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एक बेहतरीन कूटनीतिज्ञ और पेचीदा मुद्दों को सुलझाने के माहिर रणनीतिकार हैं विदेश मंत्री

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नई कैबिनेट में शामिल हुए मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा कर दिया गया है. पूर्व विदेश सचिव रहे डॉक्टर सुब्रमण्यम जयशंकर को विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई है. एस जयशंकर पेचीदे मुद्दे को सुलझाने के माहिर रणनीतिकार माने जाते हैं. यहां जानिए अभी तक की क्या है उनकी उपलब्धि.

नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नई कैबिनेट में शामिल हुए मंत्रियों के बीच विभागों का बंटवारा कर दिया गया है. पूर्व विदेश सचिव रहे डॉक्टर सुब्रमण्यम जयशंकर को विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई है. एस जयशंकर पेचीदे मुद्दे को सुलझाने के माहिर रणनीतिकार माने जाते हैं. ऐसे में अब जब उन्हें ये जिम्मेदारी दी गई है तो भारत के संबंध विदेशी देशों से और बेहतर होने की उम्मीद है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या उनके पूर्ववर्ती डॉ मनमोहन सिंह, दोनों ही जयशंकर की कूटनीतिक क्षमताओं के मुरीद रहे हैं. यही वजह है कि पीएम मोदी ने उन्हें बाहर से लाकर मंत्रालय में जगह दी है.

अपने काम से हर वक्त सुर्खियों में रहे हैं जयशंकर

नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे शपथ समारोह से ऐन पहले जब उनकी टीम के लिए एस. जयशंकर का नाम आया तो बहुत लोग चौंके. इस वाइल्ड कार्ड एंट्री के बारे में किसी को अंदाज़ भी नहीं था. मगर, टीम मोदी में सीधे कैबिनेट मंत्री के तौर पर हुई एंट्री और कई पुराने नेताओं से आगे के पायदान पर उनकी शपथ ने साफ कर दिया कि इस नाम के साथ पीएम की पसंद का खासा वजन भी जुड़ा है. वैसे यह पहला मौका नहीं है जब कतार तोड़कर जयशंकर को कोई अहम जिम्मेदारी दी गई हो. साऊथ ब्लॉक के गलियारों में देश के नामी रणनीतिक चिंतक रहे के. सुब्रह्मण्यम के इस बेटे को मिलने वाली तरजीह पर अक्सर त्यौरियां भी चढ़ती रहीं. मगर हर बात उनकी काबिलियत ने आलोचकों के मुंह बंद किए हैं. बताया जाता है कि 2013 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी वरिष्ठता क्रम को तोड़कर जयशंकर को विदेश सचिव बनाना चाहते थे. मगर इस प्रस्ताव पर आंतरिक विरोध के चलते मनमोहन सिंह यह कदम नहीं उठा सके. बाद में जयशंकर को 2013 में अमेरिका का राजदूत बनाकर भेजा गया. पीएम मोदी के हैं चहेते

हालांकि, मनमोहन सिंह के बाद सत्ता में आए नरेंद्र मोदी सरकार ने जयशंकर को लेकर अपनी पसंद जाहिर करने में कोई पर्दा नहीं लगाया. यहां तक कि 2015 में जयशंकर की निर्धारित सेवानिवृत्ति तारीख से महज़ चार दिन पहले तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह को हटाकर मोदी ने उन्हें भारत के शीर्ष कूटनीतिज्ञ की यह कुर्सी दी थी. इतना ही नहीं साल 2017 में उन्हें एक साल का सेवा विस्तार भी पीएम ने दिया. जयशंकर के साथ जेएनयू में पढ़े और विदेश सेवा में उनके साथी रहे राजनयिक रहे गुरजीत सिंह कहते हैं कि विदेश मंत्रालय की बैठकों में कई बार पीएम और डॉक्टर जयशंकर के बीच की बेहतरीन केमेस्ट्री के हम गवाह रहे हैं. उनकी क्षमता और पेचीदा मुद्दों को समझने, समझाने और सुलझाने की क्षमता के सभी कायल हैं. ऐसे में उनकी नियुक्ति न केवल विदेश सेवा के लिए फख्र की बात है बल्कि यह भरोसा भी बढ़ाती है कि उन्हें जो भी मंत्रालय मिलेगा उसकी वो काया पलट कर देंगे. एनएसए बनाने की भी थी चर्चा 

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में कई बार यह अटकलें भी लगी कि उन्हें एनएसए की ज़िम्मेदारी दी जा सकती है. हालांकि, 2018 में जब जयशंकर रिटायर हुए और उन्हें सरकार में कोई पद नहीं दिया गया तो लोगों को लगा यह उनके कॅरियर का अंत है. रिटायरमेंट के बाद जयशंकर ने टाटा संस कम्पनी में ग्लोबल हेड इंटरनेशनल अफेयर्स के पद पर जॉइन कर लिया. गणतंत्र दिवस 2019 में जब पद्मश्री नामों की फेहरिस्त में जयशंकर का नाम नज़र आया तो फिर संकेत मिले की वो सरकार में भले न हों लेकिन उनको लेकर पीएम की पसंद बरकरार है. टेढ़े मामलों को सुलझाने और बड़ा सोचने की क्षमता रखने वाले जयशंकर

भारतीय विदेश सेवा के 1977 बैच अधिकारी जयशंकर को सेवा में रहते हुए भी कई ज़िम्मेदारियां दी गई हैं. कॅरियर के शुरुआती दौर में श्रीलंका में भारतीय शांति सेना के दौर में तैनाती, 1998 में नाभिकीय विस्फोट के बाद जापान में रहते हुए संबंधों की संभालने की ज़िम्मेदारी, सिंगापुर के साथ रणनीतिक रिश्तों को आगे बढ़ाने की पहल, भारत-अमेरिका परमाणु डील पर समाधान निकालने की जद्दोजहद से लेकर अमेरिका में भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े के मामले पर बढ़े तनाव से द्विपक्षीय संबंधों को बचाने में भूमिका या फिर चीन से सम्बन्धों में डोकलाम जैसे तल्खी के दौर से शांति का रास्ता निकालने की साधी कूटनीति. कई मोर्चों पर उन्होंने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नाभिकीय रणनीति विषय पर पीएचडी रखने वाले जयशंकर भारत की ओर से नाभिकीय समझौते में प्रमुख वार्ताकार थे. वहीं, विदेश सचिव रहते हुए खाड़ी देशों से मोदी सरकार की पैठ बढ़ाने और संबंध सुधारने में भी उनकी बड़ी भूमिका है. गुजरात के सीएम जब थे मोदी तब से है यारना 

जानकारों के मुताबिक जयशंकर को लेकर मोदी की पसंद उस दौर में बढ़ी जब वो चीन में भारत के राजदूत थे. यूपीए सरकार के राज में गुजरात मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी जब भी बीजिंग गए तो जयशंकर ने उनसे राजनीतिक दूरी बनाने की बजाए खुले दिल से सहयोग किया. साथ ही उन्हें चीन के साथ सम्बन्ध बढ़ाने के गुर भी बताए जो गुजरात के लिए काफी मददगार साबित हुए. इतना ही नहीं अमेरिका के साथ रिश्तों का तल्ख इतिहास लेकर 2014 में सत्ता में आए नरेंद्र मोदी के संबंधों को सुपरपावर मुल्क के साथ सुधारने में भी इनकी अहम भूमिका रही. मेडिसन स्क्वेयर गार्डन में हुए भव्य आयोजन ने जहां मोदी का मन जीत लिया वहीं, 2015 में गणतंत्र दिवस पर विशेष अतिथि के तौर पर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की आमद मास्टरस्ट्रोक सबित हुई. यह पहला मौका था जब कोई अमेरिकी राष्ट्रपति अपने एक ही कार्यकाल में दो बार भारत आया था. इसके बाद ही मोदी ने जयशंकर को विदेश सचिव बनाकर दिल्ली लाने का फैसला कर लिया. जयशंकर तीन साल तक लागतार पीएम मोदी के साथ विदेश नीति के मोर्चों पर काम करते रहे. दुनियाभर के मुल्कों में भारत का रसूख बढ़ाने से लेकर टेढ़े रिश्तों को संभालने पर उन्होंने खास ध्यान दिया. विदेश सचिव रहते हुए जयशंकर ने युवा अधिकारियों को अहम जिम्मेदारियां देने समेत कई ऐसे फैसले लिए जिन्हें उनकी 'आउट ऑफ बॉक्स' सोचने की क्षमता का नमूना कहा जा सकता है. मोदी सरकार में मंत्री बनने वाले दूसरे राजनयिक हैं जयशंकर

बहरहाल, एस जयशंकर नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री बनने वाले दूसरे राजनयिक हैं. उनसे पहले 1974 बैच के विदेश सेवा अधिकारी हरदीप सिंह पुरी को पिछली मोदी सरकार में मंत्री बनाकर शहरी विकास मंत्रालय की ज़िम्मेदारी दी गई थी. दूसरी बार भी टीम मोदी में जगह देते हुए हरदीप पुरी को राज्यमंत्री के तौर पर जगह मिली है. रोचक है कि यहां भी एस जयशंकर ने अपने विदेश सेवा के सीनियर से बाज़ी मारी और कैबिनेट मंत्री की कुर्सी हासिल की. पहले भी प्रतिभा के आधार पर मिला है मंत्रीपद

पहले भी सरकारों में काबिलियत के आधार पर प्रतिभाओं और क्षमताओं को मंत्री पद और अहम जिम्मेदारियां दी जाती रहें. हालांकि अधिकतर मामलों में रास्ता चुनाव के रास्ते आया. विदेश सेवा छोड़कर राजनीति में आए कुंवर नटवर सिंह को राजीव गांधी सरकार में विदेश राज्यमंत्री बनाया गया था. यूपीए सरकार के साथ कांग्रेस 2004 में केंद्र की सत्ता में लौटी तो नटवर सिंह विदेश मंत्री बने. मगर विवादों के चलते दिसम्बर 2005 में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. कुछ इसी तरह संयुक्त राष्ट्र संघ में राजनयिक रहे शशि थरूर की भी राजनीति में एंट्री हुई और 2009 में उन्हें विदेश राज्यमंत्री का पद दिया गया. हालांकि, विवादों के चलते उन्हें अप्रैल 2010 में इस्तीफा देना पड़ा था. बाद में 2012 में मनमोहन कैबिनेट में बतौर राज्यमंत्री एक बार फिर उनकी एंट्री हुई थी और 2014 तक वो मंत्री रहे थे. छह महीने में बनना होगा राज्यसभा या लोकसभा का सदस्य

नटवर सिंह और शशि थरूर दोनों जहां चुनाव लड़कर राजनीति में आए वहीं, हरदीप पुरी और एस जयशंकर को सीधे पहले मंत्री बनाया गया. हरदीप सिंह पुरी उत्तरप्रदेश से राज्यसभा सांसद हैं वहीं जयशंकर के बारे में अभी तय नहीं है कि वो सदन में कैसे पहुंचेंगे. संवैधानिक अधिकार के मुताबिक प्रधानमंत्री किसी व्यक्ति को सीधे मंत्री बना सकते हैं और पद संभालने के 6 महीने के भीतर उस व्यक्ति को लोकसभा या राज्यसभा का सदस्य बनना पड़ता है. ऐसे में एस जयशंकर के पास भी छह माह का वक्त है और अपने इस भरोसेमंद सिपहसलाकार को पीएम मोदी जल्द ही सदन में लाने का रास्ता भी निकाल लेंगे.

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