क्या इच्छा मृत्यु के फैसले में होगा संशोधन? सुप्रीम कोर्ट ने कहा- गरिमापूर्ण मौत का सभी को अधिकार
याचिकाकर्ताओं ने सर्वोच्च अदालत में तर्क दिया कि इच्छा मृत्यु की प्रक्रिया बेहद पेचीदा है और इसने 2018 के फैसले को निरर्थक कर दिया है. पीठ ने माना कि इसे सरल बनाने की जरूरत है.
Supreme Court On Right To Die With Dignity: सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु की बेहद पेचीदा प्रक्रिया में संसोधन के संकेत दिए हैं. मंगलवार (17 जनवरी) को एक टिप्पणी में सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ ने कहा कि गरिमा के साथ मौत उन लोगों का अधिकार है जिन्होंने लिविंग विल बनाई है. हालांकि कोर्ट ने इसे विधायिका के ऊपर डाला है कि वह गंभीर रूप से बीमार वे रोगी, जो इलाज नहीं चाहते, उनके लिए कानून बनाए.
जस्टिस केएम जोसेफ की अध्यक्षता वाली 5 सदस्यीय पीठ ने कहा, "ये अदालत गरिमा के साथ मरने के अधिकार को मौलिक अधिकार और अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) के एक पहलू के रूप में मान्यता दे चुकी है, ऐसे में इसे और बोझिल नहीं बनाते हैं. यह विचार फैसले को व्यावहारिक बनाने का है."
2018 के फैसले में बदलाव के संकेत
इसके साथ ही कोर्ट ने अपने 2018 के फैसले में संसोधन के संकेत दिए हैं. पीठ में जस्टिस अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, हृषिकेश रॉय और सीटी रविकुमार भी शामिल थे. कोर्ट ने कहा कि 2018 के फैसले में मरणासन्न रोगियों की ओ से बनाई गई इच्छा मृत्यु की लिविंग विल में दिशानिर्देशों को निर्धारित करने के लिए 'थोड़ा सुधार' की आवश्यकता है ताकि उनके जीवन के अधिकार को अधिक विस्तार मिल सके.
पीठ ने अपनी टिप्पणी में जोर दिया कि “मौजूदा दिशानिर्देश पेचीदा हैं और उन्हें सरल बनाने की आवश्यकता है लेकिन हमारे पास पर्याप्त सुरक्षा उपाय होने चाहिए ताकि उनका दुरुपयोग न हो."
याचिकाकर्ताओं ने दिया ये तर्क
पीठ 2018 के फैसले में संसोधन की मांग करने वाली एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी. याचिका में मरणासन्न रोगियों की लिविंग विल को मान्यता देने की मांग की गई थी. यह ऐसे मरीजों के बारे में है जो इतने गंभीर बीमार हैं कि बता नहीं सकते कि उनका इलाज बंद कर देना चाहिए.
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील अरविंद दातार और प्रशांत भूषण ने तर्क दिया कि तीन चरणों वाली कठिन शर्तों की प्रक्रिया ने पूरे फैसले को निरर्थक बना दिया है. इस पर पीठ ने स्वीकार किया कि प्रक्रिया को सरल बनाने की जरूरत है.
सावधान रहने की जरूरत- कोर्ट
कोर्ट ने कहा, ''हमें इसमें थोड़ा बदलाव करना पड़ सकता है... लेकिन साथ ही हमें बहुत सावधान रहना होगा." पीठ ने इस दौरान सीमाओं का जिक्र करते हुए कहा, "हम न तो चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञ हैं और न ही हमारे पास विधायिका जैसी विशेषज्ञता है. चूंकि हम यहां पहले से निर्धारित दिशा-निर्देशों में सुधार करने के लिए हैं, इसलिए हमें सावधान रहना होगा."
क्या था 2018 का फैसला?
2018 के फैसले के तहत, एक वयस्क व्यक्ति एक लिविंग विल बना सकता है, जिस पर दो प्रमाणित गवाहों की उपस्थिति में हस्ताक्षर हों और संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट की ओर से इसकी पुष्टि की गई हो. यदि वसीयतकर्ता गंभीर रूप से बीमार हो जाता है और लंबे समय तक चिकित्सा उपचार से गुजरता है, जिसके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है तो परिवार के सदस्यों के अनुरोध पर डॉक्टर एक मेडिकल बोर्ड का गठन करेंगे.
बोर्ड यह बताएगा कि मरीज के ठीक होने की गुंजाइश है या वह ब्रेन डेड है. इसके बाद जिला अधिकारी एक स्वतंत्र मेडिकल बोर्ड का गठन करेंगे. दूसरे बोर्ड की सहमति के बाद यह मामला न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास जाएगा. जहां इस पर अंतिम फैसला होगा. वहीं, अगर अस्पताल चिकित्सा उपचार वापस लेने की अनुमति से इनकार करता है तो रोगी के परिजन हाई कोर्ट जा सकते हैं, जहां अदालत मेडिकल बोर्ड का गठन करेगी.
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