गुजरात विधानसभा चुनाव: आदिवासी इलाके जहां पिछली बार फंसी थी बीजेपी, इस बार क्या हैं समीकरण
गुजरात विधानसभा चुनाव में जातीय समीकरण बनाने में लगी हुई है सभी राजनीतिक पार्टियां, बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में देखने को मिल रहा है त्रिकोणीय मुकाबला.
गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है, सभी पार्टियां अब बस मतदान होने का इंतजार कर रही हैं. गुजरात की 182 विधानसभा सीटों पर अगले महीने दो चरणों में मतदान होना है. मतदाता अपनी अपनी पसंद की पार्टी के उम्मीदवार के चयन के लिए मतदान करेंगे. ऐसे में बीजेपी, कांग्रेस या फिर आम आदमी पार्टी तीनों ही प्रमुख पार्टियां मतदाताओं को लुभाने में लगी हुई हैं. गुजरात में पहले चरण के लिए 1 दिसंबर को मतदान होगा और दूसरे चरण के लिए 5 दिसंबर को वोट डाले जाएंगे. इससे पहले सभी राजनीतिक पार्टियों चुनावी मैदान में अपने-अपने उम्मीदवार भी उतार रहे हैं.
गुजरात में जातीय और धार्मिक समीकरण को ध्यान में रखते हुए पार्टियां उम्मीदवारों के नाम की घोषणा कर रही हैं. वहीं गुजरात की 182 विधानसभा सीटों में से 142 सीटें जनरल कैटेगरी की हैं और 13 सीटें एससी और 27 सीटें एसटी कैटेगरी के लिए आरक्षित हैं, यानी की गुजरात की 182 विधानसभा सीटों में से 27 सीटें आदिवासी समाज के लिए रिजर्व हैं. और गुजरात चुनाव में हमेशा से ही इन सीटों का विशेष महत्व रहा है, गुजरात में सत्ता की चाबी किसके हाथों में जाएगी इसके लिए आदिवासी समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है.
इस साल के चुनावी समीकरण से पहले अगर साल 2017 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो इस चुनाव में बीजेपी ने कुल 99 सीटों पर जीत हासिल करते हुए राज्य में छठी बार अपनी सरकार बनाई थी और कांग्रेस के खाते में 77 सीटें आई थी. इसके अलावा 6 सीटें अन्य के खाते में गई थी. गुजरात में बीजेपी का पिछले 27 सालों से दबदबा रहा है. और यहां हमेशा से ही बीजेपी और कांग्रेस के बीच में कड़ा मुकाबला देखने को मिला है. कांग्रेस पार्टी गुजरात में एक मजबूत विपक्ष की भूमिका में रही है. लेकिन इस बार गुजरात चुनाव में आम आदमी पार्टी की भी एंट्री हुई है जिसके बाद गुजरात विधानसभा चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिल रहा है.
ऐसे में तीनों ही पार्टियों के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव जीतना किसी टेढ़ी खीर से कम नहीं हैं. गुजरात में कुल 182 विधानसभा सीटों में से 27 विधानसभा सीटें आदिवासी समाज की हैं जो हर बार चुनाव में अहम भूमिका निभाती हैं. चुनाव के परिणामों में इन सीटों पर अलग ही समीकरण देखने को मिलता है. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में इन 27 आदिवासी सीटों में से सबसे ज्यादा 17 सीटे कांग्रेस ने जीती थी.
वहीं बीजेपी के खाते में 27 में से 8 सीटें ही आयी थीं. पिछले चुनाव में इन सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस में सीधा दो तरफा मुकाबला रहा है. लेकिन इस बार 3 तरफा मुकाबला कांग्रेस, बीजेपी और आप में देखने को मिल सकता है.
बीजेपी के लिए इस बार क्या है माहौल?
बीजेपी के लिए इन सीटों पर अपना समीकरण बनाना इस बार इसलिए भी आसान हो सकता है, क्योंकि बीजेपी ने कांग्रेस के गढ़ माने जाने वाले इस आदिवासी इलाकों में पिछले कुछ सालों में अपनी पकड़ मजबूत की है. पिछली बार बीजेपी ने 27 आदिवासी सीटों में से 8 सीटें जीती थी, लेकिन बाद में इसी आदिवासी इलाके के 5 विधायक बीजेपी में शामिल होने से बीजेपी की पकड़ और मजबूत हो गई.
ये आदिवासी सीटें हमेशा से कांग्रेस का गढ़ मानी गई हैं. लेकिन पिछली बार बीजेपी ने यहां काफी हद तक अपना दबदबा कायम किया था. और हमेशा से आदिवासी विधानसभा सीटों में सबसे महत्वपूर्ण सीट रही छोटा उदयपुर सीट रही है, जहां से विधायक मोहन सिंह राठवा 10 बार विधायक रह चुके हैं. लेकिन हाल ही में वो अपने बेटों के साथ कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हो गए.
जिसके बाद बीजेपी ने इस सीट से उनके बेटे राजेंद्र सिंह को मैदान में उतारा है. मोहन सिंह राठवा कांग्रेस के विधायक रहे हैं लेकिन कुछ महीने पहले उन्होंने इस विधानसभा चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया. उनका कहना है कि वो इस सीट से 11 बार चुनाव लड़ चुके हैं जिसमें से उन्होंने 10 बार जीत दर्ज की है लेकिन अब वो 76 साल के हो चुके हैं. अब युवाओं को मौका दिया जाना चाहिए, जिसके बाद बीजेपी ने इस सीट से मजबूत दाव चलते हुए उनके बेटे को ही मैदान में उतारा है.
बता दें गुजरात के उत्तर में अंबाजी से लेकर दक्षिण में उम्बर्गो तक 14 जिलों में आदिवासी पट्टी फैली हुई है. ये क्षेत्र राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमाओं से सटा हुआ है. गुजरात की 27 विधानसभा सीटों के मुताबिक कुल आबादी का 15 फीसदी कुल हिस्सा आदिवादी समुदाय का है. और बीजेपी- कांग्रेस के साथ-साथ भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) का भी आदिवासी समुदाय पर दबदबा रहा है.
गुजरात में 10 ऐसे जिले हैं जहां आदिवासी समुदाय की आबादी सबसे अधिक है. जिसमें डांग में 95 फीसदी, तापी 84 फीसदी, नर्मदा में 82 फीसदी, दाहोद में 74 फीसदी, वलसाड में 53 फीसदी, नवसारी में 48 फीसदी, भरुच में 31 फीसदी, पंचमहाल में 30 फीसदी, वडोदरा में 28 फीसदी और सबारकांठा में 22 फीसदी आदिवासी मतदाता हैं. गुजरात राज्य के ये महत्वपूर्ण जिले हैं.
क्या हैं गुजरात में आदिवासी समाज के चुनावी मुद्दे
इसके साथ ही अगर आदिवासी समाज के गुजरात में चुनावी मुद्दों पर गौर करें तो बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है, इसके साथ स्वास्थ्य, शिक्षा, जाति प्रमाण पत्र उपलब्ध ना हो पाना, पैसा अधिनियम आदि जैसे अहम मुद्दों हैं जिन पर चुनाव होते रहे हैं. ऐसे में बीजेपी आदिवासी समाज को रोजगार देने के मुद्दे पर काम करती आयी है. साल 2018 में बीजेपी सरकार ने केवडिया में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी का निर्माण कराया, जिसे आदिवासी विकास के मॉडल के रूप में पेश किया गया. हालांकि कुछ आदिवासी समाज के लोग बीजेपी से अब तक ना खुश हैं क्योंकि उन्हें केवड़िया हाईवे पर बुलेट ट्रेन और स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के चलते यहां मौजूद अपनी जमीन गवानी पड़ी थी.
इसके अलावा नवसारी, तापी, डांग और सूरत जैसे जिलों में भी आदिवासी समाज के लोग बीजेपी से कुछ नाखुश हैं, जिसका फायदा कांग्रेस या आम आदमी पार्टी को मिल सकता है. हालांकि बीजेपी आदिवासी समाज के वोटरों को मनाने में लगी हुई है. 6 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वलसाड से पार्टी के अभियान की शुरुआत करते हुए कहा था कि उनके लिए 'ए' मतलब आदिवासी समाज है.
इसके अलावा प्रधानमंत्री ने गुजरात के मानगढ़ का भी दौरा किया था जहां उन्होंने साल 1913 में अंग्रेजों द्वारा मारे गए आदिवासी समाज के लोगों को श्रद्धांजलि दी. इतना ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी बीजेपी आदिवासी समाज में अपनी पकड़ मजबूत करने में सफल रही हैं जिसका उदाहरण है कि राष्ट्रपति चुनाव में पार्टी ने एक आदिवासी उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को मैदान में उतारा. और अभी देश के राष्ट्रपति के पद पर एक आदिवासी समाज की महिला ही आसीन हैं. जिसके बाद पार्टी ने कई आदिवासी क्षेत्रों में उत्सव जुलूस भी आयोजित किए.
क्या कांग्रेस को मिलेगा आदिवासी समाज का साथ?
वहीं कांग्रेस के लिए गुजरात में इस आदिवासी समाज को अपने पक्ष में करने के लिए कौन कौन से रास्ते खुले हैं. इसको जानने के लिए अगर थोड़ा इतिहास में चले तो पता चलेगा कि साल 2004 में पूर्व मुख्यमंत्री अमरसिंह चौधरी के निधन के बाद से कांग्रेस के पास एक मजबूत आदिवासी चेहरा नहीं हैं. हालांकि खेडब्रह्मा विधानसभा से कांग्रेस के एक आदिवासी विधायक अश्विन कोतवाल एक मजबूत चेहरा थे लेकिन वो अब बीजेपी में शामिल हो गए हैं और भिलोदा से पार्टी के दिग्गज विधायक अनिल जोशियारा का कोविड के चलते निधन हो गया.
हालांकि कांग्रेस पार्टी हमेशा से ही आदिवासी सीटों पर अपने दबदबे को लेकर दावा करती आयी है. लेकिन अगर मौजूदा चुनावी सरगर्मियों की बात करें तो कांग्रेस पार्टी के स्टार प्रचारक राहुल गांधी, सोनिया गांधी या अन्य दिग्गज नेताओं में से कोई भी चुनावी मैदान में प्रचार-प्रसार करते नहीं दिखा है.
आम आदमी पार्टी तलाश रही जमीन
इस बात का फायदा इस चुनाव में नई-नवेली पार्टी आम आदमी पार्टी उठाने में लगी हुई है. दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी गुजरात में डटी हुई है. बढ़-चढ़ कर चुनाव प्रचार किया जा रहा है. आम आदमी पार्टी ने गुजरात में भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने की घोषणा की थी, लेकिन बाद में गठबंधन सफल नहीं हो सका, हालांकि बीटीपी के कुछ नेता आप में ही शामिल हो गए. इस गुजरात विधानसभा चुनाव में पार्टी ने डेडियापाडा़ से पूर्व बीटीपी विधायक चैतर वसावा को मैदान में उतारा है और बीजेपी ने इस सीट से बीटीपी क पूर्व नेता हितेश वसावा को मैदान में उतारा है. दोनों ही एक ही समाज के नेता हैं. ऐसे में बीजेपी और आप के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिल रही है.
दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल पिछले दिनों गुजरात के अलग अलग जिलों में रैलियां कर चुके हैं. आदिवासी जिले छोटा उदयपुर में केजरीवाल ने आदिवासियों के बीच रैली करते हुए पैसा अधिनियम लागू करने का वादा किया है. इतना ही नहीं पंजाब के सीएम भगवंत मान भी गुजरात विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर रहे हैं. पिछले दिनों उन्होंने दाहोद और छोटा उदयपुर में रोड शो किया था.
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