Sahir Ludhianvi Death Anniversary: साहिर लुधियानवी एक ऐसे शायर हैं जिनकी शायरी हमारी जिंदगी की जरूरत है. साहिर की शायरी कोई आम शायरी नहीं बल्कि वह जुल्मतों के खिलाफ परचम लहराने वाली शायरी है. वह मोहब्बत में असफल हुए इंसान के अकेलेपन की शायरी है. वह जज्बात, एहसासों और रूह की शायरी है. साहिर का मतलब होता है जादूगर और साहिर सचमुच शब्‍दों के जादूगर थे.


साहिर वह शायर हैं जिन्हें ना कभी कारवां की तलाश रही, ना हमसफ़र की तलाश रही, न किसी ज़हर की तलाश रही और न ही किसी चारागार की तलाश रही. उन्होंने सारी उम्र इश्क पर तो खूब लिखा मगर खुद सारी जिंदगी तन्हा रहे. तन्हाई ने कभी इश्क को लेकर उनका नजरिया नहीं बदला और वह हमेशा इश्क को अल्लाह रसूल का फरमान मानते रहे, वह इश्क को हाफिज और कुरान मानते रहे. वह इश्क को गौतम और मसीह का अरमान मानते रहे, वह इश्क को ही कायनात की जिस्म और जान मानते रहे.


अब्‍दुल हायी उर्फ साहिर का जन्म लुधियाना (पंजाब) में हुआ था. उनके पिता की कई पत्नियां थीं, लेकिन पुत्र सिर्फ एक था. जब साहिर मात्र आठ साल के थे तब उनके पिता ने उनकी मां को छोड़ दिया. इस घटना का साहिर पर काफी असर पड़ा. उनमें बचपन से ही भावुक और विद्रोही तेवर आ गए. हालात से जाहिर था कि साहिर को किसी न किसी कलागत विधा से जुड़ना था. उन्होंने लिखना शुरू कर दिया और लुधियाना के गवर्नमेंट कॉलेज में अपनी कविताओं से छा गए.


1945 में पहली बार उपलब्धि कविता संग्रह 'तल्खियां' छपी. इस संग्रह को उनके चाहने वालों ने हाथों हाथ लिया. वे रातों-रात देश भर में मशहूर हो गए. उर्दू के साथ-साथ हिंदी में इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए. इसके बाद उनकी कई किताबे आईं. 'आओ कि कोई ख्वाब बुनें' साहिर लुधियानवी की वह किताब है, जिसने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया. इस किताब से उन्हें अवाम की मोहब्बत भी मिली और आलोचकों से सराहना भी.


तल्खियां, परछाईयां, आओ कि कोई ख्वाब बुनें जैसी किताबों में जहां साहिर लुधियानवी की गजलें और नज्में संकलित हैं, तो गाता जाए बंजारा किताब में उनके सारे फिल्मी गीत मौजूद हैं. इन गीतों में भी गजब की शायरी है. उनके कई गीत आज भी लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं. खासकर उनका लिखा गीत


मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गाया


जब साहिर ने लिखना शुरू किया था तब इक़बाल, फ़ैज़, फ़िराक आदि शायर अपनी बुलंदी पर थे, पर उन्होंने अपना जो विशेष लहज़ा और रुख़ अपनाया, उससे न सिर्फ उन्होंने अपनी अलग जगह बना ली, बल्कि अदब के बड़े नाम बन गए.



साहिर का मिजाज शायराना भी था और आशिकाना भी था. कागज पर इश्क उकेरना उन्हें बखूबी आता था. कभी स्याह तो कभी सुर्ख रौशनाई ने मोहब्बत में रंग भरे और उनकी जिंदगी में अमृता प्रीतम आई. दोनों के बीच प्यार के पैगामों का सिलसिला यूं चला की एक न होकर भी दोनों एक-दूसरे से जुदा न हो पाए. उनका प्यार जमाने से अलहदा था. इश्क की पहले से खिंची लकीरों से जुदा था. अधूरी मोहब्बत का ये वो मुकम्मल अफसाना है जिसकी मिसाल इश्क करने वाले आज तक देते हैं.


साहिर ने जिंदगी को बेहद करीब से देखा और जिंदगी में घटने वाली हर वाकये पर लिखा. उन्हें बनावटी दुनिया से सख्त नफरत थी. खासकर उस दुनिया से जहां लोग एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं और जब भी जी चाहता है नई दुनिया बसा लेते हैं. साहिर ऐसी दुनिया के बारे में कहते हैं कि 'ये दुनिया मिल भी जाए तो क्या है.'


वक्त की मांग हो तो शायर की कलम श्रृंगार की जगह अंगार लिखने लगती हैं. साहिर ने भी अपनी कलम से जब समाजिक यथार्थ का चित्रण किया तो मुल्क की मुफलिसी लिखी, रहबरों का अन्याय लिखा, कमजोरों पर हो रहे अत्याचार पर लिखा...


जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कूचे ये गलियां ये मंजर दिखाओ
जिन्हें नाज है हिंद पर उनको लाओ
जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं ?


सारी जिंदगी इश्क लिखते रहे मगर जब समाज के खोखलेपन को देखा तो कलम विद्रोह की भाषा लिखने लगी और शायर ने लिखा-


ज़िन्दगी सिर्फ मोहब्बत ही नहीं कुछ और भी है
भूख और प्यास की मारी इस दुनिया में
इश्क़ ही एक हक़ीकत नहीं कुछ और भी है


साहिर ने अपना दर्द उर्दू को लेकर भी बयान किया. जब 1969 में गालिब की 100वीं बरसी पर जश्न-ए-ग़ालिब को लेकर मुशायरा हो रहा था तब साहिर ने उर्दू दुश्मनी पर अपने दिल की बात कही थी. उन्होंने लिखा था.


सौ साल से जो तुर्बत चादर को तरसती थी
अब उस पे अक़ीदत के फूलों की नुमाइश है
उर्दू के तअ'ल्लुक़ से कुछ भेद नहीं खुलता
ये जश्न ये हंगामा ख़िदमत है कि साज़िश है


जिन शहरों में गूँजी थी ग़ालिब की नवा बरसों
उन शहरों में अब उर्दू बेनाम-ओ-निशाँ ठहरी
आज़ादी-ए-कामिल का एलान हुआ जिस दिन
मा'तूब ज़बाँ ठहरी ग़द्दार ज़बाँ ठहरी


कुछ तो खास है साहिर की शायरी में, गीतों में, गजलों में कि भूले से भी जिस किसी ने उन्हें पढा, उनके गीतों को सुना वह उनसे प्रेम करने लगा, जब 25 अक्टूबर, 1980 को साहिर हमें छोड़ कर गए तो लोगों ने यही कहा 'अभी न जाओं छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं'.साहिर की शायरी को सरहदों में, जातियों में, मजहबों में या वक्त के दायरे में नहीं बांधा जा सकता. साहिर मोहब्बत की कहानी के वो किरदार हैं जो गुजर जाने के बाद भी आज तक जिंदा हैं.