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सफदर हाशमीः ऐसा लेखक जिसने सामाजिक मूल्यों के बदले जान देकर चुकाई कीमत
सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर नुक्कड़ नाटकों के लिए चर्चित सफदर हाशमी ने 1978 में जन नाट्य मंच (जनम) की स्थापना की थी, जिसके जरिए वह मजदूरों की आवाज को हुक्मरान तक पहुंचाने का बेड़ा उठाए हुए थे.
नई दिल्लीः आज से 30 साल पहले पहली जनवरी, 1989 को साहिबाबाद में नुक्कड़ नाटक करते समय उस पर हमला किया गया. अगले दिन उसने दम तोड़ दिया. उसे इसलिए मार डाला गया, क्योंकि वह दबे-कुचले लोगों की आवाज बन गया था. नाटकों के जरिए लोगों में जागरूकता ला रहा था. वह महज 34 साल का था. वह कोई और नहीं, सफदर हाशमी था, जिसे उसके मूल्यों की खातिर सरेआम सजा मिली. उन मूल्यों की सजा, जिनके लिए वह सारी जिंदगी लड़ता रहा.
सफदर की कोई एक पहचान नहीं है. वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन्हें बेशक असल पहचान 'रंगकर्मी' के रूप में मिली, लेकिन वह साथ में निर्देशक, गीतकार और लेखक भी थे. यह उनके करिश्माई व्यक्तित्व और लोगों से उनके जुड़ाव का असर ही है कि उस घटना के बाद आज भी हर साल एक जनवरी को भारी तादाद में लोग इकट्ठा होकर उन्हें याद करते हैं.
सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर नुक्कड़ नाटकों के लिए चर्चित सफदर हाशमी ने 1978 में जन नाट्य मंच (जनम) की स्थापना की थी, जिसके जरिए वह मजदूरों की आवाज को हुक्मरान तक पहुंचाने का बेड़ा उठाए हुए थे. जिस दिन उन पर हमला हुआ, वह उस दिन भी साहिबाबाद में नुक्कड़ नाटक 'हल्ला बोल' का मंचन कर रहे. उसी वक्त एक स्थानीय नेता ने अपने गुर्गो के साथ उन पर हमला कर दिया.
प्रख्यात नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर कहा करते थे, "आज के दौर में सफदर हाशमी जैसे युवाओं की सख्त जरूरत है, जो समाज को बांध सके. वैसे, किसी भी दौर में सफदर होना आसान नहीं है." सफदर हाशमी के बड़े भाई और इतिहासकार सोहेल हाशमी ने आईएएनएस को बताया, "हां, मेरे भाई को मार डाला गया. क्यों? क्योंकि वह जिंदगीभर उन मूल्यों के लिए लड़ा, जिनके साथ हम बड़े हुए थे."
यह पूछने पर कि जिस दौर में सफदर को मार डाला गया, वह दौर आज के दौर से कितना अलग था? इस पर उन्होंने कहा, "सफदर की हत्या के बाद जब हमने 'सहमत' संगठन की स्थापना की थी, उस वक्त असहिष्णुता बढ़नी शुरू हुई थी, लेकिन अब वही असहिष्णु ताकतें सत्ता पर काबिज हैं, जो अलग विचार वाले लोगों को बर्दाश्त नहीं कर सकते."
सोहेल हाशमी ने आगे कहा, "उस वक्त फिल्म 'द फायर' की शूटिंग रुकवा दी गई थी. हबीब तनवीर के नाटकों पर हमले कराए गए. उस दौर के बाद से यह सब बढ़ा ही है. फर्क सिर्फ इतना है कि उस वक्त वे ताकतें सत्ता में नहीं थीं, लेकिन अब ये लोग सत्ता में हैं, जो भी इनसे असहमति जताते हैं, वे उनको निशाने पर ले लेते हैं."
वह कहते हैं, "पहले चीजें गुपचुप तरीके से होती थीं, लेकिन अब सार्वजनिक रूप से हो रही हैं. पैसे देकर हमले कराए जा रहे हैं, ऑनलाइन ट्रोलिंग हो रही है. अब तो इन्होंने नया शिगूफा छेड़ दिया है, कंप्यूटरों पर नजर रखी जाएगी कि आप क्या लिख रहे हैं. हर जगह सेंसर की तैयारी कर रखी है. यह तानाशाही भी नहीं, फासीवाद है. मेरा भाई सारी जिंदगी समतामूलक समाज बनाने के लिए लड़ता रहा. एक ऐसा समाज, जिसमें किसी के अधिकारों पर हमला न हो, अभिव्यक्ति की आजादी हो, उसके लिए उसने जिंदगीभर काम किया और उसी के लिए वह मारा भी गया."
'चरणदास चोर' नाटक के लिए मशहूर हबीब तनवीर ने बिल्कुल सही कहा था कि किसी भी दौर में सफदर हाशमी होना आसान नहीं है. सफदर के जनाजे में 15,000 से ज्यादा लोग जुटे थे. यह इस बात का सबूत है कि सफदर सीधे लोगों के दिलों में बस गए थे. भारत के लोग अभिव्यक्ति की आजादी चाहते हैं, उन्हें तानाशाही, फासीवाद बिल्कुल पसंद नहीं. देश का इतिहास इसका गवाह है.
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