नई दिल्ली: 1962 के युद्ध में शहीद होने वाले सैनिक जसवंत सिंह अमर हो गए. उन्हें जो सम्मान मिलता है वैसा शायद ही किसी को मिलता हो. 24 घंटे उनकी सेवा में 5 जवान लगे रहते हैं. उन्हें मॉर्निंग टी भी पहुंचाई जाती है और उनके जूतों पर भी पॉ़लिश की जाती है. उनके कपड़े भी प्रेस किए जाते हैं और खाना भी पहुंचाया जाता है.

साहस का अद्भुत परिचय दिया था
बाबा जसवंत सिंह रावत. आज उन्हें यही कहा जाता है. 1962 में रायफलमैन जसवंत सिंह नूरारंग की लड़ाई में शहीद हुए थे. चीनी चालों को उन्होंने मात देते हुए अपनी पोस्ट नहीं छोड़ी और चीन को ऐसा सबक सिखाया जिसे वह शायद आज भी याद करता होगा.

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चीनी मशीनगन को दी मात
चीन की मशीनगन काफी परेशानी कर रही थी तो वो चीनी बंकर तक पहुंचे और संगीनों से चीनी सैनिकों को मार मशीनगन को भारतीय चौकी पर ले आए. फिर इसी मशीनगन को चीनी फौजियों पर इस्तेमाल किया. करीब 72 घंटों तक वह चीनी सैनिकों का सामना अकेले करते रहे.

अंतिम दम तक रहे आजाद
कहा जाता है कि जब उन्हें ये लगने लगा कि अब चीनी उन तक पहुंच जाएंगे और उन्हें बंदी बना लेंगे तो उन्होंने अंतिम गोली खुद को मार ली. वे आजाद रहना चाहते थे और नहीं चाहते थे कि चीनी सेना उन्हें अपनी गिरफ्त में ले.

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सेला, नूरा की कहानी
कहा जाता है कि दो स्थानीय लड़कियों सेला और नूरा ने उनकी मदद की थी. उन्हीं की बदौलत जसवंत इतनी देर तक चीन की सेना का मुकाबला कर पाए. वह अपनी जगह बदल बदल कर फायरिंग करते रहे और चीनी सेना समझती रही कि सामने कई लोग हैं. लेकिन किसी ने उनकी मुखबिरी कर दी.

सिर काट ले गए थे चीनी
बताया जाता है कि चीनी कमांडर उनसे इतना गुस्सा था कि उसने जसवंत का सिर काटा और अपने साथ ले गया. लेकिन जब लड़ाई खत्म हो गई तो उसने जसवंत की प्रतिमा बनवा कर भारतीय सेना को वापस की. यह प्रतिमा आज भी स्मारक में लगी हुई है.

मिलती है छुट्टी, होते हैं प्रमोशन
जसवंत सिंह के मंदिर में बिना माथा टेके कोई फौजी अफसर आगे नहीं बढ़ता. उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लगाया जाता है. आज भी उनको प्रमोशन मिलते हैं. उन्हें मौत के बाद प्रमोशन मिलने शुरु हुए थे. वह अब मेजर जनरल बन चुके हैं. उनके परिवार को जब जरूरत होती है, वह छुट्टी की एप्लीकेशन देते हैं. इस पर सेना के जवान उनके चित्र को उनके गांव ले जाते हैं और छुट्टी खत्म होने पर वापस लेकर आते हैं.