क्या रोल रहा हैं?
इस फोर्स ने भारत-पाक युद्ध (1971), कारगिल वार (1999), ऑपरेशन ब्लू स्टार, ऑपरेशन पवन या ऑपरेशन कैक्टस सभी टास्क में इन्होंने जबरदस्त भूमिका अदा की थी.